मीडिया

माया महा ठगिनी के इस दौर में पत्रकारिता

माया महा ठगिनी के इस दौर में किसी से निष्पक्ष और जिम्मेदार पत्रकारिता की उम्मीद की जा सकती है ? बुद्धिमानो की इस अनोखी दुनिया में आने से पहले हम भी इसे मिशन मानकर ही आए थे । भागलपुर के टी एन बी महाविद्यालय से १२ वीं करने के बाद दिल्ली चले आए । एक साल तक विभिन्न शिक्षा संस्थानों की खाक छानने के बाद आज जामिया जैसे प्रसिद्द संस्थान में पढने का मौका मिला पर यहाँ भी कमोबेश सब कुछ वही है । इससे पहले जब नामांकन के दौरान जगह -जगह घुमा करता था तब एक संस्थान आई आई एम् एम् में साक्षात्कार के लिए एक बड़े मीडिया चैनल के संपादक जी आए थे। साक्षात्कार के दौरान मुझसे मीडिया में आने का कारण पूछा तो मैंने भी बड़े उल्लास पूर्वक बताया – “समाज सेवा ” । श्रीमान भड़क उठे , बोले ; समाज सेवा ही करनी है तो एन जी ओ वगैरह खोल लो, पोलिटिक्स में जाओ । अन्दर की हकीकत तो उसी दिन समझ में आई । अब दो-तीन सालों में तो लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की सारी परतें खुल कर सामने आ चुकी हैं । आज तो ये आलम है कि लोग खादी और खाकी के बाद सबसे ज्यादा हम मीडिया वालों से डरते हैं ।

आजादी के मिशन से प्रारम्भ हुई पत्रकारिता का चारित्रिक पतन हो चुका है । पत्रकारिता के गौरवपूर्ण अतीत को भूल कर हम बाजार की गोद जा बैठे जहाँ न्याय की देवी की भांति आंखों पर नोटों की हरियाली छा जाती है । अब तक आप सुधिजन पत्रकारिता पतन की विभिन्न गाथाओं का गान सुन चुके होंगे । लेकिन अभी तक इनका मिथकीय स्वरुप ही दृष्टिगत होता रहा है । मिथकीय इसलिए क्योंकि कभी न तो पत्रकारिता -जगत ने स्वीकार किया और न ही ऐसी बातें सबूतों के दम पर कही गई । इस चुनाव में पहली बार मीडिया की मुख्यधारा का बाजारू चरित्र खुलकर सामने आया और इसने तयशुदा पैकेज पर विज्ञापन को ख़बर बनाकर बेचने की मुहीम चलायी । मीडिया पर पैनी नजर रखने वाले प्रभाष जोशी लिखते है कि चुनाव की ख़बरों का काला धंधा अख़बारों ने कोई छुपते छुपाते नही किया बल्कि खुलेआम किया और बिना किसी शर्म और झिझक के । न तो इन्हे पैसे लेने में शर्म आई न ही ख़बर बेचने में लज्जा । कई समाचारपत्रों ने तो बाकायदा चुनाव कवरेज के रेट कार्ड भी छापा रखे थे ।भिन्न-भिन्न ख़बरों के लिए अलग-अलग तयशुदा राशियां ली गई । ये तो हुई चुनाव प्रचार के दौरान मीडिया कवरेज की बात लेकिन चुनाव परिणामो की घोषणा में जैसे ही कांग्रेस के बहुमत पाने की बात सामने आई मीडिया ने चीख चीख कर राहुल के युवा फैक्टर का गुणगान करना शुरू कर दिया परिणामो के सामने आते ही ग्राफिक्स के जरिये यह दिखाना शुरू कर दिया कि चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गाँधी के चरण जहाँ -जहाँ कांग्रेस को विजय श्री मिली । इस वाकये से यह स्पष्ट हो जाता है कि चुनाव प्रचार से चुनाव परिणाम आने तक वर्तमान” प्रायोजित मीडिया ” ने अपने नाम के अनुरूप कार्य करते हुए व्यक्तिगत महिमामंडन कर राहुल गाँधी को जन नेता साबित करने में कोई कसार नही छोड़ा । कुछ लोग तो यह भी कहते है कि म प्र में शिवराज सिंह चौहान के चुनावी केम्पेन हेतु तथाकथित स्वघोषित नैतिकतावादी पत्रकारों ने ४० करोड़ की मांग की जिसमे ८ करोड़ रूपये ही उन्हें मिले । पूरे पैसे न देने का खामियाजा भाजपा को अपनी जनाधार वाली सीटें गंवाकर चुकानी पड़ी । आगे इस तरह के अनेक किस्से या यु कहे की ख़बरों के पीछे की ख़बर उभरकर सामने आयेगी । नैतिकता के ठेकेदारों यह चरित्र वाकई लोकत्रांतिक ढाँचे के लिए खतरा बनकर सामने आया है । लोकतंत्र के वाच दोग की भूमिका निर्वाह करने वाले चौथे स्तम्भ का यूँ भरभराकर गिरना दुखद है । बाजार के इस नंगे नाच में कुछ लोग ऐसे भी है खनक रास न आई और शायद उन्ही लोगो के बदौलत मीडिया का यह घिनौना रूप आम लोगो के सामने आ सका । प्रभात ख़बर के हरिवंश नारायण ने तो बाकायदा मुख्य पृष्ट पर इस खेल का पर्दाफाश किया और इससे बचने के लिए हेल्पलाइन

 

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भी जारी किया । ऐसे लोगों से थोडी बहुत आशा बची हुयी है लेकिन चुनाव का यह कुम्भ संपन्न होने के हप्ते २ हप्ते बाद भी इन चीजो की चर्चा बड़े पैमाने पर अभी भी नजर नही आती है । ऐसा लगता है , देश के बौद्धिक वर्ग में एक बहुत बड़ा शून्य कायम हो गया है । आज के इस भौतिकवादी युग में सारे मूल्य आज बालू के भीत पर खड़े नजर आते है ।

प्रभाष जोशी तो मीडिया के इस गैर लोकतान्त्रिक मुनाफाखोरी को जनता के साथ धोखाधडी बताते हुए यहाँ तक कहते है कि इन्होने समाचार पत्र का काम छोड़ कर छापे खाने का काम किया है । जिसकी वजह से इनका रजिस्ट्रेशन रद्द कर इनको प्रिंटिंग प्रेस का पंजीयन देना चाहिए ।

वैसे तो यह वर्तमान मीडिया के दामन पर लगा एक छोटा सा दाग है । पत्रकारिता के पतितकारिता बन जाने के सन्दर्भ में घटित व संभावित अनगिनत पहलुओं पर आए दिन मंथन होता रहता है । और इस मंथन के फलस्वरूप यही परिणाम आता है किसबके मूल में बाजार ही है । आज पत्रकारिता के इस विद्रूप को देख बेचैन मन को लघुपत्रिकाओं से थोडी आस बंधती है । आख़िर पतितकारिता के पापों को धोने का कार्य तो यही मिशनरी लघुपत्रिकाएं कर रही हैं । संपूर्ण क्रांति आन्दोलन के सूत्रधार और जनसत्ता के पूर्व सम्पादक राम बहादुर राय कहते हैं ; “आरंभिक दिनों से अब तक अपने सफ़र मे इन पत्रिकाओं ने अपनी प्रासंगिकता को बनाये रखा है । एक अति महत्वपूर्ण बात इनके संबंध मे और कही जानी चाहिए कि विपरीत परिस्थितियों मे इनकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है । १९७५ मे आपातकाल के दौरान भी सरकार की अन्नायापूर्ण नीतियों का विरोध करते हुए कई लघु पत्रिकाओं ने एक मिशाल पेश किया था । हालाँकि पत्रकारिता की ये कड़ी भी कमजोर अवश्य हुई है। आज ऐसे संस्थानों की कमी होती जा रही है जो सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहकर पत्रकारिता को प्रोत्साहित करते है । ऐसे बाजारवादी युग मे भी हमारे लिए आशा की किरण बन कर आती है ये लघु पत्रिकाएं ।”