भारत के लिये जिये जयानन्द भारती- शाक्त ध्यानी

सन् 1857 के संग्राम में सदियों से सोया भारत जैसे जाग उठा था। इस संग्राम की भूमिका बांधने वाले अनेक विचारक, संत, कवि जिस तरह वर्षों से भारतीय समाज को खटखटाते रहे। उसी का परिणाम था कि साढे तीन लाख भारतीयों ने अपनी स्वतन्त्रता के लिए आत्मोत्सर्ग किया। अंग्रेज शासक इस दमन के अन्दर सुलगती उस चिंगारी को नहीं पहचान सके, जो सभ्यता के आरंभिक कालखण्डों से इस देश के सांस्कृतिक सामाजिक शरीर को लगातार ऊष्मा देती रही है। सन् 1857 के बाद राष्ट्र के विचारकों ने ब्रिटिश-एम्पायर के विविध षड्यन्त्रों पर प्रहार शुरू करते हुए आत्मावलोचना के मंच तैयार किए। समाज के विभिन्न फलकों पर बहुस्तरीय विमर्श ने जहाँ एक ओर तिलक, गांधी, गोखले, हेडगेवार जैसे विचारकों को पैदा किया वहीं दूसरी ओर जनता ने अपने पुरातन विचारों का पाखण्डी चोला फैकने का साहसी निर्णय लेकर एक नयी सामाजिक क्रान्ति की नींव रखनी शुरू की। ऋषियों के विचारों, पुस्तकों-पुराणों के नवनीत को राजनीति का अंग बनाकर गांधी ने भारत के आम आदमी को जिस तरह योध्दा बनाया, वह अद्वितीय था। यह स्वतन्त्रता आन्दोलन मात्र ब्रिटिश एम्पायर से छूटने का युद्ध नहीं वरन् एक नये भारत राष्ट्र के पुनर्निर्माण का आन्दोलन बन गया।

छुआछूत जातीय वैमनस्य धार्मिक पाखण्ड पर स्वयं प्रहार कर समस्त देश में पिछले डेढ़ सौ सालों में जितने अभूतपूर्व आन्दोलन हुए जैसे अद्वितीय महापुरूष इस समाज ने पैदा किये, वह अविश्वसनीय लगता है। सामाजिक सुधार जितने बड़े पैमाने पर हमारा राष्ट्रीय प्रश्न बना, उस पर पलट कर देखने का अवसर हमें निकालना चाहिए। यह स्वतन्त्रता जो आज हमारे हाथ आयी है और जैसी कुरूपता हम अपनी स्वतन्त्रता में भर रहे हैं वह सोचनीय है, परन्तु ऐसे अवसरों पर ही हम पीछे मुड़कर यदि उन लाखों-लाख सामाजिक-राजनीतिक योद्धाओं के जीवन के कुछ पृष्ठ देख सकें तो संभवतः स्वतन्त्रता के प्रति हमारा यह आधुनिक दृष्टिकोण स्वयं हमारी ही ऑंखों में चुभने लगेगा। गांधी ने समस्त राष्ट्र की तरह उत्तराखण्ड के इन वीरान पहाड़ों को भी आन्दोलित किया। पौड़ी, नैनीताल, अल्मोड़ा, कौसानी जैसे सुरम्य स्थलों में बसे अंग्रेज लाट-साहबों के ठाठ, और शोषित जनता के बीच बढ़ती खाई को देख आजादी की ललक और बढी। उनके दमन पर मन ही मन खौलते अनेक सेनानियों के साथ उन लोगों का राष्ट्रीयता के यज्ञ में अपनी आहुतियां देना आश्चर्य में डालता है जिन्हें अपने ही लोगों ने उनके सामाजिक, राजनीतिक अधिकारों से वंचित किया था। जो लोग रूढ़ियों से अपने मानवीय अधिकारों से भी वंचित थे, उपेक्षित थे। परन्तु यह भारतीय समाज, उसने समय-समय पर अनेक सुधारकों, संतों तथा जननायकों के आह्वान पर अपनी सोच बदली और उसी का परिणाम था कि पहाड़ों में भी वंचितों के उद्धोष सभी तरह की स्वतन्त्रता मांगने के लिए गूंजने लगे। वंचितों ने स्वतन्त्रता के साथ अपने मानवीय और सामाजिक-संवैधानिक अधिकारों के लिए अपना स्वर ऊँचा किया। बाबू बोथासिंह, गिरधारीलाल आर्य, गंगाराम आर्य, हरिप्रसाद टम्टा, खुशीराम आर्य जैसे अनेक पहाड़ी नाम इस समाज सुधार की लम्बी माला में जुड़ते रहे, परन्तु स्वतन्त्रता संग्राम से लेकर विभिन्न सामाजिक चेतना से जुड़े सबसे मुखर स्वर का नाम था जयानन्द भारती।

श्री भारती का जन्म पौड़ी जनपद के अरकंडाई गांव के शिल्पकार परिवार में 17 अक्टूबर 1881 को हुआ। रोजगार की तलाश में भटकते हुए युवक भारती का परिचय अनेक मुसलमानों और ईसाईयों से हुआ। भारती जी को इनके द्वारा धर्म-परिवर्तन के लिए अनेक प्रलोभन दिये गये किन्तु इन्होंने न केवल इन प्रलोभनों को ठुकराया अपितु स्पष्ट कहा कि ”मैं हिन्दू धर्म छोड़कर कोई दूसरा धर्म स्वीकार नहीं कर सकता हूँ। मेरे इस अटल विश्वास के आगे दुनिया का बड़े से बड़ा सम्मान एवं वैभव भी तुच्छ है।” समाज में व्याप्त अंधविश्वास एवं बुराइयों से भारती जी दुःखी थे। इन्हीं समस्याओं के समाधान तथा वेदों के अध्ययन की इच्छा से इन्होंने गुरूकुल-कांगड़ी के संस्थापक स्वामी श्रद्धानन्द से भेंट की। आर्य समाज के महात्मा, समाज सुधारक एवं राष्ट्रवादी नेता के रूप में ख्यात इस महान वृक्ष ने भारती जी को न केवल वेदों का वृहद् ज्ञान दिया अपितु यह भी कहा कि मुझे तुम्हारे अन्दर एक क्रान्ति छिपी हुई नजर आती है।” तुम चाहो तो आर्य समाज के माध्यम से उत्तराखण्ड के हिन्दू समाज में फैली सामाजिक एवं धार्मिक बुराइयों को दूर कर सकते हो”। आर्य समाज का प्रचार-प्रसार करते हुए इन्होंने अपना धर्म छोड़कर ईसाई धर्म अपनाने वाले कई शिल्पकारों को फटकारते हुए कहा कि धर्म में रहकर संगठित बनकर अपने अधिकारों को प्राप्त करो।” इस प्रकार आर्य समाज पध्दति से इन्होंने कई ईसाई बने शिल्पकारों को शुध्दिकरण द्वारा पुनः हिन्दू धर्म में सम्मिलित किया।

सामाजिक चेतना की एक और कड़ी में ‘डोला-पालकी आन्दोलन’ का श्रेय भी भारती को जाता है। यह वह आन्दोलन था जिसमें शिल्पकारों के दूल्हे-दुल्हनों को डोला-पालकी में बैठने से वंचित रखा जाता था। लगभग 20 वर्षों तक चलने वाले इस आन्दोलन के समाधान के लिए भारती जी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा दायर किया जिसका निर्णय शिल्पकारों के पक्ष में हुआ। स्वतन्त्रता संग्राम में भारती जी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। 28 अगस्त 1930 को इन्होंने राजकीय विद्यालय जयहरीखाल की इमारत पर तिरंगा झंडा फहराकर ब्रिटिश शासन के विरोध में भाषण देकर छात्रोें को स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए प्रेरित किया। 30 अगस्त 1930 को लैंसडाउन न्यायालय द्वारा इन्हें तीन माह का कठोर कारावास दिया गया। धारा 144 का उल्लंघन करते हुए जब इन्होंने अंग्रेजी शासन के विरूद्ध दुगड्डा में जनसभा की तो इन्हें छः माह के कठोर कारावास की सजा हुई। पूरे भारत वर्ष में गांधीजी के नेतृत्व में स्वतन्त्रता आन्दोलन की लहर चल रही थी। अंग्रेजी शासन के विरोधियों को कठोर दण्डों का सामना करना पड़ा था किंतु इसकी परवाह न करते हुए देश के रणबांकुरे हर पल अपने प्राण न्यौछावर करने को तत्पर रहते थे। ऐसे ही अवसर पर जब गढ़वाल पौड़ी की शांति सभा ने उत्तर प्रदेश के गर्वनर जनरल सर मैलकम हेली को पौड़ी आमन्त्रित किया तो गढ़वाल के इस स्वाभिमानी सपूत का खून खौल उठा। इस सपूत ने जेल में ही कसम खाई कि वे उक्त अभिनंदन समारोह को सफल नहीं होने देंगे। सौभाग्य से जिस दिन अभिनंदन समारोह था ठीक उसी दिन भारती जी भी जेल से मुक्त हुए। मैलकम हेली जैसे ही स्वागत भाषण के लिये उठा उसी समय भारती जी बड़ी शीघ्रता से मंच पर चढ़कर ”गो बैक मैलकम हेली, भारत माता की जय” के नारे लगाने लगे। गर्वनर को किसी तरह सुरक्षित डाक बंगला पहुंचाया गया किन्तु भारती जी पर पुलिस का कहर टूटा पड़ा। लाठियों से लगातार पीटते हुए उनके मुंह में रूमाल ठूंस कर ऊपर दरी डाल दी गयी और हथकड़ी पहनाकर उन्हें एक वर्ष के कठोर कारावास में डाल दिया गया। भारती जी का यह अदम्य साहस ‘ऐतिहासिक पौड़ी कांड’ के नाम से प्रसिद्ध है जो जनपद के मुख्यालय के गजट में भी अंकित है।

गाधी जी के इस आह्वान पर कि शासन को जन-धन से सहायता न दी जाय से प्रेरित होकर अंग्रेजी शासन के विरूध्द उनको उस समय रोका जब वे 11 अक्टूबर 1940 को लैंसडाउन से बाहर युध्द के लिए जा रही थी। इस अपराध पर उन्हें 4 माह कारावास और 15 रुपये अर्थदण्ड की सजा दी गई। अंतिम दिनों में गंभीर रोग से ग्रस्त इस महान योध्दा ने अपने ग्राम अरकंडाई में 71 वर्ष की आयु में 9 सितम्बर 1952 को अंतिम सांस ली। वर्तमान राजनीतिक सामाजिक चिन्तन की तुलना यदि जयानन्द भारती जैसे सपूत से की जाय तो हमारा स्वार्थपरक शीष निश्चय ही लज्जा से झुक जाना चाहिये। उपेक्षित वंचित शिल्पकार परिवार से उठकर भारती जी ने एक परम राष्ट्रभक्त की तरह भारतीय समाज के शिल्प में अद्वितीय चित्रकारी करके समरसता की भावना को पुष्ट किया। उन्होंने सिध्द किया कि प्रतिभाएं किसी भी जातीय विशेषण से कुंद नहीं की जा सकती। इस भारत राष्ट्र की गरिमा, उसकी आत्मा के मूल स्वभाव को बनाये रखने में जिन अनेकानेक ऋषियों, तापसों, महापुरूषों ने पुरूषार्थ के जो महायज्ञ किये। उनमें जयानन्द भारती की यह आहुति स्मरण रखने लायक है। उनके व्यक्तित्व की सुरभि से भारतीय समाज के सभी वर्गों, जातियों के एक दूसरे को सहने सुनने की प्रवृत्ति बढ़े। हम सभी हिन्दू एक मंच पर खड़े होकर मां-भारती के कौसुम्भी ललाट को एक नयी तेजस्विता दे सकें। ऐसी श्रद्धांजलि देना ही ऐसे महापुरूषों के प्रति सच्चा सम्मान व्यक्त करना है।

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  1. सन् 1857 के संग्राम में सदियों से सोया भारत जैसे जाग उठा था। इस संग्राम की भूमिका बांधने वाले अनेक विचारक, संत, कवि जिस तरह वर्षों से भारतीय समाज को खटखटाते रहे। उसी का परिणाम था कि साढे तीन लाख भारतीयों ने अपनी स्वतन्त्रता के लिए आत्मोत्सर्ग किया। अंग्रेज शासक इस दमन के अन्दर सुलगती उस चिंगारी को नहीं पहचान सके, जो सभ्यता के आरंभिक कालखण्डों से इस देश के सांस्कृतिक सामाजिक शरीर को लगातार ऊष्मा देती रही है। सन् 1857 के बाद राष्ट्र के विचारकों ने ब्रिटिश-एम्पायर के विविध षड्यन्त्रों पर प्रहार शुरू करते हुए आत्मावलोचना के मंच तैयार किए। समाज के विभिन्न फलकों पर बहुस्तरीय विमर्श ने जहाँ एक ओर तिलक, गांधी, गोखले, हेडगेवार जैसे विचारकों को पैदा किया वहीं दूसरी ओर जनता ने अपने पुरातन विचारों का पाखण्डी चोला फैकने का साहसी निर्णय लेकर एक नयी सामाजिक क्रान्ति की नींव रखनी शुरू की। ऋषियों के विचारों, पुस्तकों-पुराणों के नवनीत को राजनीति का अंग बनाकर गांधी ने भारत के आम आदमी को जिस तरह योध्दा बनाया, वह अद्वितीय था। यह स्वतन्त्रता आन्दोलन मात्र ब्रिटिश एम्पायर से छूटने का युद्ध नहीं वरन् एक नये भारत राष्ट्र के पुनर्निर्माण का आन्दोलन बन गया।

    छुआछूत जातीय वैमनस्य धार्मिक पाखण्ड पर स्वयं प्रहार कर समस्त देश में पिछले डेढ़ सौ सालों में जितने अभूतपूर्व आन्दोलन हुए जैसे अद्वितीय महापुरूष इस समाज ने पैदा किये, वह अविश्वसनीय लगता है। सामाजिक सुधार जितने बड़े पैमाने पर हमारा राष्ट्रीय प्रश्न बना, उस पर पलट कर देखने का अवसर हमें निकालना चाहिए। यह स्वतन्त्रता जो आज हमारे हाथ आयी है और जैसी कुरूपता हम अपनी स्वतन्त्रता में भर रहे हैं वह सोचनीय है, परन्तु ऐसे अवसरों पर ही हम पीछे मुड़कर यदि उन लाखों-लाख सामाजिक-राजनीतिक योद्धाओं के जीवन के कुछ पृष्ठ देख सकें तो संभवतः स्वतन्त्रता के प्रति हमारा यह आधुनिक दृष्टिकोण स्वयं हमारी ही ऑंखों में चुभने लगेगा। गांधी ने समस्त राष्ट्र की तरह उत्तराखण्ड के इन वीरान पहाड़ों को भी आन्दोलित किया। पौड़ी, नैनीताल, अल्मोड़ा, कौसानी जैसे सुरम्य स्थलों में बसे अंग्रेज लाट-साहबों के ठाठ, और शोषित जनता के बीच बढ़ती खाई को देख आजादी की ललक और बढी। उनके दमन पर मन ही मन खौलते अनेक सेनानियों के साथ उन लोगों का राष्ट्रीयता के यज्ञ में अपनी आहुतियां देना आश्चर्य में डालता है जिन्हें अपने ही लोगों ने उनके सामाजिक, राजनीतिक अधिकारों से वंचित किया था। जो लोग रूढ़ियों से अपने मानवीय अधिकारों से भी वंचित थे, उपेक्षित थे। परन्तु यह भारतीय समाज, उसने समय-समय पर अनेक सुधारकों, संतों तथा जननायकों के आह्वान पर अपनी सोच बदली और उसी का परिणाम था कि पहाड़ों में भी वंचितों के उद्धोष सभी तरह की स्वतन्त्रता मांगने के लिए गूंजने लगे। वंचितों ने स्वतन्त्रता के साथ अपने मानवीय और सामाजिक-संवैधानिक अधिकारों के लिए अपना स्वर ऊँचा किया। बाबू बोथासिंह, गिरधारीलाल आर्य, गंगाराम आर्य, हरिप्रसाद टम्टा, खुशीराम आर्य जैसे अनेक पहाड़ी नाम इस समाज सुधार की लम्बी माला में जुड़ते रहे, परन्तु स्वतन्त्रता संग्राम से लेकर विभिन्न सामाजिक चेतना से जुड़े सबसे मुखर स्वर का नाम था जयानन्द भारती।

    श्री भारती का जन्म पौड़ी जनपद के अरकंडाई गांव के शिल्पकार परिवार में 17 अक्टूबर 1881 को हुआ। रोजगार की तलाश में भटकते हुए युवक भारती का परिचय अनेक मुसलमानों और ईसाईयों से हुआ। भारती जी को इनके द्वारा धर्म-परिवर्तन के लिए अनेक प्रलोभन दिये गये किन्तु इन्होंने न केवल इन प्रलोभनों को ठुकराया अपितु स्पष्ट कहा कि ”मैं हिन्दू धर्म छोड़कर कोई दूसरा धर्म स्वीकार नहीं कर सकता हूँ। मेरे इस अटल विश्वास के आगे दुनिया का बड़े से बड़ा सम्मान एवं वैभव भी तुच्छ है।” समाज में व्याप्त अंधविश्वास एवं बुराइयों से भारती जी दुःखी थे। इन्हीं समस्याओं के समाधान तथा वेदों के अध्ययन की इच्छा से इन्होंने गुरूकुल-कांगड़ी के संस्थापक स्वामी श्रद्धानन्द से भेंट की। आर्य समाज के महात्मा, समाज सुधारक एवं राष्ट्रवादी नेता के रूप में ख्यात इस महान वृक्ष ने भारती जी को न केवल वेदों का वृहद् ज्ञान दिया अपितु यह भी कहा कि मुझे तुम्हारे अन्दर एक क्रान्ति छिपी हुई नजर आती है।” तुम चाहो तो आर्य समाज के माध्यम से उत्तराखण्ड के हिन्दू समाज में फैली सामाजिक एवं धार्मिक बुराइयों को दूर कर सकते हो”। आर्य समाज का प्रचार-प्रसार करते हुए इन्होंने अपना धर्म छोड़कर ईसाई धर्म अपनाने वाले कई शिल्पकारों को फटकारते हुए कहा कि धर्म में रहकर संगठित बनकर अपने अधिकारों को प्राप्त करो।” इस प्रकार आर्य समाज पध्दति से इन्होंने कई ईसाई बने शिल्पकारों को शुध्दिकरण द्वारा पुनः हिन्दू धर्म में सम्मिलित किया।

    सामाजिक चेतना की एक और कड़ी में ‘डोला-पालकी आन्दोलन’ का श्रेय भी भारती को जाता है। यह वह आन्दोलन था जिसमें शिल्पकारों के दूल्हे-दुल्हनों को डोला-पालकी में बैठने से वंचित रखा जाता था। लगभग 20 वर्षों तक चलने वाले इस आन्दोलन के समाधान के लिए भारती जी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा दायर किया जिसका निर्णय शिल्पकारों के पक्ष में हुआ। स्वतन्त्रता संग्राम में भारती जी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। 28 अगस्त 1930 को इन्होंने राजकीय विद्यालय जयहरीखाल की इमारत पर तिरंगा झंडा फहराकर ब्रिटिश शासन के विरोध में भाषण देकर छात्रोें को स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए प्रेरित किया। 30 अगस्त 1930 को लैंसडाउन न्यायालय द्वारा इन्हें तीन माह का कठोर कारावास दिया गया। धारा 144 का उल्लंघन करते हुए जब इन्होंने अंग्रेजी शासन के विरूद्ध दुगड्डा में जनसभा की तो इन्हें छः माह के कठोर कारावास की सजा हुई। पूरे भारत वर्ष में गांधीजी के नेतृत्व में स्वतन्त्रता आन्दोलन की लहर चल रही थी। अंग्रेजी शासन के विरोधियों को कठोर दण्डों का सामना करना पड़ा था किंतु इसकी परवाह न करते हुए देश के रणबांकुरे हर पल अपने प्राण न्यौछावर करने को तत्पर रहते थे। ऐसे ही अवसर पर जब गढ़वाल पौड़ी की शांति सभा ने उत्तर प्रदेश के गर्वनर जनरल सर मैलकम हेली को पौड़ी आमन्त्रित किया तो गढ़वाल के इस स्वाभिमानी सपूत का खून खौल उठा। इस सपूत ने जेल में ही कसम खाई कि वे उक्त अभिनंदन समारोह को सफल नहीं होने देंगे। सौभाग्य से जिस दिन अभिनंदन समारोह था ठीक उसी दिन भारती जी भी जेल से मुक्त हुए। मैलकम हेली जैसे ही स्वागत भाषण के लिये उठा उसी समय भारती जी बड़ी शीघ्रता से मंच पर चढ़कर ”गो बैक मैलकम हेली, भारत माता की जय” के नारे लगाने लगे। गर्वनर को किसी तरह सुरक्षित डाक बंगला पहुंचाया गया किन्तु भारती जी पर पुलिस का कहर टूटा पड़ा। लाठियों से लगातार पीटते हुए उनके मुंह में रूमाल ठूंस कर ऊपर दरी डाल दी गयी और हथकड़ी पहनाकर उन्हें एक वर्ष के कठोर कारावास में डाल दिया गया। भारती जी का यह अदम्य साहस ‘ऐतिहासिक पौड़ी कांड’ के नाम से प्रसिद्ध है जो जनपद के मुख्यालय के गजट में भी अंकित है।

    गाधी जी के इस आह्वान पर कि शासन को जन-धन से सहायता न दी जाय से प्रेरित होकर अंग्रेजी शासन के विरूध्द उनको उस समय रोका जब वे 11 अक्टूबर 1940 को लैंसडाउन से बाहर युध्द के लिए जा रही थी। इस अपराध पर उन्हें 4 माह कारावास और 15 रुपये अर्थदण्ड की सजा दी गई। अंतिम दिनों में गंभीर रोग से ग्रस्त इस महान योध्दा ने अपने ग्राम अरकंडाई में 71 वर्ष की आयु में 9 सितम्बर 1952 को अंतिम सांस ली। वर्तमान राजनीतिक सामाजिक चिन्तन की तुलना यदि जयानन्द भारती जैसे सपूत से की जाय तो हमारा स्वार्थपरक शीष निश्चय ही लज्जा से झुक जाना चाहिये। उपेक्षित वंचित शिल्पकार परिवार से उठकर भारती जी ने एक परम राष्ट्रभक्त की तरह भारतीय समाज के शिल्प में अद्वितीय चित्रकारी करके समरसता की भावना को पुष्ट किया। उन्होंने सिध्द किया कि प्रतिभाएं किसी भी जातीय विशेषण से कुंद नहीं की जा सकती। इस भारत राष्ट्र की गरिमा, उसकी आत्मा के मूल स्वभाव को बनाये रखने में जिन अनेकानेक ऋषियों, तापसों, महापुरूषों ने पुरूषार्थ के जो महायज्ञ किये। उनमें जयानन्द भारती की यह आहुति स्मरण रखने लायक है। उनके व्यक्तित्व की सुरभि से भारतीय समाज के सभी वर्गों, जातियों के एक दूसरे को सहने सुनने की प्रवृत्ति बढ़े। हम सभी हिन्दू एक मंच पर खड़े होकर मां-भारती के कौसुम्भी ललाट को एक नयी तेजस्विता दे सकें। ऐसी श्रद्धांजलि देना ही ऐसे महापुरूषों के प्रति सच्चा सम्मान व्यक्त करना है।

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