मनमोहन कुमार आर्य
मनुष्य जीवन उसके जन्म से आरम्भ होता है और मृत्यु पर समाप्त हुआ प्रतीत होता है जबकि यह समाप्ति न होकर एक विराम है जिसके बाद जीवात्मा का पुनर्जम्न होता है। जन्म से पूर्व मनुष्य की जीवात्मा विषयक कहीं से कोई पुष्ट व यथार्थ जानकारी नहीं मिलती कि इससे पूर्व वह जीवात्मा कहां, किस स्थान पर व किस योनि में था? मृत्यु होने के बाद शरीर तो उसी रूप में विद्यमान रहता है परन्तु उसमें चेतना का अभाव हो जाता है जिससे प्रतीत होता है कि उस शरीर में से चेतना निकल गई है। यह चेतना क्यों व कैसे निकली व कहां गई? इन प्रश्नों का समाधान उपलब्ध साहित्य में नहीं मिलता। वेदों की शरण में जाने पर वैदिक साहित्य से इन सभी प्रश्नों का प्रायः पूर्ण समाधान हो जाता है। वेद बताते हैं कि संसार में तीन अनादि व नित्य पदार्थ हैं जो अमर वा अनन्त भी हैं। इनके नाम हैं ईश्वर, जीव व सृष्टि। ईश्वर व जीव दोनों चेतन पदार्थ हैं जिनमें ईश्वर सर्वव्यापक है और जीव एकदेशी सत्ता है। संख्या की दृष्टि से ईश्वर इस ब्रह्माण्ड में एक है और जीवों की संख्या मनुष्य के ज्ञान में अनन्त व अगणित हैं परन्तु ईश्वर को इन सभी जीवात्माओं का पूरा पूरा ज्ञान होने से ईश्वर के ज्ञान में जीवात्माओं की संख्या असीमित न होकर सान्त है। प्रकृति इस कार्य जगत का उपादान कारण है जो अत्यन्त सूक्ष्म है और सत्, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक है। ईश्वर ने इस त्रिगुणात्मक कारण प्रकृति से ही इस संसार की रचना की है। सृष्टि की रचना करने के लिए ईश्वर का स्वरूप सच्चिदानन्द, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, अनन्त, अविनाशी, सर्वातिसूक्ष्म और सर्वार्न्तायामी होना आवश्यक है अन्यथा इससे इतर स्वरूप वाली अन्य किसी सत्ता से सृष्टि की रचना होना सम्भव नहीं है। वेदों के अनुसार ईश्वर का स्वरूप ऐसा ही है जिसे वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करके जाना जा सकता है। ईश्वर व प्रकृति के स्वरूप को जानकर ईश्वर से सृष्टि की रचना का होना सम्भव सिद्ध होता है। वेद की सभी बातें सत्य होने से वेदों में सृष्टि को ईश्वर का कृतित्व निरुपित करना भी इसे सत्य सिद्ध करता है। ईश्वर द्वारा सृष्टि की रचना करने का उद्देश्य इसके एक व अनेक भोक्ताओं का होना भी अनिवार्य है। यदि भोक्ता न हों तो फिर सृष्टि रचना निरुद्देश्य होने से निरर्थक हो जाती है। ईश्वर भोक्ता इस लिए नहीं हो सकता कि वह सच्चिदानन्द स्वरूप वाला है। आनन्द से युक्त स्वरूप वाली ईश्वरीय सत्ता को यदि सृष्टि रूपी भोगों की अपेक्षा हो तो वह आनन्द से युक्त नहीं कही व मानी जा सकती। दूसरी बात यह भी है कि सृष्टि का भोग करने के लिए ईश्वर का अवतार व मनुष्य के समान जन्म मानना होगा जो कि इसलिए असम्भव है कि वह सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान है। यदि ईश्वर का मनुष्य योनि में जन्म वा अवतार मानें तो यह उस सर्वव्यापक चेतन सत्ता की अपूर्णता को प्रदर्शित करता है जिससे ईश्वर की सत्ता ही सन्देह के घेरे में आ जाती है। यदि ऐसा हो तो अपूर्ण होने से वह इस सृष्टि का भली भांति निर्माण व संचालन नहीं कर सकता क्योंकि सृष्टि से पूर्व प्रलय काल में उसके लिए आनन्द के भोग की वस्तुओं उपलब्ध न होने से उसका अस्तित्व ही बाधित होगा जो उसके सृष्टि रचना के कार्य में सहायक नहीं हो सकता। अतः यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि ईश्वर ने यह सृष्टि अपने लिये बनाई है।
अब प्रश्न यह शेष रहता है कि ईश्वर ने यह सृष्टि किसके लिए बनाई है? इसका उत्तर मिलता है कि यह सृष्टि चेतन सत्ता जीवात्माओं के लिए बनाई है जो कि सत व चित्त होने के साथ अनादि, नित्य, अविनाशी, अजर, अमर, एकदेशी, ससीम, पाप-पुण्य और शुभाशुभ कर्मों के कारण जन्म मरण के चक्र में फंसी हुई हैं। मनुष्य जो कार्य अनेक बार करता है उसको करने का उसका स्वभाव व संस्कार बन जाता है और वह उस कार्य को आवश्यकता व नियम के अनुसार करता है। ईश्वर अनादि काल से इस सृष्टि की उत्पत्ति व प्रलय करता आ रहा है। अनन्त बार वह इसी प्रकार की सृष्टि की रचना कर चुका है और सृष्टि के बाद नियत काल 4.32 अरब वर्ष बाद वह इसकी प्रलय करता है। प्रलय का काल भी 4.32 अरब वर्ष होता है जिसके बाद पुनः सृष्टि होती है। यह सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय का सिद्धान्त है। हमारी यह सृष्टि विगत लगभग 1.96 अरब वर्षों से चल रही है। जब सृष्टि रचना के आरम्भ से इसके 4.32 करोड़ वर्ष पूरे हो जायेंगे तो ईश्वर इसकी प्रलय करेगा। प्रलय का अर्थ है कि सृष्टि अपने मूल स्वरूप त्रिगुणात्मक प्रकृति में विलीन हो जायेगी। प्रलय से पूर्व जो मनुष्य आदि जीवात्मायें मृत्यु को प्राप्ति होती हैं उनके पाप-पुण्य के अनुसार उन्हें पुनः सुख व दुःख प्रदान करने का कार्य ईश्वर को करना होता है। प्रलय की अवधि पूरी होने पर ईश्वर नई सृष्टि की रचना कर पूर्व कल्प के जीवों के कर्मानुसार उनको सुख व दुःख रूपी फल प्रदान करता है। यही इस सृष्टि रचना का उद्देश्य है। मनुष्यादि प्राणियों के कर्म जिस प्रकार इस कल्प में चल रहे हैं, प्रलय होने के बाद के कल्पों में भी इसी प्रकार से चलते रहेंगे। जीवों के कर्मों की यह स्थिति कभी समाप्त न होने वाली प्रक्रिया है। इसका अन्त कभी नहीं होगा। सृष्टि के बाद प्रलय और प्रलय के बाद सृष्टि होती आई है और आगे भी जारी रहेगी, यह तर्क संगत व युक्तियुक्त सृष्टि उत्पत्ति व प्रलय का सिद्धान्त है।
यह भी जान लेना आवश्यक है जीवात्मा के शुभ व अशुभ कर्म बराबर होने व शुभ अधिक होने पर जीवात्मा को मनुष्य जन्म मिलता है व अशुभ कर्म अधिक होने पर पशु, पक्षी आदि निम्न योनियां प्राप्त होती हैं। पशु,पक्षी आदि योनियां भोग योनि कहलाती हैं और मनुष्य योनि उभय योनि कहलाती है। इस योनि में मनुष्य का जीवात्मा पूर्व कर्मों के फलों को भोक्ता भी है और नये शुभाशुभ कर्म करता भी है। यह अभुक्त शुभाशुभ कर्म ही भावी जन्म का आधार बनते हैं। मृत्यु के सन्दर्भ में यह भी जानना आवश्यक है कि मृत्यु अभिनिवेश क्लेश कहलाती है जो स्वयं में बहुत बड़ा दुःख है। प्रत्येक मनुष्य व अन्य प्राणी मृत्यु रूपी दुःख से भयभीत व त्रस्त रहते हैं। जीवन में जो दुःख आते हैं, उनसे भी सभी बचना चाहते हैं। इन दुःखों से बचने का एक ही उपाय है कि मनुष्य अशुभ व पाप कर्म न करे। पाप नहीं होंगे तो दुःख प्रायः नहीं होगा। शरीर पर भी विचार करें तो इसमें वृद्धि, ह्रास, आरोग्य व रोग आदि कष्टकारी विकृतियां होना देश काल व परिस्थितियों पर भी निर्भर होता है। वृद्धावस्था में अनेक लोगों को अनेक प्रकार के रोग व दुःख आदि होते हैं। इनसे सभी जीवात्मायें वा मनुष्य बचना चाहते हैं। इसका उपाय भी हमें वैदिक साहित्य से मिलता है। इसके लिए मनुष्य को शुभकर्म करते हुए ईश्वर व जीवात्मा आदि को जानकर ईश्वरोपासना द्वारा ईश्वर साक्षात्कार का प्रयत्न करना होता है। योगाभ्यास ही वह उपासना पद्धति है जिसका पालन कर समाधि की सिद्धि होने पर ईश्वर साक्षात्कार सम्भव होता है। समाधि की सिद्धि का अर्थ विवेक की प्राप्ति व इसके आधार पर मृत्यु के पश्चात दीर्घावधि के लिए जन्म-मृत्यु से ‘मोक्ष’ रूपी अवकाश के रूप में ईश्वर के सान्निध्य से पूर्ण आनन्द की प्राप्ति होती है। हमारे समस्त ऋषि, मुनि, योगी व याज्ञिक इसी समाधि द्वारा ईश्वर साक्षात्कार व मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्नरत रहते रहे हैं। ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायियों ने दर्शन व उपनिषदों आदि के भाष्य करके व आवश्यकतानुसार अनेकानेक ग्रन्थों की रचना कर साधना द्वारा ईश्वर प्राप्ति का मार्ग सुगम बना दिया है जिस पर चल कर जीवन को उन्नत बनाया जा सकता है। इस प्रकार योगाभ्यास आदि के द्वारा मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से छूट भी सकता है। इस विषयक पूरे ज्ञान व विज्ञान को जानने के लिए ऋषि दयानन्द और उनके कुछ प्रमुख विद्वान अनुयायियों के साहित्य का अध्ययन सहायक होता है।
लेख का समापन करते हुए संक्षेप में यह जानना है कि जीवों को पूर्व कल्पों के अनुसार सुख व दुःख रूपी भोग प्रदान करने के लिए ईश्वर मूल त्रिगुणात्मक प्रकृति रूपी उपादान कारण से इस कार्य सृष्टि की रचना करता है। मनुष्य योनि उभय योनि होती है जिसमें कर्मों के फल भोग के साथ नये शुभ कर्म करने का अवसर मिलता है और इसके साथ ईश्वरोपासना व यज्ञ आदि परोपकार के अन्यान्य कर्म व साधनायें करके समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार कर मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। सृष्टि और प्रलय का यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक इसी प्रकार से चलता रहेगा। इन सब बातों को जानकर मनुष्य को असत व अविद्या से युक्त कर्मों को त्याग कर विद्यायुक्त कर्मों को कर जन्म व मरण से छूटने का प्रयत्न करना चाहिये। जन्म का कारण पूर्व जन्म की मृत्यु और इस जन्म की मृत्यु का परिणाम पुनर्जन्म वा भावी जन्म होता है जिसका आधार अभुक्त कर्म होते हैं। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।