–मनमोहन कुमार आर्य
दो दिन पूर्व एक बहिन जी ने हमें फोन पर कहा कि ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को एक-एक वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। इन ऋषियों में सभी पुरुष हैं, स्त्री कोई नहीं है। क्या यह पक्षपात नहीं है। उनका कहना है कि कुछ महिलाओं ने उनके सामने यह शंका रखी है कि ईश्वर को एक ऋषिका को भी वेद ज्ञान देना चाहिये था। जिस समय फोन आया उस समय हम देहरादून के तपोवन आश्रम में थे। हमने उनसे विचार करने और बाद में चर्चा करने को कहा जिसके लिये वह सहमत हो गईं। हमने आज कुछ समय इस विषय पर विचार किया। हमें नहीं लगता कि ईश्वर ने वेद ज्ञान देने में स्त्री जाति से कोई पक्षपात किया है। पक्षपात तो तब होता जब ईश्वर वेद में व उन ऋषियों को प्रेरणा करता कि यह ज्ञान केवल पुरुषों के लिये है स्त्रियों के लिये नहीं है। हम लोग यजुर्वेद के 26/2 मन्त्र से परिचित है। इसमें वेदों का ज्ञान मनुष्यमात्र अर्थात् स्त्री, पुरुष, ज्ञानी, अज्ञानी, अगड़े पिछड़े, छोटे व बड़े सभी प्रकार के मनुष्यों के लिये है। हम वेद ज्ञान की प्रक्रिया भी जानते हैं। परमात्मा ने यह ज्ञान चार ऋषियों को उनकी समाधिस्थ अवस्था में आत्मा में प्रेरणा देकर दिया था। उन ऋषियों के नाम थे अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर का साक्षात्कार किया था। उन्होंने यह भी बताया है कि परमात्मा ने वेदों का ज्ञान चार ऋषियों को अर्थ सहित दिया था। इन ऋषियों को ईश्वर की प्रेरणा हुई जिसके अनुसार इन्होंने ब्रह्मा जी को एक एक करके चारों वेदों का ज्ञान दिया। इस प्रकार वेद ज्ञान ईश्वर से ब्रह्मा ऋषि तक पहुंचा और उनके बाद इन ऋषियों ने त्रिविष्टिप वा तिब्बत में उत्पन्न सभी युवा स्त्री-पुरुषों को वेदों का ज्ञान दिया था। वेदों का एक नाम श्रुति है। इससे विदित होता है कि ऋषियों ने अन्य मनुष्यों को वेदों का ज्ञान उन्हें सुनाकर व बोलकर दिया था। चारों वेद के मन्त्रों में उन ऋषि-ऋषिकाओं के नाम भी आते हैं जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ काल में सबसे पहले वेदों के मन्त्रों के अर्थों का साक्षात्कार किया था और अन्य लोगों में उस वेदमंत्र व उनके अर्थों का प्रचार किया था। इन नामों में अनेक ऋषिकाओं के नाम भी आते हैं। इससे यह बात सिद्ध होती है कि सृष्टि के आरम्भ में ही अमैथुनी सृष्टि की स्त्रियों ने ब्रह्मा जी वा अन्य ऋषियों से वेद पढ़े थे। ऋषि क्योंकि समाधि अवस्था को सिद्ध किया हुआ होता वा ईश्वर का साक्षात्कार किया हुआ होता है अतः इससे यह भी पता चलता है कि वेदमन्त्रों की द्रष्टा व प्रचारकत्री ऋषिकायें समाधिस्थ अवस्था को प्राप्त अर्थात् ईश्वर का साक्षात्कार की हुइंर् थीं। इतिहास साक्षी है कि हमारे देश में वेदों की बड़ी बड़ी विदुषी देवियां व ब्रह्मवादिनी ऋषिकायें हुई हैं। इससे यह भी ज्ञात होता है कि सृष्टि के आरम्भ में ही स्त्रियों का वेदों का पठन-पाठन आरम्भ हो गया था और वह पुरुष ऋषियों के समान ही वेद विदुषी एवं ऋषिकायें बनी थीं।
‘‘वेदवाणी” आर्यजगत की एक प्रसिद्ध पत्रिका है। इस पत्रिका का नवम्बर, 2018 अंक ‘वैदिक–ऋषि विशेषांक’ प्रकाशित किया गया है। इसमें आर्य विद्वान डॉ0 कृष्ण कान्त वैदिक शास्त्री का एक लेख है। लेख में उन्होंने लिखा है ‘मन्त्रद्रष्टा ऋषि और ऋषिकाएं दोनों हुए हैं। डॉ0 कपिलदेव द्विवेदी के अनुसार ऋग्वेद के 10552 मन्त्रों और 1028 सूक्तों की 24 ऋषिकाएं और अथर्ववेद के नौ काण्डों व 198 मन्त्रों की व्याख्या 5 ऋषिकाओं द्वारा की गई है। सामवेद और यजुर्वेद के कुछ मन्त्रों की भी ऋषिकाओं द्वारा व्याख्या की गई है। बृहद्देवता (2.82-84) में 33 ऐसी ही ऋषिकाओं की नामावली मिलती है। इन 33 ऋषिकाओं के नाम भी डॉ0 कृष्णकान्त जी ने दिये हैं। यह नाम हैं 1-सूर्या सावित्री, 2- घोषा काक्षीवती, 3- सिकता निवावरी, 4- इन्द्राणी, 5- यमी वैवस्वती, 6- अदिति दाक्षायणी, 7- अपाला आत्रेयी, 8- विश्वधारा आत्रेयी, 9- श्रद्धा कामायनी, 10- सर्पराज्ञी, 11- शश्वती, 12- रोमशा ब्रह्मवादिनी, 13- लोपामुद्रा, 14- सुदीति पुरुमीड्हा, 15- कुरुसुति या काण्व, 16- कुसीदी, 17- रेणुर्वैश्वामित्रः, 18- कृतयशाः, 19-स्यूमरश्मि भार्गव, 20- रेणु, 21- उर्वशी, 22- सरमा देवशुनी, 23- वागाम्भृणी, 24- सुकीर्ति काक्षीवत, 25- सुवेदा-शैरीषि, 26- इन्द्रमातरो देवजामयः, 27- शची पौलोमी, 28- इन्द्राग्नी, 29- रम्याक्षी, 30- सरस्वती, 31- सुनीति, 32- रात्रि भारद्वाजी एवं 33- जुहूर्ब्रह्मजाया। इन नामों से यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के आरम्भ में आदि ऋषियों ने स्त्रियों को न केवल वेद पढ़ाये थे अपितु उन्हें ऋषि बनाने में भी योगदान दिया था। ऐसा इसलिये सम्भव हो सका कि ईश्वर ने वेद में स्त्रियों को पुरुषों के समान ही वेद पढ़ाने का अपना भाव प्रकाशित किया है।
हम यह भी विचार करते हैं कि परमात्मा ने सृष्टि को जारी रखने व जीवों को इस सृष्टि में जन्म लेने के लिये स्त्री व पुरुषों के लिये शरीर बनाये हैं जिसका आधार उनके पूर्वजन्मों के कर्म वा उनका प्रारब्ध है। शरीर की दृष्टि से विचार करें तो पुरुष शरीर स्त्रियों व माताओं की तुलना में अधिक दृण व बलवान होने के कारण लाभ की स्थिति में रहते हैं। उन्हें गर्भ धारण, शिशुओं को जन्म, उनका पालन व पोषण, भोजन बनाना व कराना, गृहस्थ के अनेक कार्य नहीं करने होते। यह कार्य प्रायः स्त्रियां या मातायें ही करती हैं। इस कारण से माताओं को अध्ययन अध्यापन का समय कम ही मिलता है। आधुनिक समय में जो मातायें सरकारी सेवा व अन्य कार्यों को करती हैंं उनका परिवार व बच्चे कुछ सीमा तक माता के उनके सन्तानों के प्रति कर्तव्यों प्रेम, स्नेह, दुलार व अन्य कर्तव्यों से वंचित रहते हैं। पुरुषों के शरीर इस प्रकार के हैं कि वह बाल्यावस्था से ज्ञानार्जन कर जीवन भर उसकी उन्नति व प्रचार प्रसार कर सकते हैं। एक गृहस्थी को परिवार के लिये आवश्यकतानुसार धनोपार्जन करना होता है। उसे गृहस्थ में सन्तानों का पालन-पोषण व उनकी शिक्षा दीक्षा आदि का कार्य नहीं करना होता। अतः वह अपना समय वेद व अन्य विषयों के विचार, चिन्तन व अध्ययन आदि में लगा सकता है और वेदों का अधिकाधिक प्रचार प्रसार कर सकता है। परमात्मा ने चार वेदों का ज्ञान चार ऋषियों को प्रदान किया तो इसके पीछे यह भावना हो सकती है कि, वस्तुतः यही भावना थी पता नहीं हमारा केवल अनुमान है, यह ऋषि वेदों का अधिक प्रचार कर सकते हैं। हमारे शीर्ष विद्वान इस विषय का समाधान कर सकते हैं इससे हमें भी लाभ होगा। हमारा उद्देश्य तो यह बताना मात्र है कि ईश्वर ने वेदों का ज्ञान देते समय व इसके बाद कभी भी स्त्री व पुरुषों के प्रति किसी प्रकार का पक्षपात व भेदभाव नहीं किया। ईश्वर मनुष्य को स्त्री वा पुरुष का जो जन्म देता है वह जीवों के पूर्वजन्मों के कर्मों के आधार ही होता है और ऐसा ही सृष्टि के आरम्भ में भी ईश्वर ने किया था। चारों ऋषियों के पूर्वजन्मों के कर्म ऋषि बनने के रहे होंगे और वही वेदज्ञान के पात्र भी थे, यह अनुमान होता है।
जब हम इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो हम यह पाते हैं कि वेदों के मन्त्रों की द्रष्टा जो स्त्रियां हुई हैं वह ऋषियों की तुलना में कम हैं। इसके बाद हमें ऋषियों का दर्शन, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि जो साहित्य उपलब्ध होता है उसमें भी हमें ऋषियों की ही प्रधानता दृष्टिगोचर होती है। ऋषि दयानन्द जी के बाद अनेक आर्य विद्वानों में वेदों के भाष्य किये हैं। इनमें भी हम किसी वेद विदुषी आर्य देवी को नहीं पाते जिसने चारों या किसी एक वेद का संस्कृत या हिन्दी में भाष्य किया है। यहां भी पुरुष विद्वानों की तुलना में विदुषी नारियों की संख्या सीमित ही दृष्टिगोचर होती है। इस पर हमारी बहनें और मातायें विचार कर सकती हैं।
आर्यसमाज की विदुषी देवियां यथा डॉ0 सूर्यादेवी चतुर्वेदा, डॉ0 नन्दिता शास्त्री, डॉ0 प्रियम्वदा वेदभारती जी आदि यदि इस विषय पर अपने विचार प्रस्तुत करें तो इससे सभी का मार्गदर्शन हो सकता है। महर्षि दयानन्द जी ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर को न्यायकारी लिखा है। वेदों में सम्भवतः इसके लिये अर्यमा शब्द का प्रयोग हुआ है। जो न्यायकारी होता है वह पक्षपात कदापि नहीं करता। इसी प्रकार ईश्वर भी कभी कहीं अपने किसी कार्य में किसी भी जीव से पक्षपात नहीं करता। उस पर कभी किसी विद्वान ने पक्षपात का आरोप नहीं लगाया है। इससे यह स्पष्ट है कि ईश्वर पक्षपात रहित एवं न्यायकारी है। हमें ईश्वर के किसी कार्य व निर्णय में पक्षपात की दृष्टि से विचार नहीं करना चाहिये। यदि हम ऐसा करते हैं तो हम उचित नहीं करते। कुछ बातें ऐसी हो सकती हैं जिनके उत्तर न मिले। इस प्रश्न का भी उत्तर शायद विस्तार से मिले। यह ईश्वर ने अपने ज्ञान व विवेक से किया है। इसे हमें उसी की न्याय व्यवस्था में छोड़ देना चाहिये और ईश्वर के विधान को सर्वथा उचित व न्यायपूर्ण मानकर स्वीकार करना चाहिये।