खादी,खाकी और काले रंग में रंगी जा रही पत्रकारिता

आत्‍माराम यादव

आज के समय की पत्रकारिता विकास के पथ को तलाशती, जनआकांक्षाओं के समक्ष समपर्ण कर, भ्रष्टाचार की भूलभुलैया मे थककर स्वयं का ही गलाघोटते हुये अधर्म का शिकार हो गयी है। पत्रकार स्वयं पत्रकारिता के अवमूल्यन और तमाम तरह की मर्यादाओं को तोड़ने के लिये खुद अग्रणी हो गया है। वह अपने कर्तव्य से विमुख होकर सत्यम, शिवम सुन्दरम के मूलमंत्र की जननी पत्रकारिता को नीलाम करते हुये न्याय एवं कल्याण के मार्ग से हटकर असत्य मार्ग सें धन अर्जित करने, पद पाने,राजनेताओं की गोद में स्वयं को सुरक्षित मान बैठा है। वह खादी, खाकी, काला एवं सफेद रंग के कुछ मामलों में सकारात्मक गठजोड़ को देखकर भी उनके आदर्शो से सीख नहीं लेकर खुद अपने को शुतुरमुर्ग समझ परिणामों की चिंता नहीं कर रहा है। ऐसे बुद्धि और अकलमंद का डंका पीटने वाले पत्रकारों की अकल पर तरस आता है जिन्होंने दुनियाभर की खबरों को छोड़ अपने पत्रकारिता के कुनबे में एक दूसरे के निजी-मामलों में छींटाकसी कर पत्रकारिता का उच्च आदर्श समझ लिया है, जबकि समाज इस तरह की पत्रकारिता को समझते हुये हजम नहीं कर मजे लेता है जिसमें कुछे बहुरूपिये पत्रकारिता की कलम थामे इनके जज्बातों में बेशमी के घुघरूबाॅध इन्हें ऐसे नचाते है जैसे कोई कोठेवाली नृत्यांगना अपने-आसपास के प्रभावशालियों के इशारे पर नाचती हो।

थोड़ा विचार कीजिये भारतीय समाज में खादी, खाकी, काला एवं सफेद रंग के प्रतीक बने सामाजिक प्राणियों पर। खादी में नेता जी, खाकी में पुलिस, कालेरंग अर्थात कालेकोट में वकील एवं सफेद रंग से चिकित्सक की पहचान इस समाज में है, ये सभी जैसे भी है, सबको पता है, पर इन सभी में एक बात की सामंजस्यता है कि वे सोसल मीडिया या अन्य किसी मंच पर कभी भी अपने कार्य-व्यवहार, पेशे एवं अपनी बिरादरी के लोगों पर कभी भी अंगुली नही उठाते है और न ही छींटाकशीं करते है, जबकि पत्रकार इसका अपवाद है। एक समय वह भी रहा जब पत्रकारिता में अपने प्राण न्यौछावर करने वालों की कमी नहीं जिसे स्वर्णिमयुग कहा गया है। शिखर पर विराजमान पत्रकारिता का वह समय था जब बर्बर अंग्रेजों को देश से भगाने के लिये विदेशी कपड़ों की होली जलाकर प्रत्येक नागरिक स्वदेशी वस्त्रों के प्रति अनुराग से भरा था तब क्या बच्चे-क्या बूढे़, सभी के दिलों में अहिंसात्मक आन्दोलन में खादी के प्रति अथाह प्रेम था। तब खादी देशभक्तों का परिधान होकर उच्च आदर्शों और मूल्यों से देशभक्ति की पवित्र भावना से अपनी सात्विकता प्रकट करती थी पर अब यही खादी देशवासियों के समक्ष गाली बन गयी है? खादी के तिरस्कार के अनेक कारण सामने है जिनमें नेताओं के तन पर सजने वाली यह खादी नेताओं के कुकर्मों के कारण शर्मसार हुई। खादी की आड़ में नेताओं ने वे तमाम कार्य किये जिससे मानवीयता तार-तार होती रही और देश का नाम इन नेताओं के कारण विश्वपटल पर शर्मसार हुआ और लोकतंत्र तमाशा बनने से देशवासियो का सिर झुकने लगा।यह आलोचना का नहीं बल्कि आत्मचिंतन का विषय है।

पत्रकारों की आॅखों में दिन में दिनौधी और रात में रतोंधी बस गयी है तभी कहीं भी किसी पत्रकार का कोई बदमाश पीछा करें, उसके आगे-पीछे दिन-रात गाडी लेकर घूमे और डराये तो उसे बेझिझक कानून की मदद लेनी चाहिये। पर अक्सर देखा जाता है कि स्वयंभू बड़े-अनुभवी पत्रकार ऐसे हालातों में पुलिस पर विश्वास नहीं कर अपनी लेखनी को हिमालय के उतंग शिखर पर विराजमान समझते हुये ऐसी खबरें न खुदके पेपर-चैनल में प्रकाशित/प्रसारित करते है, न अन्यों को देते हुये स्वयं को नारदीय स्वभाव का घोतक मानते है जहाॅ नारदजी का सभी लोकों और देवताओं ,दानवों सहित त्रिदेव से डायरेक्ट सम्बन्ध रहा करते थे, इसलिये उनके प्राणों पर संकट आने जैसी बात उन्हें कभी अपने गले नहीं उतरती थी। ऐसे महाकाय कलमकारों के पीछे दुष्टात्मायें भागती रहती है और ये जगत को दिखाने के लिये स्वयं को दुर्वासा घोषित किये होते है ताकि दुर्वासा के प्रकोप से सारे जगत को ये भस्मीभूत कर देंगे। इनके प्राणों पर संकट होने इनका पीछा करने वालों के सम्बन्ध में पुलिस-प्रशासन को खबर नही दी जाती है, आश्चर्य तब होता है जब इनके वीरबहादुर होने की सूचनायें सोसलमीडिया पर बाढ़ ले आती है और इनकी बिरादरी को छोड़ इन्हें सहानुभूति देने के लिये सुराखों वाले रायबहादुर काजू ही रायता फैलाकर राय देते नजर आते है। कभी सुनने को नहीं मिला कि किसी कर्जदार के घर चोरों ने धावा बोला हो, अगर कर्जदार चोरी की रपट करने पहुॅच भी जाये तो पुलिसिया छानबीन में शर्म से लदा होने से खुद ही घर में फाॅके पड़ने से बेशर्मी से झुक जाता है और उस पर तोहमत लगती है कि कर्जा चुकाने से बचने के लिये चोरी की रिपोर्ट करने आया है, उल्टा कानून का शिकंजा उसके गले में न फॅसे इसलिये वह ऐसी गुस्ताखी नहीं करता है।

हम जिस सूचना युग में है जहां पलक झपकते ही पूरी दुनिया में अपनी बात इंटरनेट के माध्यम से भेज सकते है पर हर प्रकार की आधुनिक सुविधाओं के होते हुए ऐसे कलाकार पत्रकारिता को शिखर से जमीन पर पटक चुके है। पत्रकारिता की गिरावट का रिश्ता पत्रकार से जुडा है, पत्रकार भी मानव समाज में अपने कर्तव्य पालन से सबके दिलों पर राज कर सकता था, किन्तु उसका कर्तव्यहीन होना, सरकार द्वारा दी जाने वाली रेल-बस किराये में रियायत, टोलटेक्स चिकित्सा जैसी सुविधाओं को कोरोना काल से छीनने के बाद अब तक बहाल न किये जाने के बाद भी उसका इठलाना जारी है। पत्रकार का धर्म एवं दायित्व अपने घर के निजी मामलों से बाहर जाकर पत्रकारिता करने का होता है, अगर वह अपने ही घर मे स्वयं एवं पत्रकारों के हितों पर कुठाराघात करने वाले मामलों में अवरोधात्मक पत्रकारिता करने लगेगा तो घर नर्क बन जायेगा, फिर वह चीखे-चिल्लाये कि यह स्वर्ग है, इससे कुछ फर्क नहीं पडने वाला है परन्तु पत्रकारों ने अपने घरेलू मामलों की पत्रकारिता करके अपने ही घर को नर्क बना रखा है।

समझना होगा अगर कोई न्यायाधीश अपने घर में जज बन जाये तो बहुरानी को जुर्माना,बेटी को दो वर्ष का कारावास और पत्नी को कोर्ट उठने तक खड़े रहने की सजा घर में सुना सकेगा ? कोई भी अधिवक्ता अपने घर के भीतर पत्नी-बच्चों के समक्ष अधिवक्ता बन जाये तो क्या वह अपने परिवार के सदस्यों में झूठ को सच और सच को झूठ के तर्क कर सकेगा? कोई पुलिस वाला घर में पुलिसवाला बन जाये और पुलिस थानों होने वाली पूछताछ, लेनदेन, गवाही आदि व्यवहार को घर ले आये तो उसका घर स्वर्ग बनेगा या नर्क? जब समाज के जिम्मेदाराना ये लोग अपने कार्य-व्यवसाय, नौकरी-पेशे के कार्यो को घर नहीं लाते और न ही अपने हित संवंर्धन के संगठनों में लाते है, तो क्या कारण है कि पत्रकार इतनी छोटी सी बात को समझ नहीं पा रहा है और आये दिन अपने ही घर की, अपने साथियों-संगठनों को कब्र में पहुचाने वाली पत्रकारिता कर रहा है। व्हाटसअप ग्रुप में अपने ही घर के लोगों को, अपनी ही कौम को नीचा दिखा रहा है, तो उसकी शैली में शामिल पत्रकार जनता के सामने पत्रकारों का उपहास करते इस बात का ज्ञान नहीं रखते है कि वे जिस भी पत्रकार की अच्छी-बुरी बाते लिखकर मजे ले रहे है, उन विषयवस्तु से जुड़े पत्रकार के परिवार तक भी यह बात पहुॅचती होगी, तब वे क्या महसूस करते होंगे, क्या यह जिस डाल पर बैठे है,उसी डाल को काटने जैसी मूर्खतापूर्ण पत्रकारिता नहीं कहलायेगी।

खादी के आंचल में जो नेता देश का नेतृत्व करते है, वे नागनाथ-साॅपनाथ बने खादी की शरण लिये है, खादी और खाकी का पति-पत्नी की तरह साथ-साथ है,जो एक दूसरे का हुकुम बजाकर जनता के भक्षक बने हुये है। खादी और खाकी देश और कानून की रक्षा हेतु संविधान की शपथ लेते है बाबजूद प्रत्येक नागरिक सुरक्षा कमियों और असामाजिक तत्वों के बीच भयभीत और असुरक्षित जीने को विवश है। पुलिस थानों में देशभक्ति जनसेवा क नारे विशिष्टजनों के लिये है, आमजनता पुलिस थाने पहुॅचकर ऊलजलूल तर्को से अपमान सहकर अपनी पीड़ा तक थानों में खाकी वर्दीधारियों द्वारा नहीं सुनी जाती है। अपराधी सरेआम पुलिस थाना क्षेत्रों मंें सक्रिय रहकर अपराध करते है, पुलिस सब कुछ जानती है, रेत, भसुआ मिटटी का खेल हो या छोटा बड़ा अपराध सभी अवैध धंधों को अंजाम देने वाले गली-मोहल्लों में पसरे होते है पर खाकी के संरक्षण में ही ये सभी शान से घूमते है, पर मजाल है कि इन पुलिसवालों पर कोई पुलिसवाला कीचड़ उछाले, जैसे कि पत्रकार पत्रकार पर उछालने में माहिर होता है।

काले रंग का कोट कानून की सरुक्षा का प्रतिनिधित्व करता है और काला कोट वकील न्यायाधीश पहनता है। वकीलों का संगठन उनके बार कौसिल के रूप में प्रत्येक तहसील-जिला स्तर के अलावा उच्च न्यायालय में दिखाई देता है। काले रंग का प्रतीक के संबंध में मान्यता है कि न्याय निष्पक्षता के काले आवरण से ढॅका हुआ है जहाॅ गवाहों के बयान और वकीलों के तर्को से आवरण को चीरती सच्चाई को संज्ञान में लेकर न्यायमूर्ति पीड़ित व्यक्तियों को सूचित न्याय प्रदान कर सके, पर आज दुर्भाय से लोगों का न्यायालय पर से विश्वास उठ गया है। इसका कारण मामलों को कई सालों तक जीवित रखना, जिससे गवाह घटित स्थ्तिियों एवं साक्ष्यों को अपनी स्मृति से विस्मृत कर जाये, जिसका लाभ लेकर चतुर वकील तर्को के चक्रव्यूह में फसाकर प्रकरण की दिशा बदल देते है। दूसरा न्यायालय के क्लर्क को प्रत्येक पेशी में मिलने वाली आकर्षक राशि, और वकीलों को मिलने वाली फीस में जहाॅ पेशेवर गवाह कानून की आॅखों में धूल झोंक कर आपरााधियों को कानूनी शिंकंजे से मुक्त करा लेते है वहीं उन्हें बाईज्जत बरी कराकर समाज के समक्ष मुश्किलें खड़ी करते हैं। यही कारण है कि भयमुक्त समाज के निर्माण में वकीलों का योगदान मृतप्रायः है क्योंकि शराब, के ठेके, जुय, सटटा, अफीम,गाॅजा, चरण आदि व्यापारियों, जबरन वसूली,अपहरण करने के बाद फिरौती जैसे कुकुर्मो पर देश का भविष्य चैपट हो रहा है इनके लिये मुॅहमाॅगी राशि वकीलों को फीस में मिलने से इनके महलनुमा बंगलों -निवासों में होने को समाज इनकी तरक्की और कानून का जानकार मानकर सम्मान देकर इनपर विश्वास करता है। इतना सब कुछ होते हुये इन वकीलों में आपस में मतभेद होेते है पर मनभेद नहीं, और वे कभी भी सार्वजनिक रूप से पत्रकारों की तरह एक दूसरे पर कीचड़ नहीं उछालते जैसा कि आज देखने को मिल रहा है।

परहित की पत्रकारिता के स्थान पर अर्थ हित एवं स्व हित का दबाव बढा है , यही पत्रकारिता का अधर्म है। पत्रकारिता में आम आदमी की चर्चा होनी चाहिये पर अपराध और राजनीति की खबरें आदर्श को बिगाड चुकी है और इस गुलामपरस्त बिगडैल पत्रकारिता ने देश के नागरिकों में नागरिकता का भाव तिरोहित कर दिया और अब वे खुद को किसी दल,संगठन,जाति और धर्म के रंग में पूरा रंगा बताते, जताते, दिखाते,समझाते है। पत्रकारिता पूर्णतया अपराधग्रस्त नहीं है, अभी भी बहुसंख्यक पत्रकार दलाल और अपराधी नहीं है जबकि समाज के अन्य वर्ग राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी आदि ज्यादा भ्रष्टाचार में लिप्त है। पत्रकारिता में जो अपने कर्तव्य को भूलकर अतिवाद के चश्में से न्यायिक विषयों पर अपना मत देने, अपराध और हिंसा को बढाने, नग्नता और अश्लीलता को बढावा देकर अपने स्वार्था की लिप्सा में लगे है, यह उनका धर्म नहीं हैे। वर्तमान में न्यायप्रिय एवं जिम्मेदार पत्रकारिता की कमी के कारण यह कहा जा सकता है कि पत्रकारिता धर्म पथ से विमुख है। आज की पत्रकारिता को दुर्योधन के उस पक्ष से मुक्त होना पड़ेगा जिसमें वह कहता है कि मैं धर्म जानता हॅू परन्तु उसमें मेरी रूचि नहीं है और मैं अधर्म भी जानता हॅू परन्तु उसे मुक्त नहीं हो सकता। असत्य में सत्य, अशिव में शिव, और असुन्दर में सुन्दर पक्ष को लोकहित प्रकट करना पत्रकार एवं पत्रिकारिता का पहला धर्म एवं कर्तव्य है किन्तु आज सकारात्मकता की बजाय नकारात्मकता अमरबेल की देशघाती षड़यंत्रकारी राजनीतिक की कुटिलताओं में पत्रकारिता ने खुद को फलने-फूलने की जमीन दे रखी है उससे सत्यम, शुभम और सुन्दरम अपने शरीर से ऐसे अनावृत हो गया है जैसे समुद्रों के तटों पर सैलानियों के तन से कपड़े गायब हुआ करते है। पत्रकारिता के ऐसे आचरण में दक्ष होकर हम खुद को विश्व का भूषण साबित करने में भूल चुके है कि हमने स्वयं पत्रकारिता की किस्मत पर ग्रहण लगाया है,।

जैसे सभी जानते है न्यायालय में मुकदमों की सुनवाई जिस कछुआ गति से होने के बाद सालों में निर्णय आते है वे जनआकांक्षाए न्यायालय के द्वार पर ही दम तोड़ देती है, न्याय व्यवस्था की निष्क्रियता पर पीड़ितों की आंखों के आंसू सूख चुके है, न्यायालयों में प्रति पेशी पर पचास-सौ रूपये लेकर अनेक प्रमाणों को न्याय के रक्षकों के काले रंग की भावना ने कलंकित कर दिया पर खादी, खाकी और काले रंग देश की किस्मत पर ग्रहण जैसे है किन्तु बाबजूद ये खाकी, खादी और काले रंग आपस में कभी टकराते नहीं दिखते, न ही उनपर कोई कीचड़ उछालता है और वे कभी भी सोसलमीडिया या अन्‍य फोरम आदि में एक दूसरे के कारनामों को जानते’समझते हुये कीचड नहीं उछालते है। हाॅ इनसे हटकर पत्रकार ही पत्रकार के निजी मामलों में एक दूसरे को नीचा दिखाने, कीचड़ उछालने में खादी,खाकी और कले रंग से सबक न लेकर खुद ही भस्मासुर बन पत्रकारिता को दॉव पर लगाकर कलंकित करने में अग्रणी है।

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