
– ललित गर्ग-
ओडीशा के गंजाम जिले के कुछ अंधविश्वासी लोगों ने वहां के छह बुजुर्ग व्यक्तियों के साथ जिस तरह का बर्ताव किया, उससे एक बार फिर यही पता चलता है कि हम शिक्षित होने एवं विकास के लाख दावे भले करें, लेकिन समाज के स्तर पर आज भी काफी निचले पायदान पर खड़े हैं। एक स्वस्थ समाज, स्वस्थ राष्ट्र एवं स्वस्थ जीवन के लिये जादू-टोना, अंधविश्वास, तंत्र-मंत्र और टोटकें बड़ी बाधा है। इनकी दूषित हवाओं ने भारत की चेतना को प्रदूषित ही नहीं किया बल्कि ये कहर एवं त्रासदी बनकर जन-जीवन के लिये जानलेवा भी साबित होते रहे हैं। कैसी विडम्बना है कि हम बात चाँद पर जाने की करते हैं या 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने की, लेकिन हम जनजीवन को इन अंधविश्वासी त्रासदियों एवं विडम्बनाओं से मुक्त नहीं कर पाये हैं।
खबरों के मुताबिक वहां गोपुरपुर गांव में तीन महिलाओं की मौत हो गई और सात बीमार थीं, तो वहां के कुछ लोगों ने यह मान लिया कि इसके लिए जादू-टोना करने वाले जिम्मेदार हैं। इसी शक में लोगों ने गांव के ही छह बुजुर्गों को उनके घर से खींच कर बाहर निकाला, उन्हें बर्बरता से मारा-पीटा, उनके दांत उखाड़ लिए और यहां तक कि उन्हें मानव मल खाने पर मजबूर किया। यह कैसी क्रूरता एवं संवेदनहीनता है? आधुनिक समाज में भी इस तरह की अंधविश्वासी क्रूरता जिस तेजी से हमारे जीवन में घुस रही है, उसी तेजी से करुणा, दया भी सूख रही है। इसने हमारी जीवन-शैली को बहुत हद तक संवेदनहीन बना दिया है। क्यों नहीं कांपता हमारा दिल? क्यों नहीं पसीजती हमारी मानसिकता? क्यों पत्थर होती जा रही है हमारी करुणा? क्यों नहीं सरकार अंधविश्वास एवं जादू-टोना के खिलाफ सख्त कानून का प्रावधान करती? ओडीशा की ताजा अंधविश्वासी क्रूरता की इस घटना की पीड़ा को देश चुभन की तरह महसूस कर रहा है। अंधविश्वासी क्रूरता को जघन्य कृत्य गिना जाता है। लोगों की रूह कांप उठती है। पर आज भी अंधविश्वास एवं जादू-टोना अवांछित मनोकामनाओं की पूर्ति का साधन बन रही है।
दुख एवं हैरानी की बात यह है कि इस घटना के दौरान पीड़ित मदद की गुहार लगा रहे थे, लेकिन गांव के किसी भी व्यक्ति ने हमलावरों को रोकना जरूरी नहीं समझा। क्या वहां के लोग शिक्षा-दीक्षा, संवदेना से लेकर जागरूकता के स्तर पर इतने पिछड़े हैं कि ऐसी घटनाओं में किसी तरह का दखल देना अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते? लेकिन जब किसी तरह मामला पुलिस तक पहुंचा तो कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया और बाकी लोग गांव छोड़कर भाग गए। सवाल यह है कि जब जागरूकता और जानकारी के अभाव में अंधविश्वास की चपेट में आए लोग किसी को मारते-पीटते, उनकी हत्या तक कर देते हैं या अमानवीय बर्ताव करते हैं तो इसके लिए आखिरकार कौन जिम्मेदार है। हालत यह है कि जादू-टोने के शक में किसी पर हमला करने वालों को पहले इसका भी ख्याल नहीं रहता कि घटना को अंजाम देने के बाद कानूनी कार्रवाई में उन्हें किन स्थितियों को सामना करना पड़ सकता है। विडंबना यह है कि इन अपराधों के मामले में तो पुलिस किसी तरह कार्रवाई करती है, लेकिन जादू-टोना या डायन आदि तमाम झूठी धारणाओं के मूल पर चोट नहीं की जाती, ताकि भविष्य में लोग उससे मुक्त हो सकें। कई राज्यों में इससे संबंधित कानून भी हैं, लेकिन यह एक ऐसी समस्या है जिसका चेतनागत विकास के बिना कोई ठोस हल निकलना मुश्किल है।
दुर्भाग्य से अधिकांश भारतीय जादू-टोना, तंत्र-मंत्र एवं भाग्य पर पूर्ण विश्वास रखते हैं और इन विश्वासों की नींव इतनी गहरी है कि उसे उखाड़ना आसान नहीं है। यात्रा में चलते समय, हल जोतते समय, खेत काटते समय, विद्यापाठ प्रारंभ करते समय-यहाँ तक कि सोते-जागते-भारतवासी शकुन और ग्रह-नक्षत्रों का विचार करते हैं। यदि कहीं चलते समय किसी ने जुकाम के कारण छींक दिया या बिल्ली रास्ता काट देती है तो वे वहाँ जाना ही स्थगित कर देते हैं या थोड़ी देर के लिए रुक जाते हैं, क्योंकि छींक एवं बिल्ली के रास्ता काटने के कारण उनके काम सिद्ध होने में बाधा समझी जाती है। भरा हुआ पानी का लोटा यदि असंतुलन के कारण हाथ से गिर पड़े तो उसे वे भारी अपशकुन समझते हैं। दुखद यह है कि विकास के तमाम दावों के बीच इस तरह की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं, लेकिन सरकारों के लिये वैज्ञानिक चेतना से लैस शिक्षा प्रणाली और जागरूकता कार्यक्रम एक अभियान की तरह चलाना जरूरी नहीं होता।
हमारे देश की राजनीति एवं शीर्ष राजनेता अभी भी अंधविश्वास एवं जादूटोना की काली दुनिया के जाल में फंसे हुए है। ऐसे कई उदाहरण मौजूद है जब नेता सत्ता बचाने के लिए या पाने के लिए तंत्र-मंत्र और बाबाओं की शरण में पहुंचे हैं। नेताओं का चरित्र भी हाथी के दांत जैसा है-मतलब खाने के और, दिखाने का और। ये बड़े-बड़े नेता मंच से भाषण देते हैं तो विकास, तकनीक और देश को एक सुपर पावर बनाने की बात खूब जोर-शोर से करते हैं, लेकिन यही नेता जब मंच पर नहीं होते हैं तो बाबाओं से लेकर जादूटोना, तंत्र-मंत्र और टोटकों के चक्कर में न जाने क्या-क्या नहीं करते। ऐसी स्थितियों में हम अपने देश की अनपढ़ एवं भोलीभाली जनता को कैसे अंधविश्वास एवं जादू-टोना मुक्त कर पाएंगे, यह एक चिन्तनीय प्रश्न है।
संसार के कोने-कोने में-चाहे वह सभ्य हो या असभ्य अथवा पिछड़ा हुआ हो- समान या आंशिक रूप से अंधविश्वास प्रचलित हैं, क्योंकि मनुष्य अपने भाग्य पर अपने सारे झंझटों को छोड़कर मुक्त हो जाना चाहता है। इसमें कोई शक नहीं कि भारत में आज भी आस्था के नाम पर काला जादू, टोना-टोटका और दूसरे अंधविश्वासों को खत्म करने के प्रयासों की मुखालफत करने वालों की अच्छी खासी तादाद है। एक तर्क यह भी दिया जाता है कि अंधविश्वास केवल भारत में ही नहीं है, बल्कि अमेरिका जैसे विकसित देश में भी लोग सृष्टिवाद को पसंद करते हैं, जो विज्ञान और तर्कवाद को चुनौती देता है। जिन कार्यों को भाग्य, अवसर, तंत्र-मंत्र, टोने-टोटके के ऊपर निर्भर रहकर किया जाता है, वे सब अंधविश्वास की सीमा में आते हैं। जब मानव अपनी सीमित बुद्धि से परे कोई काम देखता है तब तुरंत वह किसी अज्ञात दैवी शक्ति पर विश्वास करने लगता है और अपनी सहायता के लिए उसका आह्वान करता है, अतिश्योक्तिपूर्ण अंधविश्वासों एवं जादू-टोना का सहारा लेता है, उसके घातक नुकसान के बारे में सोचने-विचारने का उनके पास समय या बुद्धि है ही कहाँ? सफलता प्राप्त होने पर संपूर्ण श्रेय उसके परिश्रम को न मिलकर उसी अज्ञात शक्ति, अंधविश्वास या भाग्य को दिया जाता है। इस प्रकार विवेकशून्यता और भाग्यवादिता द्वारा पोषण पाकर अंधविश्वास मजबूत होते जाते हैं। जहाँ मूर्खता का साम्राज्य होता है वहाँ अंधविश्वास की तानाशाही खूब चलती हैं। प्रगतिशील और वैज्ञानिक प्रकाश से आलोकित देशों में भी किसी-न-किसी तरह के अंधविश्वास प्रचलित हैं।
देश के अलग-अलग हिस्सों से अक्सर अंधविश्वास की वजह से होने वाली आपराधिक और अमानवीय घटनांए समाने आती रहती हैं, लेकिन यह समझना मुश्किल है कि ऐसी घटनाओं को रोक पाने में हमारी सरकारें क्यों नाकाम हैं और समाज के स्तर पर कोई ठोस असर पैदा करने वाली पहलकदमी क्यों नहीं दिखती हैं। कुछ संगठन अपने स्तर पर अंधविश्वास के विरुद्ध लोगों को जागरूक बनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनकी पहुंच का एक दायरा होता है। यह बेवजह नहीं है कि धर्म, परंपरा या आस्था के नाम पर अंधविश्वासों का कारोबार फल-फूल रहा है और इसकी त्रासदी समाज के कमजोर तबकों के कुछ लोगों को झेलनी पड़ती है। अफसोसनाक यह है कि विकास के तमाम दावों के बीच इस तरह की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं, लेकिन सरकारों को वैज्ञानिक चेतना से लैस शिक्षा प्रणाली और जागरूकता कार्यक्रम एक अभियान की तरह चलाना जरूरी नहीं होता। नया भारत में इन अंधविश्वासी त्रासदियों एवं जादूटोना की विडम्बनाओं से मुक्ति दिलाना जरूरी है।
आपने लिखा है “दुर्भाग्य से अधिकांश भारतीय जादू-टोना, तंत्र-मंत्र एवं भाग्य पर पूर्ण विश्वास रखते हैं”| क्या यह समस्या केवल भारत की है? नहीं | विश्व के प्रगतिशील देशों सहित संसार में समस्त समाजो में अनेक प्रकार के अन्धविश्वास व् जादू-टोना प्रचलित हैं| यह समस्या केवल भारत की नहीं है|
ANDH VISHVAS KIO HAI, POVERTY AND ILLITERACY, AGAR GIAN KA SANDESH PACHHRE LOGO ME CHHORA JAI TO BAHUT ACHHA HOGA