इस्लामिक आतंकवाद को खत्म करने की चुनौती

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संदर्भ:-  डाॅनल्ड ट्रंप का पहला भाषण

प्रमोद भार्गव

अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति बने डाॅनल्ड ट्रंप ने दुनिया से इस्लामिक आतंकवाद समाप्त करने की जो इच्छा-शक्ति जताई है, वह स्वागत योग्य है। इसका खात्मा इसलिए जरूरी है, क्योंकि इसके प्रभाव और विस्तार के चलते दुनिया की व्यापक सोच का दायरा सिमटने लगा है। आज दुनिया का हरेक देश आतंकी हमले की आशंका से ग्रसित है। यूरोप हो या एशिया आतंकी हमलों के हमलावर मुस्लिम निकल रहे हैं। आतंक के फैलते दायरे के चलते यह समझ से परे लग रहा है कि आखिर इसका अंत कहां है ? कहीं भी आतंकी घटना घटने के बाद अकसर यह सुनने को मिलता है कि आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन हकीकत यह है कि हर हमले का हमलावर मुस्लिम होता है, जो इस्लाम का कट्टर अनुयायी होने का दावा करता है। इस लिहाज से ट्रंप ने ठीक ही कहा है कि दुनिया से इस्लामिक आतंकवाद नेस्तनाबूद करना है। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी वैश्विक आतंकवाद पर शिकंजा कसने के नजरिए से अहम् मुहिम चलाई हुई है।

यह वैश्विक आतंकवाद की ही सह-उपज है कि पूरी दुनिया में धार्मिक, जातीय और नस्लीय कट्टरवाद की जड़ें मजबूत हो रही हैं। बावजूद इस्लामिक आतंकवाद नियोजित ढंग से फल-फूल रहा है। इस्लाम में अन्य धर्म और संस्कृति को अपनाने की बात तो छोड़िए, इस्लाम से ही जुड़े भिन्न समुदायों में परस्पर इतना वैमन्स्य बढ़ गया है कि वे आपस में ही लड़-मर रहे हैं। शिया, सुन्नी, अहमदिया, कुर्द, रोहिंग्यार, पठान और बलूच इसी प्रकृति का क्रूरतम पर्याय बने हुए हैं। इसी वजह से खाड़ी के देश इराक, सीरिया, ईरान, कुबैत, लीबिया, मिश्र, फिलीस्तिीन व सऊदी अरब के साथ पाकिस्तान के ब्लूचिस्तान और वजीरस्तान में नागरिक विद्रोह शक्तिशाली हो रहे हैं। इसीलिए इनसे मुकाबला करने और इन्हें अपनी मांद में घेरे रखने में स्थानीय सरकारें नाकाम साबित हो रही हैं। नतीजतन कई देश अमेरिका के मित्र राष्ट्रों और रूस का दखल स्वीकारने को मजबूर हुए हैं। हालांकि परोक्ष रूप से इन अंतकर्लहों का लाभ उठाकर यही देश अपने हथियार भी इन देशों में खपा रहे हैं। इस कारण गोला-बारुद प्रदायक देश आतंकी हिंसा की आग को किसी न किसी रूप में सुलगाए भी रखना चाहते हैं।

यही वजह रही कि एक समय इस्लामिक आतंकवाद को बढ़ावा देने का काम रूस, अमेरिका, चीन, पाकिस्तान और यूरोप के कुछ अन्य देशों में भी किया। परंतु जब यही आतंकवाद इन देशों के लिए भी भस्मासुर साबित हुआ तो इनके कान खड़े हो गए। नतीजतन इस पर नियंत्रण के उपाय के लिए लिए यही देश मजबूर भी हुए। इस स्थिति के निर्माण में संयुक्त गणराज्य रूस के विघटन और अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी व फ्रांस में हुए आतंकी हमलों ने पृष्ठभूमि तैयार की। एक समय चीन पाकिस्तान पोषित आतंकवाद को सरंक्षण दे रहा था, लेकिन जब 2011 में चीन के सीक्यांग प्रांत में इस्लामिक आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया गया तो चीन सर्तक हो गया। ये आतंकी पाकिस्तान से प्रशिक्षित थे, गोया चीन ने पाक को परिणाम भुगतने की चेतावनी देते हुए तुरंत लगाम लगाने को का हुक्म दे दिया। चीन में उईगुर मुस्लिमों ने आतंकी वारदातें की थीं, जिन्हें पाक के वजीरिस्तान में ‘इस्लामिक मूवमेंट आॅफ ईस्टर्न तुर्कीस्तान‘ में प्रशिक्षण मिला था। चीन के सीक्यांग प्रांत में उईगुर मुस्लिमों की आबादी 37 फीसदी है, जो अपनी धार्मिक कट्टरता के चलते चीनी ‘हान‘ समुदाय पर भारी पड़ते हैं। हान बौद्ध धर्मावलंबी होने के कारण कमोवेश शांतिप्रिय हैं।

वैश्विक भूगोल में जो अशांति, हिंसा व अस्थिरता अंगड़ाई ले रही है, उसके दो प्रमुख कारण हैं। एक इस्लामिक कट्टरता, दूसरा नागरिक विद्रोह। साफ है, जो भी संघर्ष है, वह आतंरिक हैं। इन्हें गृह-युद्ध भी कह सकते हैं। इन देशों में ये हालात अलोकतांत्रिक धर्म आधारित सरकारों के वजूद के कारण बने। यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि इन अंतकर्लहों को उकसाने में एक समय अमेरिका की भी मुख्य भूमिका रही। अमेरिका ने परमाणु और जैविक हथियारों के बहाने पहले इराक पर हमला बोला और अपने बूते समर्थ हो रहे इस देश को बर्बाद कर दिया। अफगानिस्तान, सीरिया और लीबिया का भी यही हश्र किया गया। जबकि इन देशों में बाहरी दखल के पहले कमोबेश उदारवादी सरकारें थीं। बाहरी हस्तक्षेपों के चलते पहले तो इनकी आतंरिक सरंचना ध्वस्त की गई। फिर राज्य-सत्ता की भररपाई के लिए चरमपंथी इस्लामिक ताकतों का सत्ता पर कब्जा कर दिया। जबकि इन देशों में निर्वाचन के जरिए लोकतांत्रिक ढांचा विकसित करने की जरूरत थी। अफगानिस्तान, सीरिया, लीबिया और इराक इन्हीं गलत नीतियों का अभिशाप भोग रहे हैं। गोया, ज्यादातर इस्लामिक मध्य-पूर्वी देशों में चरमपंथी सरकारों की सेनाएं और नागरिक विद्रोही आपस में लड़ रहे हैं। दरअसल इनमें से ज्यादातर देशों में शासक तो शिया हैं, लेकिन इनकी आबादी में सुन्नियों का प्रतिशत ज्यादा है। इसीलिए बहुसंख्यक सुन्नी, शियाओं को सत्ता से बेदखल करना चाहते हैं।

वैश्विक परिप्रेक्ष्य में आतंकवाद को लेकर संकट यह है कि 2011 से सीरिया में युद्ध चल रहा है, किंतु अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने इस संकट के लिए कोई प्रयास नहीं किया। भारत पाक प्रायोजित आतंकवाद से पिछले तीन दशक से त्रस्त है, अमेरिका और चीन हैं कि पाक पर कोई आर्थिक प्रतिबंध नहीं लगाते ? इसके उलट वे सऊदी अरब, कतर और सीरिया में अलगाववादी विद्रोही गुटों को सर्मथन दे रहे हैं। अरब में वर्चस्व की लड़ाई शिया बहुल ईरान और सुन्नी बहुल सऊदी अरब के बीच चल रही है। तुर्की के अपने हित हैं। इसने अपनी लंबी सीमा को खुला रखा है, ताकि यहां के लड़ाके सीरिया में प्रवेश कर सकें और सीरिया में असद विद्रोहियों को मजबूत करें। अमेरिका और ब्रिटेन भी असद सरकार को हटाने की मुहिम को ताकत देने के लिए असद विद्रोहियों की मदद करते रहे हैं। लेकिन जब इस्लामिक आतंकी संगठन आईएसआईएस ने सीरिया के कई इलाकों पर कब्जा कर अपनी क्रूर प्रकृति दिखाई तो इन देशों के होश उड़ गए। सीरिया से असद को तो हटाया नहीं जा सका, उल्टे सीरिया अस्थिर हो गया। जब सीरिया के लोग युद्ध की विभिषीका से प्राण बचाने के लिए भागे तो यूरोपीय देश जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस व आस्ट्रिया ने इन्हें उदार एकजुटता दिखाते हुए शरणार्थी के रूप में शरण दी। किंतु यही शरणार्थी अब इन देशों के लिए न केवल संकट का सबब बन रहे हैं, बल्कि आतंक का पर्याय भी बन गए हैं। इस कारण इन देशों में मुस्लिमों के खिलाफ नकारात्मक राय पनप रही है। डाॅनल्ड ट्रंप ने रिपब्लिकन पार्टी की ओर से अमेरिका के राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार रहते हुए, इस नकारात्मकता को खूब भुनाया था। ट्रंप का इस्लाम के विरूद्ध जो कट्टर रवैया था, उसी का परिणाम था कि अमेरिका में मूल अमेरिकी और भारत के हिंदू ध्रुवीकृत हुए। इसलिए शपथ लेने के बाद अपने पहले भाषण में ट्रंप ने इस्लामिक आतंकवाद पर लगाम लगाने की जो बात कही है, वह किए वादे पर अमल का संकेत है। लेकिन इस वादे को पूरा करने में अमेरिका को अपने यहां निर्मित हथियारों की निर्यात संबंधी नीति में भी बदलाव लाना होगा ? क्योंकि हथियारों को बेचने के लिए भी हथियार निर्यातक देश युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार करते रहे हैं।

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