Home साहित्‍य लेख हुसैनी शम्मा’ जलाना बहुत ज़रूरी है

हुसैनी शम्मा’ जलाना बहुत ज़रूरी है

0
524
Indian Muslims stretch out their hands towards the body of the head of the Dawoodi Bohra Muslim community Syedna Mohammed Burhanuddin during his funeral procession in Mumbai, India, Saturday, Jan. 18, 2014. A pre-dawn stampede killed more than a dozen people Saturday as tens of thousands of people gathered to mourn the death of Muslim spiritual leader Burhanuddin in the India's financial capital, police said. Burhanuddin died Friday at the age of 102. (AP Photo/Rajanish Kakade)


                                                                             तनवीर जाफ़री

 जिस इस्लाम धर्म को अमन,सलामती,शांति,समानता,भाईचारा,वफ़ादारी,ईमान,त्याग और मानवता का धर्म समझा व कहा जाता था वही इस्लाम आज एक बड़ी व ‘सुनियोजित अंतर्राष्ट्रीय साज़िश’ के तहत दुनिया की इस्लाम विरोधी शक्तियों के निशाने पर है। इत्तेफ़ाक़ से मुसलमान धर्म के परिवार में पैदा होने वाले कुछ आक्रांताओं ,लुटेरों,तानाशाहों,क्रूर शासकों वृहद इस्लामिक साम्राज्य का ‘स्वार्थपूर्ण ‘ राजनैतिक सपना देखने वालों और इन जैसों के पैरोकारों की कारगुज़ारियों तथा इनकी सोच व फ़िक्र को इस्लामी सोच व विचारधारा के रूप में प्रचारित कर इस्लाम को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है। ऐसे में दुनिया को यह बताना बेहद ज़रूरी है कि वास्तव में इस्लाम धर्म के असली वारिस,असली प्रेरणा स्रोत,आदर्श महापुरुष हैं कौन ? और किन लोगों की कारगुज़ारियों को हम वास्तविक इस्लामी कारगुज़ारियां कह सकते हैं।

                                              पौराणिक कथाओं से लेकर इतिहास में उल्लिखित घटनाओं तक, यदि हम नज़र डालें तो लगभग प्रत्येक युग एवं प्रत्येक धर्म एवं विश्वास में जहां अनेकानेक संत,महात्मा,ऋषि मुनि,पैग़ंबर,फ़क़ीर,त्यागी,तपस्वी व सद्गुरु मार्गदर्शक हुये वहीं आसुरी प्रवृति की शक्तियां भी लगभग हर काल व हर धर्म में उपस्थित रहीं। उदाहरण स्वरूप त्रेता युग में जहां मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले भगवान राम ने अवतार लिया वहीं उसी दौर में लंकापति रावण भी अहंकार व दुष्टता का पर्याय बनकर पृथ्वी पर मौजूद था। इसी तरह श्री कृष्ण के दौर में कंस जैसा दुष्ट व अत्याचारी मानवता को कलंकित कर रहा था। जिस दौर में ईसा मसीह जैसी दया व करुणा की प्रतिमूर्ति धरती पर अवतरित हुई उसी समय उसी समाज में उन जैसे दयामूर्ति महापुरुष को सूली पर लटकाने वाला क्रूर गिरोह भी मौजूद था। हिटलर दुनिया के क्रूर तानाशाहों में एक था परन्तु उसकी क्रूरतम कारगुज़ारियों को ईसाई धर्म या हज़रत ईसा की शिक्षा व उनकी सीख से तो नहीं जोड़ा जा सकता ? ठीक उसी तरह जैसे हिन्दू धर्म भगवान राम व भगवान कृष्ण को अपना आदर्श महापुरुष मानता है न कि रावण व कंस को ?

                                           ठीक इसी तरह इस्लाम धर्म के वजूद में आने के शुरूआती दौर में ही जहाँ इस्लाम पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद व उनके परिवार के सदस्यों के संरक्षण में निराकार एकेश्वरवाद के साथ साथ दया,त्याग,अमन,सलामती,शांति,समानता,भाईचारा,वफ़ादारी,ईमान,और मानवता का पैग़ाम देता हुआ बहुत तेज़ी आगे बढ़ रहा था वहीं उसी समय से अनेक राजनैतिक व सम्रज्य्वादी फ़िक्र के लोगों ने भी इस्लाम धर्म का ‘चोग़ा ‘ ओढ़कर इस्लाम को अपने स्वार्थों की पूर्ति का माध्य्म बनाना शुरू कर दिया। इस्लाम के इतिहास में जहाँ हज़रत मुहम्मद,हज़रत अली,हज़रत फ़ातिमा,उनके सुपुत्रों हज़रत इमाम हसन व इमाम हुसैन के अतिरिक्त अनेक नबियों,इमामों व सहाबियों ने सद्मार्ग पर चलते हुए इस्लाम के उस वास्तविक स्वरूप को पेश किया जिसकी बदौलत आज पूरे विश्व में इस्लाम धर्म एक लोकप्रिय धर्म की शक्ल में फैल सका,वहीं इसी धर्म में पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के परिवार के दुश्मन,उनके हत्यारे,उन्हें अपमानित करने वाले अनेक क्रूर व आतंकी मानसिकता के अनेक आतंकवादी भी समय समय पर अपने फन उठाते रहे।  

                                       मुसलमान मां बाप के घर में  पैदा परन्तु इस्लामी सिद्धांतों की धज्जियाँ उड़ाने वाले ऐसे ही एक क्रूर,विधर्मी व घोर अत्याचारी सीरियाई शासक का नाम था यज़ीद इब्न (पुत्र ) मुआविया । यज़ीद उमैय्याह दौर-ए-ख़िलाफ़त का तीसरा ख़लीफ़ा था। उसे उसके पिता मुआविया ने ही ख़लीफ़ा (सीरियाई शासक ) के पद पर नियुक्त किया था। यज़ीद 680 ई॰ से लेकर अपनी मृत्यु 683 ई॰ तक अर्थात तीन वर्ष तक  शाम (सीरिया) के ख़लीफ़ा के पद पर रहा। यही इस्लामी इतिहास का वह दौर भी था जब हज़रत इमाम हुसैन अपने नाना हज़रत मुहम्मद,पिता हज़रत अली व अपनी मां हज़रत फ़ातिमा द्वारा प्रचारित व प्रसारित किये गये वास्तविक इस्लाम को परवान चढ़ा रहे थे। उस समय तक हज़रत इमाम हुसैन के पिता हज़रत अली उनकी धर्मपत्नी और हज़रत मुहम्मद की बेटी फ़ातिमा और इमाम हुसैन के भाई इमाम हसन की एक के बाद एक कर हत्याएं की जा चुकी थीं। हज़रत मुहम्मद के परिवार से ईर्षा व रंजिश रखने वाला यह वही वर्ग था जो देखने सुनने व प्रत्यक्ष रूप से तो मुसलमान नज़र आता था। यह कलमा भी पढ़ता था,क़ुरआन भी पढ़ता,दाढ़ी भी रखता था,टोपी व साफ़ा भी धारण करता था,नमाज़ रोज़ा भी पाबन्दी से करता दिखाई देता था और स्वयं को कट्टर मुसलमान भी बताता था। परन्तु वास्तविक इस्लामी सिद्धांतों से इनका दूर तक कोई वास्ता न था। यदि होता तो यह लोग हज़रत मुहम्मद के घराने के सदस्यों के दुश्मन आख़िर क्योंकर हो जाते ? इब्ने मुल्जिम नमाज़ पढ़ने के लिये मस्जिद में आये और सजदे की हालत में गये हज़रत अली की हत्या क्यों करता ? क्योंकर फ़ातिमा पर आक्रमण किया जाता और उनके घर में आग लगाई जाती ? क्यों हुसैन के भाई हसन को धोखे से ज़हर देकर शहीद किया जाता ?

                                और इसी मानसिकता इसी विचारधारा और इसी गिरोह से संबंध रखने वाले यज़ीद ने उस वक़्त के इमाम, हज़रत हुसैन से सीरियाई शासक के रूप में बैयत तलब कर डाली अर्थात इस्लामी देश का मुस्लिम शासक होने की मान्यता का तलबगार बन बैठा। इमाम हुसैन को यज़ीद के चरित्र हीन,क्रूर,विधर्मी,अत्याचारी होने और ग़ैर इस्लामी कामों में उसकी संलिप्तता की ख़बरें पहुंचती रहती थीं। इमाम हुसैन नहीं चाहते थे कि वह ऐसे बद किरदार व्यक्ति के हाथों पर बैअत कर या उसे किसी इस्लामी मुस्लिम राष्ट्र के ख़लीफ़ा या शासक होने की मान्यता देकर अपने नाना मुहम्मद ,पिता अली मां फ़ातिमा और भाई हसन द्वारा सींचे गये इस्लाम रुपी विराट वृक्ष को रुस्वा व बदनाम होने का ज़रा सा भी मौक़ा देकर इतिहास में वास्तविक इस्लामी मान्यताओं को कलंकित होने दें। इसीलिये उन्होंने करबला (इराक़ ) के मैदान में यज़ीद के विशाल हथियारबंद सेना का मुक़ाबला अपने साथियों व परिवार के मात्र 72 सदस्यों के साथ किया। इन 72 लोगों में छः महीने के बच्चे अली असग़र से लेकर 80 वर्ष के उनके नाना हज़रत मुहम्मद के सहाबी (मित्र ) हबीब इब्ने मज़ाहिर भी शामिल थे।

                                             करबला के मैदान में इस्लाम को दुराचारी व दुर्दांत ‘मुसलमानों’ के हाथों से बचाने के लिये हुई इस जंग में जहाँ यज़ीद की सेना ने क्रूरता की ऐसी इबारत लिखी जिसकी दूसरी मिसाल आजतक नहीं मिलती वहीं हज़रत इमाम हुसैन व उनके परिजनों ने सब्र और अल्लाह के प्रति शुक्र के सजदे का जो मेयार पेश किया वह भी अदुतीय है। निःसंदेह आज इस्लाम का जो भी विस्तार एवं इसका वास्तविक सकारात्मक रूप दिखाई दे रहा है इसकी असली वजह करबला वालों की अज़ीम क़ुरबानी ही है। परन्तु दुर्भाग्यवश यह भी सच है कि यज़ीदी विचारधारा भी तब से लेकर अभी तक ख़त्म नहीं हो सकी है। अब भी दुनिया में कहीं भी इस्लाम की आड़ में या मुसलमान होने के नाम पर ज़ुल्म,अत्याचार,अमानवीयता,साम्राजयवाद,तानाशाही,न इंसाफ़ी को बढ़ावा दिया जा रहा है वहां वहां वही यज़ीदी फ़िक्र,सोच व मानसिकता सक्रिय है। जबकि दुनिया के हर मुल्क में सभी धर्मों व समुदायों के लोग हज़रत इमाम हुसैन के प्रति न केवल नत मस्तक होते हैं बल्कि मुहर्रम के दौरान उनका ग़म भी मनाते हैं। ताज़ियादारी करते,उनकी याद में मजलिस मातम करते व जुलूस निकालते हैं।इस्लाम के वास्तविक सिद्धांतों व उसूलों को यदि समझना है तो मुस्लिम शासकों से नहीं बल्कि मुहम्मद के घराने के इन्हीं लोगों से समझने की ज़रुरत है।

 इसीलिये बक़ौल शायर –

                                                           ग़म-ए-हुसैन मनाना बहुत ज़रूरी है।

                                                          हुसैनी शम्मा जलाना बहुत ज़रूरी है।।

 तनवीर जाफ़री 

NO COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here