कविता

दानी और उदार होने के लिए जरूरी नहीं है धनी होना

—विनय कुमार विनायक

दानी और उदार होने के लिए जरूरी नहीं है धनी होना

अक्सर अधिक धनी व्यक्ति अत्यधिक कृपण होता

ज्यों-ज्यों धन बढ़ते जाता त्यों-त्यों कृपणता बढ़ती जाती!

कृपण व्यक्ति अंततः अपना ही कर लेता है क्षति

धन जमा करने की नशा ऐसी होती

कि हर रोजमर्रा के खर्च में करने लगता है वो कटौती

बच्चों की पढ़ाई के खर्च में कंजूसी

माँ-पिता की थाली में देने लगता है सूखी बासी रोटी!

दुर्योधन संपूर्ण आर्यावर्त हस्तिनापुर का युवराज राजकुमार था

मगर पितृविहीन धनहीन वनवासी गोत्र भाईयों का हक मार लिया

पंच परमेश्वर श्रीकृष्ण के कहने पर पाँच ग्राम तक नहीं दान किया

ऊपर से कसम खा ली सूई की नोक बराबर जमीन नहीं दूँगा हिस्सा

हर धनी मानी भ्रष्टाचारी और अभिमानी व्यक्ति का यही है किस्सा!

मगर खाकपति कर्ण तो एक सूतपुत्र बढ़ई रथकार का बेटा था

मगर तन मन धन व वचन का धनी दानवीर कर्ण महादाता था

दर-दर विद्या अर्जन के लिए भटका था वो गरीब का वंश बेल

पर किसी दक्षिणाजीवी गुरु ने विद्यादान दिया नहीं किया छल!

जिसने भी विद्या दिया अपनी ऊँची जाति विरादरी का समझकर

हकीकत में नीच जाति जान दी गई विद्या वापस ले ली शापित कर

जो जितने नामी थे वे उतने ही धन दौलत के कामी थे

देवराज इन्द्र तक इतने अधिक धनहीन विपन्न दरिद्र थे

कि कर्ण का पितृप्रदत दैहिक कवच कुंडल तक दान में लिए थे!

उन्हें ज्ञात था कर्ण महादानी था

और बड़े-बड़े नृप गुरु द्रोण कृप महाकृपण

उन्हें ज्ञात था कर्ण से दान लेने से

सिर्फ उनका बेटा अर्जुन ही लाभान्वित होगा

मगर द्रोण कृप के अस्त्र दान देने से

उनके पुत्र सहित भाई बंधु सबका हित होगा

उन्हें ज्ञात था कर्ण से अधिक

जो सक्षम धनवान और अति विख्यात था

वो दानी नहीं सिर्फ धन वैभव

और बल का मिथ्या अभिमानी अभिजात था!

सम्राट धृतराष्ट्र और साम्राज्य संरक्षक भीष्म पितामह चाहते 

तो धन सम्पत्ति बांटकर आश्रितों में सुख शांति सम्मति दे देते

मगर धन संपन्न कृपण से बेकार उम्मीद करना दान धर्म का!

राजा से राजनेता अधिकारी से धनसेठ तक में कृपणता ऐसी छाई

कि वे चाहते अपने घर परिवार बच्चे के हिस्से में आए अवैध कमाई!

लखपति मात्र एक हजार रकम भी दान करना नहीं चाहते

क्योंकि उन्हें है भय कि वो लखपति से हो जाएंगे हजारपति

करोड़ीमल गरीब भाई बहन को अवसर विशेष पर चूक जाता

धोती साड़ी अंगवस्त्र दान देने से क्योंकि ऐसे में उन्हें है संशय

कि वो फिर खरीद नहीं पाएंगे दूसरे शहरों में तीसरे चौथे महालय!

आज की राजनीति भी है इतनी गई गुजरी

कि दूसरों की भलाई नहीं की जाती भलमनसाहत मर जाती

अपने नालायक संतान के लिए बड़ी-बड़ी कुर्सियाँ जुगाड़ की जाती

सिर्फ संतति, फिर जाति-जाति, भाई भतीजावाद अनीति की जाती!