कहीं देश विरोध में तो नहीं बदल रहा राजनीतिक विरोध

सुरेश हिन्दुस्थानी
वर्तमान में यह तो सबको पता है कि क्या बोलना चाहिए, लेकिन इसका पालन व्यवहार में बहुत कम दिखाई देता है। इसी प्रकार एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि हमें यह पता नहीं होता कि क्या नहीं बोलना और करना है। राजनीतिक जीवन में मर्यादित व्यवहार करने की आशा सबसे की जाती है, लेकिन वर्तमान में इस प्रकार का व्यवहार कतई नहीं किया जा रहा है। कुछ राजनीतिक दल तो सत्ता प्राप्त करने के बाद इस प्रकार का रवैया अपनाते हैं, जैसे राजनीति देश सेवा के लिए नहीं, बल्कि व्यापार करने का माध्यम है। पश्चिम बंगाल सरकार में मंत्री रहने वाले पार्थ चटर्जी के सहयोगियों के आवास पर करोड़ों रुपए मिलना यही संकेत करता है कि उन्होंने सत्ता का दुरुपयोग करते हुए यह राशि एकत्रित की है। हालांकि यह अभी जांच प्रक्रिया में है, उसके बाद ही यह प्रामाणिक हो पाएगा कि यह करोड़ों रुपए किस माध्यम से एकत्रित किए गए।
वर्तमान में देश में राजनीतिक दलों और अन्य संगठनों द्वारा किए जा रहे विरोध प्रदर्शनों के तरीके में बहुत बड़ा बदलाव आया है। यह बदलाव सकारात्मक न होकर पूरी तरह से नकारात्मक ही कहा जाएगा। नकारात्मक इसलिए, क्योंकि विरोध प्रदर्शन के नाम पर कुछ स्थानों पर देश की संपत्ति का भारी नुकसान भी किया जा रहा है, जो लोकतंत्र के संवैधानिक अधिकारों की अवहेलना करने वाला ही कहा जाएगा। यह सर्वविदित है कि लोकतांत्रिक पद्धति में अगर कोई सही नहीं लगती तो उसका विरोध करने का नीतिगत अधिकार है, लेकिन विरोध कैसा हो, इसकी भी संहिताएं हैं। संवैधानिक संहिताओं के दायरे में किया जाने वाला विरोध उचित है और तर्कसंगत भी, लेकिन इस विरोध के नाम पर कोई अपने ही घर का नुकसान करने अथवा विधि सम्मत प्रक्रियाओं पर दबाव बनाने की राजनीति करने पर उतारू हो जाए तो इसे उचित नहीं माना जा सकता। आज देश में लम्बे समय से ऐसा ही दृश्य उपस्थित करने का प्रयास किया जा रहा है।
यह सही है कि देश के लोकतंत्र को बचाने का जितना जिम्मा सत्ता पक्ष का है, उतनी ही कर्तव्य परायणता का परिचय विपक्ष को भी देना चाहिए, लेकिन विपक्ष तो ऐसा व्यवहार करने पर उतारू होता जा रहा है जैसे उसे देश से कोई मतलब ही नहीं है। यहां एक और बात कहना तर्कसंगत लग रहा है कि लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि होती है, राजनीतिक दल नहीं, लेकिन कुछ राजनीतिक दल लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आई केन्द्र की वर्तमान सरकार का विरोध करते करते देश का नुकसान भी करने लगते हैं, इसे लोकतांत्रिक तरीका कहना पूरी तरह से अनुपयुक्त ही होगा। अभी हाल ही में प्रवर्तन निदेशालय द्वारा नेशनल हेराल्ड मामले में की जा रही पूछताछ को ऐसा कहकर प्रचारित किया जा रहा है, जैसे यह मामला प्रधानमंत्री मोदी ने ही प्रारंभ करवाया है। वास्तविकता यह है कि यह पुराना मामला है और प्रवर्तन निदेशालय केवल उसकी संवैधानिक तरीके से जांच ही कर रहा है। इसलिए इस मामले में कांगे्रस द्वारा किया जाने वाला प्रदर्शन केवल दबाव बनाने का ही एक तरीका जान पड़ता है। यहां सवाल यह उठता है कि अगर कांगे्रस के नेताओं ने कुछ किया ही नहीं है तो जांच होने से क्यों डर रहे हैं। नेशनल हेराल्ड मामले की सच्चाई जो भी हो वह देश की जनता के सामने आनी ही चाहिए। कुल मिलाकर यह कहना समुचित होगा कि राजनीतिक विचारधारा की तुलना में देश का हित बड़ा होता है।
देश का तात्पर्य केवल राजनीतिक दल नहीं होते, देश का आशय उस देश की जनता से है और इसी जनता ने प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी को चुना है। लोकतंत्र की परिभाषा यही है कि जो जनता ने चुना है, उसे देश ने चुना है। जब देश ने चुना है तो कोई भी राजनीतिक दल देश से बड़ा नहीं है, वह भी देश के भीतर ही आता है। इसलिए सरकार का विरोध करते समय विपक्ष को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कहीं उनके किसी कदम से देश का नुकसान तो नहीं हो रहा। अगर हो रहा है तो फिर उन राजनीतिक दलों को सिरे से मंथन करने की आवश्यकता है। आज के समय में राजनीतिक दलों को नीति और नीयत ठीक करने की आवश्यकता है, विरोध करिए, लेकिन लोकतांत्रिक पद्धति का पालन भी कीजिए, नहीं तो देश की जनता में हाथ में वह ताकत है कि वह आपको जवाब भी दे सकती है।
सुरेश हिन्दुस्थानी

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