इट हैपेन्स ओनली इन इंडिया!

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भोपाल गैस त्रासदी के सच से शर्मिंदा है देश

-संजय द्विवेदी

यह सिर्फ हम ही कर सकते थे। कोई और नहीं। भारत के अलावा कहीं की राजनीति इतनी बेशर्म कैसे हो सकती है। यह सुनना और सोचना कितना दुखद है कि एक शहर जहां 15 हजार लोगों की एक साथ मौत हो जाए और उस आरोप में एक भी आदमी पचीस साल के बाद भी जेल में न हो। इस नरसंहार को अंजाम देने वाले आदमी के लिए देश का प्रधानमंत्री फोन करे और राज्य का मुख्यमंत्री उसे राजकीय विमान उपलब्ध कराए। एसपी उसे गाड़ी चलाते हुए कलेक्टर के साथ हेलीकाप्टर तक छोड़ने जाए। न्याय की सबसे बड़ी आसंदी पर बैठा जज आरोपों को इतना कम कर दे कि आरोपियों को सिर्फ दो-दो साल की सजा सुनाई जाए। इतना ही नहीं दिल्ली में 15 हजार मौतों का जिम्मेदार यह आदमी राष्ट्रपति से मुलाकात भी करता है।

इन धिनौनी सच्चाइयों पर अब देश की सबसे जिम्मेदार पार्टी के प्रवक्ता का बयान सुनिए। वे कह रहे हैं कि अगर एंडरसन को देश से निकाला नहीं जाता तो भीड़ उन्हें मार डालती। वे कहते हैं देखिए कसाब को जेल में रखने और सुरक्षा देने में नाहक कितना खर्च आ रहा है। वाह हमारे नेता जी और आपकी राजनीति। बेहतर है जेल के फाटक खोल दिए जाएं, इतने अपराधियों और आरोपियों पर हो रहा खर्च बच जाएगा। इस बेशर्मी का कारण सिर्फ यह है कि हमारे पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी का नाम इस विवाद से जुड़ा है। अब कांग्रेस कैसे मान सकती है कि गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों से भी कभी कोई पाप हो सकता है। देवकांत बरूआ के ‘इंदिरा इज इंडिया ’ के नारे सुनकर बड़े हुए आज के कांग्रेसजन कैसे चापलूसी की इस प्रतियोगिता में पीछे रह सकते हैं। कांग्रेस के एक दिग्गज नेता का कहना है सजा दिलाने के लिए कानूनों में परिवर्तन करना चाहिए। 25 साल तक आपके ये सुविचार कहां थे मान्यवर। यह तो वही हाल है कि जब गाज गिरी तो जाग पड़े। एंडरसन को पहले भगाइए और अब प्रत्यर्पण की फाइल चलाइए।

यह देश ऐसा क्यों है? बड़ी से मानवीय त्रासदी हमें क्यों नहीं हिलाती? हमारा स्मृतिदोष इतना विलक्षण क्यों है ? हम क्यों भूलते और क्यों माफ कर देते हैं? राजनीति अगर ऐसी है तो इसके लिए क्या हम भारत के लोग जिम्मेदार नहीं है? क्या कारण है कि हमारे शिखर पुरूषों की चिंता का विषय आम भारतीय नहीं गोरी चमड़ी का वह आदमी है जिसे देश से निकालने के लिए वे सारे इंतजाम करते हैं। हमारे लोगों को सही मुआवजा मिले, उनके जख्मों पर मरहम लगे इसके बजाए हम उस कंपनी के गुर्गों के साथ खड़े दिखते हैं जिसने कभी हमें कुछ आर्थिक मदद पहुंचाई। पैसे की यह प्रकट पिपासा हमारी राजनीति, समाज जीवन, प्रशासनिक तंत्र सब जगह दिखती है। आम हिंदुस्तानी की जान इतनी सस्ती है कि पूरी दुनिया इस फैसले के बाद हम पर हंस रही है। राजनीति के मैदान के शातिर खिलाड़ी जो पिछले पचीस सालों में कुछ नहीं कर पाए एक बार फिर न्याय दिलाने के लिए मैदान में उतर पड़े हैं। भोपाल में निचली अदालत के फैसले ने कुछ किया हो या न किया हो, हमारे तंत्र का साफ चेहरा उजागर कर दिया है। यह फैसला बताता है कि कैसे पूरा का तंत्र जिसमें सारी पालिकाएं शामिल होकर गुनहगारों को बचाने के लिए एक हो जाती हैं। आज हालात यह हैं कि इन पचीस सालों के संर्धष का आकलन करें तो साफ नजर आएगा कि जनसंगठनों और मीडिया के अभियानों के दबाव की बदौलत जो मुआवजा मिल सका, मिला। बाकी सरकारों की तरफ से न्यायपूर्ण प्रयास नहीं देखे गए। आज भी भोपाल को लेकर मचा शोर इसलिए प्रखरता से दिख रहा है क्योंकि मीडिया ने इसमें रूचि ली और राजनैतिक दलों को बगलें झांकने पर मजबूर कर दिया।

भोपाल गैस त्रासदी के सबक के बाद हमारी सरकारों को चेत जाना था किंतु दिल्ली की सरकार जिस परमाणु अप्रसार के जुड़े विधेयक को पास कराने पर आमादा है उसमें इसी तरह कंपनियों को बचाने के षडयंत्र हैं। लगता है कि हमारी सरकारें भारत के लोगों के द्वारा भले बनाई जाती हों किंतु वे चलाई कहीं और से जाती हैं। लोकतंत्र के लिए यह कितना बड़ा मजाक है कि हम अपने लोगों की लाशों पर विदेशियों को मौत के कारखाने खोलने के लिए लाल कालीन बिछा रहे हैं।विदेशी निवेश के लिए हमारी सरकारें, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री सब पगलाएं हैं। चाहे उसकी शर्ते कुछ भी क्यों न हों। क्या यह न्यायोचित है। जब देश और देशवासी ही सुरक्षित नहीं तो ऐसा औद्योगिक विकास लेकर हम क्या करेंगें। अपनी लोगों की लाशें कंधे पर ढोते हुए हमें ऐसा विकास कबूल नहीं है। इस घटना का सबक यही है कि हम सभी कंपनियों का नियमन करें,पर्यावरण से लेकर हर खतरनाक मुद्दे पर कड़े कानून बनाएं ताकि कंपनियां हमारे लोगों की सेहत और उनके जान माल से न खेल सकें। निवेश सिर्फ हमारी नहीं विदेशी कंपनियों की भी गरज है। किंतु वे यहां मौत के कारखाने खोलें और हमारे लोग मौत के शिकार बनते रहें यह कहां का न्याय है। भोपाल कांड के बहाने जब सत्ता और अफसरशाही के षडयंत्र और बिकाउपन के किस्से उजागर हो चुके हैं तो हमें सोचना होगा कि इस तरह के कामों की पुनरावृत्ति कैसे रोकी जा सकती है। यहां तक की गैस त्रासदी के मूल दस्तावेजों से भी छेड़छाड़ की गयी। ऐसा मुजरिमों को बचाने और कम सजा दिलाने के लिए किया गया। अब इस घतकरम के बाद किस मुंह से लोग अपने नेताओं को पाक-साफ ठहराने की कोशिशें कर रहे हैं, कहा नहीं जा सकता। अब ये प्रमाण सामने आ चुके हैं कि 3 दिसंबर,1984 को दर्ज हादसे की एफआईआर और पांच दिसंबर को कोर्ट के रिमांड आर्डर में भारी हेरफेर की गयी। इतना सब होने के बाद भी हमारी बेशर्म राजनीति हमें न्याय दिलाने का आश्वासन दे रही है। जल्लादों के हाथ में ही न्याय की पोथी थमा दी गयी है। जाहिर है वे जो भी करेंगें वह जंगल का ही न्याय होगा। इस हंगामे में जरूर सरकारें और राजनीति हिली हुयी है किंतु सारा कुछ जल्दी ही ठहर जाएगा। हम भारत के लोगों को ऐसे हंगामे करने और भूल जाने की आदत जो है। भोपाल इस सदी की एक ऐसी सच्चाई और कलंक के रूप में हमारे सामने है जिसका जवाब न हमारी राजनीति के पास है, न न्यायपालिका के पास, न ही हमारे प्रशासन के पास। क्योंकि इस प्रसंग में संवैधानिक पद पर बैठा हर आदमी अपनी जिम्मेदारियों से भागता हुआ दिखा है। दिल्ली से लेकर भोपाल तक, रायसीना की पहाड़ियों से लेकर श्यामला हिल्स तक ये पाप-कथाएं पसरी पड़ी हैं। निचली अदालत के फैसले ने हमें झकझोर कर जगाया है किंतु कब तक। क्या न्याय मिलने तक। या हमेशा की तरह किसी नए विवादित मुद्दे के खुलने तक….।

7 COMMENTS

  1. एक बिलकुल सीधा सादा सुझाव आगे के लिए —रखता हूं।
    (१) अमरिकामें O S H A,{Occupational Safety and Health Authority} एक ऑर्गनायज़ेशन है
    इस संस्थाके प्रावधानों का अध्ययन किया जाए। और सारी सावधानियोंका किसी तीसरी स्वतंत्र संस्थासे —उसका –नियंत्रण करवाया जाए। जिसके अंतर्गत लॉग हो। उसे जांच कर भरा जाए।
    एक कंपनीका कर्मचारी लॉग भरता है, दूसरी कंपनीका उसको दुबारा अलग लॉगमें उसे सत्यापित करे। OSHA के अतिरिक्त और भी संस्थाएं है। ===सिद्धांत==> जो भी स्तर या मानक अमरिकामें लागू होता है, कमसे कम (अधिक हमपर है) उतना तो सोचा जाए, लागु करे,वही मानक या स्तर को अपना ले। इसमें ढिलाई ना चला ले।
    दूसरी संस्था है, FEMA Federal Emergency Management Authority. वह अकस्मात घटना होने के बाद दौडकर जाती है, और सहायता करती है।( किंतु लुइज़ीयाना की बाढके समय उसकी क्षमता कम पडी थी, ऐसा बहुतोंका मानना है।) हमे कोई नये सीरेसे काम करना नहीं है।यह सुझाव एक प्रारंभ के लिए है। आगे और भी सोचा जा सकता है। उपरकी संस्थाएं बहुत बडी है, जिसमे हजारों कर्मचारी और सैंकडो विभाग है।

  2. bhai sanjai,
    jitne bhi khulase ho rahe hain iasme kuch bhi naya nahi hain.yah sab akhbaro me chap cuka hain ki andarsan ko arjun singh ne bhagaya.rajivgandhi ki bhumika bhihi desh janta hain,mamla amrica ka nahi bhi hota to bhi hamari sarkaro ka yahi hal hota.
    sawal yah he ki hum dubara aise kai bhopl dohrane ki taiyari kar rahe hain.sarkare chahe कांग्रेस ki ho ya bjp ki iska koi khas fark nahi padta.koi inhe bhagata hain koi apradhiyo ko pasamshree se nawajta hain.
    comred kashyap ne bilkul sahi kaha hain.
    parmanu sandhi par manmohan singh ne apni sarkar dawn par yohi nahi lagai thi.ab uske parinam samne aane lage hain.jab desh ko अतोमी power supply karne wali compony ki jababdehi tai karne ke liye kanun banane ka samai aaya to sarkar vahi sab karne ja rahe hain jo amrika chahta hain.bahut se kharab pravdhan ke alava yeh bhi hain ki durghtna ke bad koi yakti ya sanstha claim nahi kar sakegi.,balki necular power corporetion of india karega aur vo bhi kisi bhartiy adalat me nahi ,aap jaiea parmanu chhati dawa aayoug ke pas.vo aayog jo khud sarkar banaye.aur bhi bahut sare pravdhan hain jo hamari corporeti mansikta ko batate hain.
    aapki bat sahi he lekin bhai ab dubara bhopal na ho iski ladai ladna hi hogi.
    bhagat singh raipur

  3. Those who are slaves when realise that they are slave they faught for freedom.Those who adopt slavery as lifestyle and there whole existance depends on there masters, right or wrong will be decided by the master so every thing was decided by Andersen we simply obeyed.Even Gom”s decision not to press for extradition of Andersen and sanctioning of Rs 982 cr from taxpayers money sends message to masters you kill we will compensate from public money.Whether MASTERS be Union Carbide,Vedanta or all sez holders & MNCs.Hail Masters
    NKkashyap
    Bilaspur cg

  4. संजय जी , इक बार फिर आपका लेख झकझोरता है , सोचने पर मजबूर करता है , गैस त्रासदी के समय नेताओं ने खूब मनमानी की लेकिन मीडिया ने भी कोनसा अपना फर्ज निभाया ? हालात इतने बदतर है की आज कवि दुष्यंत बरबस याद आते है की “कैसे कैसे मंजर नजर आने लगे है गाते गाते लोग चिल्लाने लगे है , अब तो इस तालाब का पानी बदलो यारों इसके कमल मुरझाने लगे है

  5. ॥भारतके शासक और अमरिकाके शासक॥ —-दोनोमें आपही अंतर देख लिजिए॥
    १६ जून के, वॉशिंग्टन से प्रसृत समाचार, का सारांश।
    अमरिकाके राष्ट्रपति ओबामा ने मैक्सिको की खाड़ी में हुए (पेट्रोलियम) तेल के रिसाव के लिए, ब्रिटिश पेट्रोलियम (बीपी) पर सुरक्षाकी अवहेलना का आरोप लगाते हुए कहा; कि वे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे, जब तक बीपी नुकसान की पूर्ति नहीं कर देती।(हम २५ वर्ष सोए) आगे ओबामाने कहा, कि, वे, बुधवार को, बीपी के चेयरमैन से मिलने जा रहे हैं, और आगे बोले, कि उनसे कहेंगे, कि बी पी मेक्सिको की खाड़ी के तट्वासी और वहां काम करने वालों को हुए नुकसान की पूर्ति के लिए एक फंड बनाए। उन्होंने सुझाव दिया कि इस फंड पर किसी तीसरे पक्ष का नियंत्रण हो, जो स्वतंत्र हो।
    ओबामा ने यह बात अपने ओवल मुख्यालयसे से दिए अपने पहले राष्ट्र के नाम, संबोधन में कही।
    ओबामा ने करीब दो महीने से चल रहे इस तेल रिसाव को अमेरिकी इतिहास में “सबसे बड़ी पर्यावरणीय त्रासदी” बताया। उन्होंने समुद्र में बह रहे लाखों गैलन तेल को ऐसी आपदा बताया जिसकी हानि अमेरिकी जनता कई महीनों ही नहीं पर कई वर्षॊं तक झेलनी पडेगी।
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    टिप्पणी: भोपाल पीडितोंके लिए हमारा शासन २५ वर्षॊसे सोता रहा, इस तथ्यको, अमरिकाके राष्ट्रपतिके दिए हुए भाषण से तुलना कीजिए। हमारी जनता बुद्धु ना बने, हम सज्जन भले हो, मूरख नहीं।

  6. भाई संजय जी आपने ठीक ही लिखा है। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है। वर्षों बाद जो बात सामने आयी है। वह चैंकाने वाली है। आपने जो आवाज उठाई है उसमें दम है। सभी को एकजुट हो कर भोपाल पीड़ितों को न्याय दिलाने की दिशा में गोलबंद होने की जरूरत है।

  7. There can be no bigger shame brought to the nation than this verdict. Anderson must be laughing while happily sitting at home after verdict release – life of Indians come so cheap. justice delayed is truly justice denied in this case because Anderson has already witnessed all the springs of his life and there stands no point in penalising him now. Atleast the victim families should be adequately compensated so that world’s biggest tragedy could be closed on a relieved note.

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