झुरमुठ

आज रविवार है। मिसेस मुखर्जी के घर, रविवार का पता लगाना बहुत ही आसान है। सुबह मॉर्निंग वॉक से मिस्टर मुखर्जी का हाथ में थैला लेकर लौटना। गेट खुलने की आवाज से मिसेस मुखर्जी का हड़बड़ा कर उठना ,बालों को समेटते हुए, पैरों में नीली हवाई चप्पल डालना। कुर्सी पर रखे दुपट्टे को कंधे पर रखना और तेजी से बरामदे की ओर भागना। मेरे समीप दो मिनट रुक कर बिंदियों की  झुरमुट से अपनी पसंदीदा लाल बिंदी लगाना नहीं भूलती मिसेस मुखर्जी। फिर क्या, मिस्टर मुखर्जी के हाथों से थैला लेकर सीधे रसोई घर में घुस जाना। लहसुन पीसने की आवाज, सरसों की तेल में मछलियों का तलना से, रविवार, रविवार हो जाता। रविवार का यह क्रम ऐसा ही चला रहा है। बरामदे की दीवार से ये सारा दृश्य मानो मुझ में सिमटा हुआ है।

मैं? मुझे तो एक ही बार में मिसेस मुखर्जी ने पसंद कर लिया था। दिल्ली हाट घूमाने ले गए थे मिस्टर मुखर्जी। सागवान से बनी, नुकीले नक्काशीदार किनारे, मुझे देखते ही मिसेस मुखर्जी ने अपनी लाल बिंदी ठीक की। मिस्टर मुखर्जी ने अपनी धीमी मुस्कान से अनुकृति दी। फिर क्या दिल्ली से कलकत्ता का सफर मैंने मिसेस मुखर्जी की गोद में ही तय किया,और तब से आज तक बरामदे की दीवार पर लटके हुए पूरे घर का नजारा देखती हूँ। मेरी निचले दायी कोने में मिसेस मुखर्जी की बिंदियों का झुरमुठ सजा हुआ है। यह  झुरमुठ ही तो इस घर में मेरी अस्तित्वता का प्रमाण देता है।

आज भी तो रविवार ही होना चाहिए। परन्तु आज मिस्टर मुखर्जी को आने में काफी देर हो गयी थी। मिसेस मुखर्जी तो अब तक पंखे की घरघराहट मैं चैन से सो रही थी। तभी अचानक लोगों की भीड़ आनी शुरू हो गई। धीरे धीरे भीड़ बढ़ने लगी। भीड़ क्या थी, सैलाब कहिये। बरामदे पर मानो आग लग गई हो। मिसेस मुखर्जी बिना बालों को समेटे, बिना हवाई चप्पलों के, बिना दुपट्टे के, बरामदे की ओर तेजी से दौड़ी और फिर चीखें ही चीखें। घंटों तक रोना चला| कौतूहल मचा हुआ था।

दोपहर हुई। शाम होते भीड़ छटने लगी। दिन बीते। लोगों का आना जाना कम हुआ। मिसेस मुखर्जी की भी अब चीखें नहीं सुनाई देती। चीखें

अब सिसकियों में जो बदल गयी थी।

आज बहुत दिनों बाद मिसेस मुखर्जी रसोईघर में जा रही थी। बेटे को भी वापस अमेरिका जाने का समय जो हो चुका था। बालों को समेटते हुए मेरे करीब आकर रुकी। अपनी बिंदियों के झुरमुठ में मानो कुछ ढूंढ रही हो, अपनी पसंदीदा लाल बिंदी या कुछ और?

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