आज कई सालो बाद देश नाजुक आर्थिक दौर से गुजर रहा है। देश में विदेशी निवेश आना लगभग बंद हो चुका है, उद्योग घराने भी खमोश है और नए उद्यमों में निवेश नहीं करना चाहते है। इसका एक कारण ये जरूर है की देश में अप्रत्यक्ष राजनैतिक अस्थिरता बनी हुई है पर इस आर्थिक सूक्ष्मकाल के लिए जनलोकपाल आन्दोलन भी कही न कही जिम्मेदार है। जनलोकपाल आन्दोलन कितना सफल हुआ और वह कितना देशवासियो का भला कर पाया यह तो तर्क का विषय है,लेकिन इस आन्दोलन ने देश की औद्योगिक विकास को एक हद तक रोक दिया इसमें कोई संशय की बात नहीं है। आज हर औद्योगिक सेक्टर अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जूझ रहा है, नई नौकरियों का अकाल सा प्रतीत हो रहा है। जहां देश 4-5 साल पहले नित नए कीर्तिमान स्थापित करने की ओर अग्रसर वहीं आज सकल घरेलु उत्पाद आगे बढऩे का नाम ही नहीं ले रहा है। कई औद्योगिक घराने से सम्बंधित लोग सीबीआई और कोर्ट के चक्कर लगा रहे है और कुछ तो जेल की हवा खा रहे है। अगर देश में भ्रष्टाचार हुआ है तो उसे भविष्य में रोकने के लिए कड़े कानून बनने चाहिए लेकिन आर्थिक विकास को रोक कर नहीं।
जनलोकपाल आन्दोलन कहा चला गया ये कहना अब कठिन है, और उससे जुड़े लोग आजकल क्या कर रहे है ये भी कहना मुश्किल है। आजकल ये आन्दोलनकारी सिर्फ
फेसबुक और ट्विटर पर हावी हंै और कभी कभी न्यूज चैनलों में इनकी झलक देखने को मिल जाती है। अगर जनलोकपाल आन्दोलन से जुड़े लोगो की बात की जाए तो एक ही इंसान उनमे से ऐसा दिखेगा जो गरीबी से निकलकर आया है और जिसने गरीबी को करीब से देखा है और वो है सिर्फ अन्ना हजारे। बाकी जितने लोग भ्रष्टाचार और देश को सुधारने की बात करते है वो सारे के सारे लोग हवाई यात्राओं में व्यस्त दिखते है। आज अगर आर्थिक विकास रुकने का खामियाजा कोई भुगत रहा है तो वो देश का आम आदमी। जिनका इन उद्योगों के भरोसे पेट चलता है। उद्योगपतियो ने चुप्पी साध रखी है क्योंकि उनके पास पैसो की कोई कमी नहीं है और उनके पेट की चिंता उन्हें है ही नहीं, नेतागण चुप इसलिए हैं क्योंकि उन्हें भ्रष्टाचार से डर लगने लगा है और वो अपना दामन साफ रखना चाहते है और ये तथाकथित आन्दोलनकारी अपने-अपने कार्यो में व्यस्त है। इन आंदोलकारियो में एक नामी वकील है जो एक सुनवाई की 15 – 25 लाख रुपये लेते है , एक कवि है जो एक कार्यक्रम का 3 – 5 लाख रुपये लेते है और कई ऐसे भी समाज सेवी है जो कि स्कूल कॉलेज के ओपनिंग का फीता तक काटने का पैसा ले लेते हंै। सोचिये जरा अब ऐसे में तो ये लगता है की ये आन्दोलन इनका व्यक्तिगत विज्ञापन का नया और अचूक तरीका था। कई लोगो ने जनलोकपाल आन्दोलन को गांधीजी के स्वतंत्रता संग्राम से जोड़कर देखा कुछ ने जयप्रकाश आन्दोलन से जोड़कर देखा पर उन आंदोलनों में और इस आन्दोलन में एक बहुत बड़ा अंतर है । ये जनलोकपाल आन्दोलन प्रायोजित आन्दोलन था जिसके पीछे कुछ बड़े एनजीओ लगे हुए थे और खूब पैसे भी खर्च हुए थे और इस आन्दोलन का एक प्रमुख निशाना देश की आर्थिक विकास को रोकना भी था जिसमे की इस आन्दोलन को सफलता मिल गयी। अक्सर लोग चाइना के प्रगति की वाह वाही करते मिल जाते है और अपने देश के प्रगति से तुलना करने लग जाते है। चाइना के कई शहरों के होटलों में अंग्रेजी भाषा सिखाने वालो को मुफ्त भोजन परोसा जाता है क्योंकि वो जानते है की अगर प्रगति करना है तो अंग्रेजी आवश्यक है। चाइना को आज कही न कही भारतीय बाजार से खतरा महसूस जरूर होता है शायद यही वजह है की वो हमारे प्रगति को हमेशा रोकना चाहते है कभी लेफ्ट पार्टियो के जरिये ,कभी नक्सल गतिविधिओ के जरिए और कभी कभी ऐसे आंदोलनों के जरिए।
इस आन्दोलन के पीछे कई ऐसे देश भक्त नजऱ आते थे जिनका आधा समय विदेशो के दौरों में ही गुजरता है। आज देश का जो संविधान है वो परिपक्व और मजबूत है कुछ खामिया जरूर है पर वो समय के साथ धीरे धीरे अपने आप सुधर जाएँगी। राईट टू इन्फोरमेंशन , राईट टू एजुकेशन ऐसे नियम है जो इस देश के संविधान की ही देन है। आज हमारे देश का संविधान 60 साल पुराना ही हुआ है और बहुत बड़ा भविष्य हमारे सामने है तो ऐसे आंदोलनों में देश को झोंकने से पहले ये विचार करना भी जरूरी है की इससे देश के सारे वर्गों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, स्वार्थपूर्ति के भाव से आन्दोलन का देश पर हमेशा ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा जैसा की जनलोकपाल आन्दोलन से हुआ।
आपका कहना सही है कि दो जून की रोटी किसी भी आन्दोलन से ज्यादा जरूरी है,पर क्या वह दो जून की रोटी हमारी सरकारें आजादी के ६५ वर्षों के बाद भी जनता को दे सकीं हैं?आज भी अगर जनता को दिए जाने वाले एक रूपये में से १० या १५ पंद्रह पैसे के बदले ८५ या ९० पैसे जनता के उस तबके तक पहुँचने लगे जिनको दो जून की रोटी नसीब नहीं है,तो ऐसा कोई भी आन्दोलन अपने आप समाप्त हो जाएगा.
आन्दोलन को चलाने वाले में से कोई अगर पैसे लेकर किसी को ईमानदार साबित करता है ,तो यह गलत है.पैसे अगर अनुदान के रूप में लिए गए हैं और उसका पूर्ण व्योरा उपलब्ध है और वह स्कूल सचमुच अच्छा है तो इसमे हर्ज क्या है?अगर ऐसा नहीं है तो गलत है,पर इस गलती के लिए पूरे आन्दोलन को नहीं नकारा जा सकता.
बाबा रामदेव और उनके व्यापार पर मैं अपनी टिप्पणी बहुत बार दे चूका हूँ औरउसके लिए उनके अंध भक्तों द्वारा मेरी भ्रतस्ना भी की जा चुकी है.
मुझे तो ऐसा लग रहा है कि विवाद को केवल अकारण बढ़ाया जा रहा है,नहीं तो सत्य तो यह है कि आम जनता भ्रष्टाचार के बोझ तले दबी हुई है और उसको इससे निजात दिलाने का कोई भी प्रयत्न सराहनीय है.जैसा मैंने अपने लेख में लिखा था कि जो आगे बढ़ कर इसको चला रहे हैं,उनके रास्ते की रूकावट न बन कर अगर हम या तो उसका हिस्सा बन कर उसकी खामियों को दूर करे या विकल्प प्रस्तुत करे.यह विकल्प तो कदापि नहीं हो सकता कि यथास्थिति कायम रहे.
प्रिय सिंह सर पहली बात आप मुझसे काफी बड़े है और मैं आपके सामने क्यों ढोंग करू और मुझे कही भी ये साबित भी नहीं करनी है की मैं देश भक्त हु या समाज सेवी हु और उसका faayda उठाऊ ..हम तो आम जनता है जो दीखता है वही कहते है ..आप अर्थ शास्त्री नहीं है ये बिलकुल ठीक है पर क्या आप मुझे ये बता सकते है दो waqt की रोटी ज्यादा जरूरी है या आन्दोलन ..रामदेव बाबा भी कहते है की कालाधन वापस लाओ पर कितने लोगो को रोजगार दी है आजतक उन्होंने 1100 करोड़ रुपये का बहुत बड़ा बिज़नस है पर कही कभी उन्होंने नए रोजगार देने के लिए कैंप नहीं लगाया अगर देश की बात कहनी है तो देश के लिए कुछ करके दिखाओ पहले..और अन्ना टीम में भी कई ऐसे समाज सेवी है जो स्कूल के कार्यक्रम में आने के लिए १० लाख का फीस लेते है और वो स्कूल भी इनका फोटो चिप्कवाकर पुरे शहर में प्रचार करते है की भ्रस्टाचार मुक्त स्कूल है …तो क्या ये लोग हम जैसे आम आदमी को बेवकूफ समझते है की जब कहे तो खड़े हो जाए आन्दोलन करने के और जब कहे बैठ जाए …आप जैसे बुध्धिजीवी लोग इन्हें मान सकते है पर हम जैसे आम आदमी नहीं मान सकते है ..
महेन्द्रजी आपने शायद मैंने क्या लिखा वह ठीक से समझा नहीं…मैं भ्रस्टाचार को बढ़ावा देना नहीं चाहता हु पर मैं इन झूठे निरर्थक समाज सेविओ से देश को हो रहे हानि की बात कही है अपने लेख में,,कुछ दिनों पूर्व मेरे शहर के एक शिक्षण संस्था ने इन्ही में से एक कार्यकर्ता को अपने स्कूल के वार्षिक कार्यक्रम में बुलाया और जिसके लिए भारी भरकम फीस चुकाया गया …तो मैं ये क्यों न मानु की ऐसे समाज सेविओ ने इस आन्दोलन को अपने लिए विज्ञापन का माध्यम समझा और देश वासिओ को मुर्क बनाया …और अगर लोकपाल को लेकर इतना ही गंभीर रहते तो इतने जल्दी से वो खामोश नहीं पड़ जाते…
आपने मेरे टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया की उसके लिए धन्यवाद.आप या तो समझ नहीं रहे हैं या न समझने का ढोंग कर रहे है हैं.आज या भविष्य में आपके देश की इज्जत भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने में है,न कि छद्म व्यापारिक सम्बन्ध बढाने में.मैं अर्थ शास्त्री नहीं हूँ,इसलिए अगरमैं यह कहूं कि विश्व प्रतिष्ठानों द्वारा जो हमारी रेटिंग कम हुई है उसके पीछे भी यह भ्रष्टाचार ही है, तो आप शायद मेरी बात हंसी में उड़ा दें ,पर यह सही है कि जब तक भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगेगा,तब तक हमारी दशा में यदा कदा थोड़ी सुधार अवश्य दिखे,पर हमारी दशा सुधरेगी नहीं. विश्व का कोई राष्ट्र एक साथ भ्रष्ट और विकसित नहीं है,तो यह कैसे संभव है कि हम वैसा कर दिखाएँ?.रह गयी बात उनकी जो यह आन्दोलनं चला रहे हैं.उनकी तुलना मैंने स्वाधीनता के पहले के नेताओं से की थी.आपलोग क्या चाहते हैं?क्या कोई भी ऐसा आदमी जो बड़े पदों पर रहा है या अच्छे घरों में रह रहा है,वह इस आन्दोलन में भाग न ले?अगर वह ऐसा करता है तो क्या गलत कर रहा है?रह गयी बात नाली के कीड़े की,तो आप मेरा लेख नाली के कीड़े पढ़िए आपके समझ में आ जाएगा कि मेरा मतलब क्या है.कबीर ने कहा था,
जाति न पूछो साधू की,पूछ लीजिये ज्ञान.
मोल करो तलवार का,पड़ा रहन दो म्यान.
अगर आपमें साहस होतो उनका स्थान लीजिये जो आपके कथनानुसार वातानुकूलित भवन में बैठकर आन्दोलनं चला रहे हैं.अगर आप भ्रष्टाचार दूर करने के लिए न कोई प्रयत्न कर रहे हैं और न उस दिशा में प्रयत्न करने वालों का साथ दे रहे हैं,तो आप जैसे लोग स्वयं समझ सकते हैं किन आपको किस नाम से संबोधित किया जाए.
लिखा वह ठीक है पर यह कहीं भी समझ नहीं आ रहा कि इस आन्दोलन ने आर्थिक सुधारों को कैसे प्रभावित किया कैसे देश कि चाल रुक गयी.रिश्वत इस लिए नहीं ले रहे कि कहीं फँस न जाये और इसलिए काम भी नहीं करेंगे अजीब सा तर्क है.इसका मतलब यह है कि भ्रस्टाचार चलता रहना चाहिए धन्य है साहब आप भी और तो क्या कहें लोकतंत्र के चोथे स्तम्भ को आप जैसे लोग स्तम्भ बना रहने देंगे ऐसी आशा कम ही है.
Priya singh sir aapka samman hai Jo aapne
Mere lekh par pratikriya Di..mera katai Maltab nahi tha ki bhrastachar Ko bhadhava mile bas main to tathakathit samajsevio Ko beparda karna chahta tha ..Anna .ke prati sneh bhi hai aur samman bhi…par vatanukulit gharo me baithke desh ke liye chintan karne walo se nafrat …aur itihas me jiya nahi Ja sakta hai vartmaan desh Ko pukaar raha hai..aaj Bharat ke aarthik paristhiti ka makhaul banaya Ja raha hai vishwa me..roj rating agencies humari rating ghata rahi hai….main aapke kahe anusaar naali ka kida banne ko taiyar hu par aankh kaan band kar kisi besir pair ke aandolan me kud ke desh aur mera bhavishya daav par nahi laga sakta ..sadar namashkar ..
परिचय तो आपका भी अच्छा है.अंग्रेजी में एम.ए आम आदमी तो ऐसे दहसत में आ जायेगा.उस पर भी आम आदमी के शुभ चिन्तक.क्या कहने हैं?अन्ना हजारे को आप जैसे लोग नहीं छूते,क्योंकि मनीष तिवारी के अंजाम से डरते हैं.अन्य लोग चूँकि समाज के तथाकथित उच्चें तबके से आते हैं,अतः उनके बारे में आपकी टिप्पणी शायद चिपक जाए.यही उद्देश्य है न आपका?
भारतके स्वाधीनता सग्राम का इतिहास आपने पढ़ा है ?लगता है कि पढ़े भी होंगे तो भूल गए हैं.
मैं नहीं समझता कि महात्मा गाँधी,नेहरु(मोतीलाल और जवाहर लाल ),सरदार पटेल.बाल गंगाधर तिलक आदि अनेकनेताओं और जो आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलनं चला रहे हैं,उनमें कोई अंतर है,क्योंकि वे सब नेता भी इसीव तरहं के लोग थे.अंग्रेजों के पिट्ठुओं ने उनके विरुद्ध भी शायद यही प्रचार किया हो.अराजकता तो उन्होंने भी फैलाई थी.शान्ति भंग तो उन्होंने भी किया था.सुचारू रूप से चलते शासन में व्यवधान बने थे.आप को फिर इतिहास कि याद दिला दूं.उनके विरुद्ध भी बोलने वाले आप जैसे लोगों की कमी नहीं थी,क्योंकि अंग्रेजों के शासन से लाभ उठाने वालों की संख्या शायद उससे भी अधिक थी,जितना भ्रष्टाचार से लाभ उठाने वालों की है.इस आन्दोलन के विरुद्ध अंग्रेजी और हिंदी में आप जैसे लिखने वाले बहुत हैं.उन नाली के कीड़ों को मेरा एक ही उत्तर है कि इस गन्दगी से बाहर निकलने से शायद उनकी मौत हो जायेगी,इसी लिए वे तर्क वितर्क द्वारा यथा स्थिति को कायम रखना चाहते हैं.तुर्रा यह कि वे समाज के उसी तबके की दुहाई भी देते हैं,जो भ्रष्टाचार से सबसे अधिक पीड़ित है.नौकर शाहों ने निर्णय लेना नहीं इसलिए छोड़ा है कि वे इस आन्दोलन से डरते हैं.उन्होंने निर्णय लेना इसलिए छोड़ा है कि काम नहीं होने पर जनता अपने शुभ चिंतकों के विरुद्ध खड़ी हो जायेगी.
आपको एक बार फिर याद दिला दूं कि स्वाधीनता सग्राम में ऐसे बहुत से अवसर आये थे ,जब आन्दोलन खत्म होता हुआ नजर आया था,फिर भी जब संचार माध्यम नहीं था,सूचना के इतने साधन भी उपलब्ध नहीं थे,तब भी आन्दोलन बढ़ता ही गया.
अभी बहुत वर्ष नहीं हुए ,जब आपातकाल में इंदिरा गांधी ने संचार के सभी साधनों पर प्रतिवंध लगा दिए थे तब भी लोगों को समाचार मिलते रहे और उन्होंने प्राणों की बाजी लगाकर आपातकाल को समाप्त करा कर ही छोड़ा.
सामंतो महोदय,आप किस दुनिया में रहते हैं?राजीव गांधी ने १९८६ में कहा था जन कल्याण के लिए सरकारी खजाने से निकले हुए एक रूपये में केवल १५ पैसे जनता तक पहुँचते हैं.आज स्थिति उससे भी बदतर है,जिसे स्वयं उनके बेटे ने स्वीकार किया है,उस हालत में आप सोच कैसे सकते हैं कि आम जनता आपके इस लुभावने तर्क से प्रभावित होगी?
आप जैसे लोगों को तो यही लग रहा है न कि भ्रष्टाचार समाप्त होने पर उनका का क्या होगा,जो इसी से फल फूल रहेह हैंज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं,अभी भ्रष्टाचार के विरुद्धं लड़ाई में बहुत अडचने आयेगी,तब तक भ्रष्ट लोगों को फलने फूलने से रोका नहीं जा सकता.
स्वार्थियों द्वारा,वह भी उन लोगों द्वारा जो सब कुछ समझते हैं, इस तरह की बेतुकी हरकत पर दुःख भी होता है और क्रोध भी आता है.
गोपाल जी की बात को सिरे से नकारना भी गलत है, आंदोलन से क्या मिलेगा ये तो बाद की बात है, मगर आज तो देश अस्थ्रिता के दौर से गुज रहा है, आप देखिए फेसबुक पर, ये अन्ना समर्थक मिस्र जैसी क्रांति करने तक जाने को तैयार है
सभी लेखको से निवेदन है कि तथ्यों को पूरी तरह समझे बिना पुर्वाग्रह से ग्रसित हो कर लेख न लिखें ताकि प्रवक्ता की मर्यादा कम न हो.अर्थव्यवस्था में ठहराव का कारण एक के बाद एक महाघोटले हैं. सरकार बार बार सुप्रिम कोर्ट को ठेंगा दिखा रही है.कोयले कि बन्दर बांट हो या २जी स्पैक्ट्रम की बात हो सरकार हर बार अन्धे कि रेवडी कि तरह बांट रही है. लाखों करोड रुपया राष्ट्र मंडल खेल मे उडा देती है पर साफ पानी देने के लिये पैसा नहिं है. जन लोककपाल का उद्देश्य भ्रष्टाचार रोकना है न कि अर्थव्यवस्था.