जज्बातों से खेलना बन्द कीजिए …..

अरविन्द मंडलोई

जो बात मैं लिखने जा रहा हूँ उसको सिर्फ इस संदर्भ में समझिये कि समाज का जो मनोविज्ञान है वो क्या है ? हर आदमी एक खास मुकाम हासिल कर जिन्दा रहना चाहता है । हर आदमी अपने काम को कर्त्तव्य नहीं समाज पर एहसान मानता है । केन्द्रीय कार्यालयों में सेवारत चपरासी और बाबू भी तथाकथित ईमानदारी से प्राप्त गाड़ियों पर भारत सरकार लिखाकर घूम रहे हैं और जो प्रदेश सरकार के कर्मचारी हैं उनकी गाड़ी के नंबर प्लेट के ऊपर मध्यप्रदेश शासन सुशोभित होकर समाज में उनके महत्वपूर्ण होने का तमगा चस्पा किये सफर में उनके साथ–साथ दिखता है । वो अधिकारी जो जनसेवक होने की कसम उठाते हैंउनके परिवार के सभी लोग घर की सभी गाड़ियों पर लाल–पीली बत्ती लगाकर सड़कों पर अंग्रेजों की तरह आवाजाही करते हैं और गाड़ी में बैठते वक्त अन्दर से बाहर की ओर इस तरह देखते हैं कि जैसे ये गुलाम हमारी सड़कों पर हमारे साथ सफर क्यों कर रहे हैं ? राजनैतिक दलों की हालत यूं है कि वो जनता के प्रतिनिधि नहीं मालिक हो जाना चाहते हैं । घर के बाहर से लेकर चौराहे के पोस्टरों तक भैयाजी, काकाजी छाये हुए हैं । पांच वर्ष पहले तक पुलिस का हिस्ट्रीशीटर गुन्डा भैयाजी बने हुए जन्मदिन की बधाइयां ले रहा है। हार पहने हुए तस्वीर खिंचवा रहा है और देश के एक नंबर से लेकर मोहल्ले के एक नंबर तक नेता उनको जन्मदिन की बधाइयां दे रहे हैं। हर दूसरी गाड़ी विधायक, सांसद लिखकर लोकतंत्र की सड़क पर जनता की आंखों में उड़ती हुई धुल को झोंककर चल रही है ।

मगर इन दिनों ये खेल करवट बदले हुए है और इस बदले हुए खेल में अब साहित्य ने भी अपनी जगह बना ली है । साहित्य से मेरा बेहद निजी लगाव रहा है । मगर उस क्षेत्र में जब इस खेल ने अपनी जगह बनाई है तो मन बहुत दुःखी हुआ है । दुःख तो इस बात का भी है कि एक अजीबो गरीब खाई अपने चरम पर पहुंच चुकी है । भारत और पाकिस्तान की आबादी की अदला–बदली की तरह विचारों की कट्टरता की अदला–बदली ने दंगे और दंगों के बाद शहर में अपनी–अपनी पहचान बनाती बस्तियों की शक्ल इख्तियार कर बैठी है । इन बस्तियों के नाम भी कौमों के नाम पर होने लगे हैं । मानो यहां इन्सान नहीं धर्म भी रहता हो । बिल्कुल ऐसा ही खेल साहित्य के खिचड़ी भी खेल रहे हैं । श्री अशोक वाजपेयी ने अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया । खबर के साथ मुख्य पृष्ठ पर उनकी तस्वीर थी । जबकि इसके कुछ दिनों पूर्व वे इन्दौर में कविता पाठ करने आये थे और अखबारों में छपी यह तस्वीर बता रही थी कि उनका कविता पाठ सुनने के लिए बामुश्किल 10-20 लोग ही मौजूद थे। फिर पता नहीं कितने नामवर साहित्यकारों ने एक के बाद एक बरसों पहले लिए गये साहित्य अवार्ड दनादन वापिस कर दिये । अचानक साहित्यकारों में एक वैचारिक क्रांति पैदा हो गयी और वे जज्बाती हो गये। पुरस्कार लौटाने वालों में कुछ वामपंथी हैं कुछ शामपंथी हैं । वो जो वामपंथी हैं वो घर के खूबसूरत ड्राइंग रूम में ए.सी. चलाकर रोटी पर खूबसूरत कविता लिखते हैं। भूख और चिथड़ों की शक्ल में गरीबी के दर्द को बयां करते हैं, मगर अपने नौकर को भी तनख्वाह छुट्टी के दिन की काटकर देते हैंऔर बड़ी फ़ेलोशिप और डॉक्टरेट हासिल करते वक्त कभी उनकी विचारधारा आड़े नहीं आती है ।

मल्टीनेशनल कंपनियों के रंगीन चश्मों से वे भारत को देखते हैं । उनके बच्चे विदेशों में शिक्षा हासिल करते हैं । सुख और सुविधाएँ उनके आगे–पीछे चbती हैं और जब अवार्ड लौटाना हो, सुर्खियों में छा जाना हो और कुछ खास बन जाना हो तो वे अचानक कहते हैं कि अरे भाई …. लिखने और बोलने की आजादी छीनी जा रही है । नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे, एस. कुलबर्ग जैसे लोग जो अपनी विचारधारा, अपने काम के चलते क़त्ल कर दिये गये, वो lसिर्फ जमीनी काम करते थे ओर उनके शहादत के बाद ही लोगों को पता चला कि वे कितने बड़े लोग थे । इस तरह उनका क़त्ल किया जाना बहुत निंदनीय है । वो कबीर, तुलसी, मीरा, अमीर खुसरो, ग़ालिब, प्रेमचन्द आदि की परंपरा के लोग थे, वो जनता के बीच में से थे । समाज के दर्द और हालात को अपने अन्दर समेट लेने के नतीजे में सदाहत हसन मांटो और मजाज को कम उम्र में मौत ही नसीब नहीं हुई बल्कि जवानी के दिन भी पागलखानों में गुजारना पड़े । पर उनकी मौत के बाद ये अचानक कौन लोग हैं जो सरकार के साथ खेल खेल रहे हैं । इनमें से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसने कभी जनता के बीच जाकर काम किया है ? जिसने कभी भूख और रोटी के मध्य अन्तर समझा हो? वो वामपंथी अब कहां हैं जो कभी शैलेन्द्र की शक्ल लिए मजदूरों के बीच जाकर कहते थे कि ”तू जिन्दा है तो जिन्दगी की जीत में यकीन कर” अली सरदार जाफरी, सज्जाद जहीर, भीष्म साहनी… कहां हैं ये लोग जिन्होंने जनता की आवाज को अपनी आवाज बनाया है ? बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद कैफी आज़मी दिल्ली की यात्रा पर थे, उसी दिन दिल्ली में बाबरी मस्जिद के गिराये जाने के विरोध में एक विरोध प्रदर्शन था, प्रधानमंत्री ने उन्हें चाय पर आमंत्रित किया था पर वे प्रधानमंत्री के पास चाय पीने नहीं गये, बल्कि उस प्रदर्शन में शरीक हुए जहां जनता उसके गिराये जाने का अफसोस मना रही थी । जिनकी कथनी और करनी एक थी । जो न कभी किसी अवार्ड को लेने के लिए लपके और न लौटाने के लिए भागे । समाज की ये कौन सी अग्रज पीढ़ी है जो मारे जाने वाले साहित्यकार के घर अफसोस जताने नहीं जाती है, सीधे दिल्ली जाती है क्योंकि सुर्खियां सिर्फ दिल्ली में है, ये सारा खेल दिल्ली में है और जो शामपंथी हैं याने कि जो शाम के समय काफी हाउस से घर जाते समय किसी खूबसूरत हेरीटेज में रुकते हुए अंग्रेजी शराब की चुस्कियां लेते हुए ये सोचना शुरु करते हैं कि भाई देश में ये क्या हो रहा है और देश में ऐसा क्यों हो रहा है ? इन्होंने बड़ा गजब किया है, भाई ये लौटा रहे हैं, इनके पास जो है, ये जो इन्होंने हासिल कर लिया है, उसे ये त्याग रहे हैं, उसे ये छोड़ रहे हैं । घर पहुंचते–पहुंचते विचारों का समन्दर पूरे उफान पर आ जाता है और सुबह अखबार उनके विचारों के तुफानोंके गुजर जाने का एहसास हमें एक लेख रुप में करा देते हैं । जबकि उलट सफाई यह है कि बेहद जरुरत है जमीनी कार्य करने की ।

अशफाक को हिन्दू आबादी में घर नहीं मिलता और मनोज के घर में दाल की कीमत इतनी बढ़ गयी है कि आज दाल कम… पानी ज्यादा है…, उनका मालिक भ्रष्टाचार से परेशान है, टेक्स की मार उसे खाये जा रही है, बच्च्वे स्कूल में अध्ययन कर रहे हैं, उनकी फीस उसे ज्यादा लग रही है … वामपंथी और शामपंथी उनके लिए कुछ नहीं कर रहे हैं तीनों को पता नहीं कि रोटी, भूख और घर पर कविताएं लिखी जा रही हैं और लिखे जाने का असर इन पर नहीं है … उसकी वजह सिर्फ यह है कि लिखने वालों का समाज से कोई लेना देना नहीं है । समस्याओं को शब्दों की शक्ल देकर नीचे अपना नाम छपवाकर ये समाज में महत्वपूर्ण हो गये हैं । इनकी किताबें बिकती नहीं है । कुछ लोग सिर्फ अपनी लाइब्रेरी में इनकी किताबों को सजावट की तरह रखते हैं । जब इस तरह के खेल चलते हैं तो दिल से जो जज्बाती लोग होते हैं, वे भी इसका शिकार हो जाते हैं और कभी–कभी इसमें शरीक भी हो जाते हैं, उनका सिर्फ इस्तेमाल होता है ।

उर्दू के बड़े शायर रघुपति सहाय अपनी जवानी के दिनों में कांगे्रस के अण्डर सेके्रटरी हो गये थे और एक वर्ष से अधिक जेल में रहे थे । मगर आजादी के पश्चात् उन्होंने कभी भी कांगे्रस का झंडा नहीं उठाया । धर्म निरपेक्षता के शब्द के आवरण में जो लोग छिपे हैं उनकी सफाई को जानने के लिए यह काफी है कि तत्कालीन वाईसराय लार्ड वेवल से शिमला में बात करते हुए कांग्रेस की सदस्यता की संख्या के आधार पर मोहम्मद अली जिन्ना ने उसे हिन्दुओं की पार्ट कहा था और बाद में उन्होंने मुसलमान की समस्याओं को अनदेखा करने का इल्जाम इसी पार्ट पर लगाते हुए मुस्लिम लीग की सदस्यता ग्रहण कर ली थी । तब कांग्रेस के किसी भी बड़े नेता ने यह नहीं कहा था कि हम धर्म निरपेक्ष हैं और हम सदस्यता नहीं धर्म निरपेक्षता के आधार पर मुसलमानों को अपने साथ रखेंगे । सत्ता को हासिल करने के इस संघर्ष में जिन लोगों ने नेतृत्व किया था वो चाहे नेहरु हों या जिन्ना हों, धर्म से उनका कोई ताल्लुक नहीं था यह सर्वविदित सत्य है और सबको पता है। हुकूमत मिलते ही दोनों ने धर्मनिरपेक्षता का आवरण ओढ़ लिया और उसके प्रचार प्रसार के नतीजे में हिन्दुस्तान का मुसलमान कांग्रेस के वोट बैंक में तब्दील हो गया, उसके धर्मनिरपेक्ष नेता मौलाना आज़ाद, जाकिर हुसैन वतन से प्यार करने वाले मुसलमानों को यह समझाने में कामयाब हो गये कि धर्मनिरपेक्ष देश का निर्माण हो रहा है, यहां अब धर्म कोई मसला नहीं है । अगर गाय इस देश का बड़ा इश्यू है तो इसका समझना भी जरुरी होगा कि कांग्रेस का चुनाव चिन्ह गाय और बछड़ा था और वह स्पष्ट रुप से इंगित करता था कि माता के रुप में स्थान रखने वाली गाय हमारा चुनाव चिन्ह है, हमें वोट दीजिए ।

कांगे्रसी थोड़ा इतिहास में झांके तो उनको पता चलेगा कि कभी शाहबानो की शक्ल में और कभी राम मंदिर का टला खुलवाने की शक्ल में देश को क्या–क्या दिया । ये जो गाय का खेल है वह बड़ा पुराना खेल है । इसको कैसे–कैसे भुनाया जाता है इसका एक उदाहरण इस तरह है कि मध्यप्रदेश के एक पूर्व आयएएस अधिकारी मुख्य सचिव के पद से पदमुक्त होते ही भाजपा के सदस्य बन गये और अपनी साफ सुथरी छवि को भुनाने के लिए इसी पार्ट के भोपाल संसदीय क्षेत्र से लोकसभा के उम्मीदवार हो गये । कांग्रेस को लगा कि भैया एक तो मुख्य सचिव और ऊपर से कायस्थ, ये जो वोटों का समीकरण है इनके पक्ष में है । तो उसने भी मुस्लिम वोटों के आधार पर अपना ट­म्प कार्ड फैंका और भारतीय टीम के पूर्व कप्तान और भोपाल के वारिस–ए–नवाब मंसूर अली खां पटौदी को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया । तब भाजपा ने बड़े जोरो से एक नारा दिया ”गाय हमारी माता है, नवाब इसको खाता है” और नवाब साहब जो कि अपने जमाने में पूरे देश के शहरियों के क्रिकेट हीरो थे जिन्होंने ने कभी हिन्दू कहा न कभी मुसलमान कहा, अपनी एक आंख गंवाकर भी देश के लिए खेलते रहे पर भारतीयों के क्रिकेट प्रेम के बावजूद भी इस नारे की बदौलत भारी मतों से चुनाव हार गये। यह उदाहरण साबित करता है कि गाय से हमारा रिश्ता जज्बाती है, क्योंकि हम मूल रुप से जज्बाती प्रकृति के लोग हैं। इसलिए कांग्रेस कभी उसको अपना चुनाव चिन्ह बनाती है और भाजपा उसके मां होने की याद याद दिलाती है ।

मुसलमान क्या खाते हैं ? क्या नहीं खाते हैं ? हिन्दू क्या खाते हैं ? क्या नहीं खाते हैं ? पसंद और नापसंद अपना निजी मामला है । उसे समाज का मसला बनाने के लिए श्रीनगर में एक विधायक रशीद इंजीनियर मुसलमानों की लम्बी हुकूमत और इतिहास की परंपरा में पहली बार सिर्फ मुसलमान होने के नाते बीफ पार्ट देते हैं । ताकि कुछ लोगों को यह बताया जा सके कि खाना भूख के लिए नहीं सियासत और वोट के लिए जरुरी है फिर यह एक खेल है जिसे मैं तुम्हारी तरफ से होकर खेलुँगा और दूसरे दूसरी तरफ से खेलेंगे। मेरी कौम के लोग इन जज्बातों से खुश होंगे। नतीजे में दिल्ली में दो लोग उन पर स्याही फैंक देते हैं। दोनों का काम हो गया… तो ये सुर्खियां बटोरकर हम अपने–अपने हलकों के हीरो हो गये। जो सारा माहौल है अगर इसे गहराई से देखा जाये तो नतीजे में तस्वीर बनती है कि मैं इन सबसे हटकर हूँ, जो आम शहरी है वो मैं नहीं हूँ… मैं तो खास हूँ… और मुझे आप खास मान लीजिये। पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह राष्ट्रपति जियाउल हक्क ने एक बार अनौपचारिक बातचीत में यह कहा था कि तुर्क, मिश्र या ईरान अपने आपको मुस्लिमदेश न माने तो भी वे तुर्क, मिश्र और ईरान ही रहेंगे।

अगर पाकिस्तान ने ऐसा कहना बन्द कर दिया तो वह भारत हो जावेगा। बलात्कार के इल्जाम में अब तक जमानत भी हासिल न कर पाने वाले आसाराम बापू की कथा सुनने के लिए भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी अपने पूरे होशो हवास में चले गये थे और आम भक्तों के बीच बैठकर उनके उपदेशों को ग्रहण किया था … तो ये जनता के साथ जो खेल है पूरी तरह जज्बाती है । जियाउल हक्क खेल रहे हैं मुसलमानों के साथ, तो कोई खेल रहा है हिन्दुओं के साथ। दुर्भाग्य से यह बीमारी साहित्यकारों में भी प्रवेश कर गई है, मेरा पाने और लौटाने वालों से अनुरोध है कि इस जज्बाती खेल में वे बिल्कुल शिरकत न करें, दोनों राजनैतिक दलों के चेहरे एक सरीखे हैं । जज्बातों को वोट में तब्दील करने की हुनरमंदी में दोनों एक से हुनरमंद हैं । जो मुसलमान हैं वो भी अब तक हिन्दू जात ओढ़े हुए हैं । कोई जुलाहा है, कोई रंगरेज है, कोई पठान है, कोई कसाई है, वे सिर्फ धर्म से मुसलमान हुए हैं। हिन्दु भी इसी तरह धोबी, हरिजन, ब्राम्हण, अगढ़े और पिछड़ों की तरह अपनी–अपनी जाते ओढ़े हुए हैं, सिर्फ धर्म से हिन्दू हुए हैं। धर्म के तमाम पैगम्बर, गुरु, चाहे वे गौतम बुद्ध हों, गुरु नानक या ईसा मसीह हो, आदि गुरु शंकराचार्य हों सभी ने कहा है कि ईश्वर का कोई स्वरुप नहीं है वो निराकार है और वे हर मनुष्य में हैं हर पल हर क्षण प्रकृति में हैं।

समाज में अपना स्थान सम्मानजनक बनाने के लिए उनके उपदेशोंको कुचलते हुए लोगों में उनके मठ मंदिर और न जाने क्या–क्या बना डालें हैं। धर्म की स्थिति भी यही है और जरुरत इस समस्या को मार देने की है। जमीनी काम करने वाले हमेशा उग्रपंथियों के शिकार हुए हैं, क्योंकि उनके जमीनी काम से लोग सीधे प्रभावित होते हैं और वोटों के खेल में ये सबसे बड़ा रोड़ा है। ये जो तमाम लोग हैं जो सुर्खियां बटोरने के लिए और कुछ अपने जज्बातों के कारण इस खेल में शरीक हुए हैं। वे अगर जमीनी कार्य करेंगे तो समाज की कुछ शक्ल बदलेगी। अशफाक भी हिन्दू बस्ती में रह सकेगा और मनोज की हण्डी में दाल ज्यादा और पानी कम हो जावेगा। मेहरबानी करके सुर्खियाँ बटोरने के लिए समाज पर छा जाने के लिए अपनी बातें समाज के मुँह में मत डालिये, साहित्य को इस खेल से दूर रखिये, भाषाओं को इससे दूर रखिये । कल जब भविष्य इस गुजरते हुए इतिहास को पढ़ेगा तो निश्चित ही वह हमसे ज्यादा समझ वाली पीढ़ी होगी तो वो अपने पुरखों के कारनामों पर अफसोस करेंगी । साहित्य के कारण ही आज भी भारत नास्तिक, धार्मिक, अधार्मिकवाद और विचार धाराओं के तूफान को भी झेलकर खड़ा है । साहित्य समाज का आइना है और आइना कभी झूठ नहीं बोलता । शोहरतें बटोरने, सुर्खियां पाने का साधन साहित्य को मत बनाइये, अपने पूर्वजों पर गौर करें जमीन के साथ जुड़ें और हकीकत की तस्वीर बदलने की कोशिश करें। आम आदमी की आवाज साहित्य के जरिये ही सत्ता तक पहुंच पाई है और शासकों व शोषकों को बार–बार अपने इरादे बदलने पर मजबूर करती रहे है, इसे उसी आवाज को बुलन्द करने का हथियार बनाये रखें।

 

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