जुनून

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 मुझे बचपन से ही पढ़ने और लिखने का, जुनून था। मैं चाहता रहा था कि मैं लिखूँ, लोग मेरा लिखा पढ़ें और मानें कि मेरे पास एक वक्तव्य है और यह कि मुझे कहने का हुनर भी है। पर मैं ज़िन्दगी की जरुरी उलझनों में अपने इस जुनून को जाहिर करने में कामयाब नहीं हो पाया था, कसक रह गई थी। पढ़ना भी अपने पेशे से सम्बन्धित जानकारी जुटाने तक ही सीमित रह गया था। मैं अपने को उस ब्राह्मण की तरह महसूस करता था जिसकी पढ़ाई पुरोहिती करने के नमो नमो में सीमाबद्ध रह गई हो।अपने आपके प्रति अपराध-बोध से ग्रस्त थी मेरी चेतना। व्यर्थता का अहसास।
नौकरी से सेवानिवृत्ति के समय मैं पारिवारिक दायित्वों से भी मुक्त हो चुका था। इसलिएअब मेरा जुनून ही मेरी प्रासंगिकता और प्राथमिकता हो गई थी। जैसे ही मैंने लिखने पर अपने को केन्द्रित किया, तो पाया कि मेरी लिखावट काफीअस्पष्ट होती जा रही है। मेरी लिखावट पढ़ना सहज नहीं है। मैं हताश हो गया था।

तभी छःमहीनों के लिए पटना अपने छोटे बेटे के साथ रहने जाना हुआ हमारा। इस यात्रा ने घटनाओं का एक ऐसे सिलसिले की शुरुआत की जो मेरे लिए सार्थकता का आशीर्वाद हो गया। वहाँ बेटी भी उस समय रहती थी . उसने मुझे कम्प्यूटर की ओर खींचा। उसने कहा, कि आप तो लिखा करते हैं। इसमें यह खूबी है कि आपका लिखा हुआ सुरक्षित ही नहीं रहेगा , उसमें आप कहीं कहीं से जब कभी जोड़ या हटा या बदल सकते हैं। उसने ही कम्य्यूटर की प्रारम्भिक चरणो से मुझे परिचित किया। मेल भेजना भी सिखाया। अब मुझे भी दिलचस्पी होने लगी। बन्द दरवाजा खुल गया हो जैसे। मैं सेवानिवृत्त और संगी विहीन था। मेरे पास समय और अवसर भी थे। । फिर हम चण्डीगढ़ आ गए।
इसी बीच अपु ने बांग्ला के कवि जय गोस्वामी की कविताओं का हिन्दी अनुवाद करने को कहा। मैं जय गोस्वामी की कविताओं के विशिष्टता को समझना चाहता था। इसलिए अपने निकट के फ्लैट में रहनेवाली डॉक्टर सुष्मिता चक्रवर्ती से बात की। डॉ सुष्मिता को साहित्य से गहरा लगाव है। वे एक व्यक्ति के साथ एक दिन आई, और उनका परिचय देते हुए कहा कि जय गोस्वामी की विशिष्टता के बारे में आप इनसे जानिए। वे पंजाब विश्वविद्यालय के रसायन शास्त्र विभाग के प्रोफेसर हरजिन्दर सिंह लाल्टु थे। हिन्दी, बांग्ला,पंजाबी और अंगरेजी साहित्य में विचरण करनेवाले व्यक्ति। लाल्टु ने अपने सहकर्मी बौद्ध अध्ययन सह तिब्बती भाषा के प्राध्यापक डॉ विजय कमार सिंह से परिचय कराया और उसके बाद डॉ वी.के सिंह के साथनियमित सम्पर्क बन गया। इस सम्पर्क ने मुझे कम्प्यूटर में लिखने और इण्टरनेट का उपयोग करने का आत्मविश्वास दिया। इस तरह मैं अपनी लिखावट के अपाठ्य होने की असुविधा से मुक्त हो गया। अब तो मैं कलम पकड़ नहीं पाता, पर कम्प्यूटर के उपयोग से सुगमतापूर्वक पन्ने पर पन्ना लिखा करता हूँ। एक अन्य सम्पर्क भी मुझे सशक्त और समर्थ करनेवाला कायम हुआ। वह है श्री बलदेव पांडे और श्री राजशेखर के साथ का सम्पर्क। बलदेव मुझे संगठित ऊर्जा के एक असामान्य युवा लगे. जिसे ऊर्जा चैन नहीं लेने देती है। दिशा तथा लक्ष्य की तलाश में बेचैन। राजशेखर को रामकृष्ण मिशन के संस्कार से मण्डित, ठाकुर के आशीर्वाद से प्रेरित, स्नेह,सम्मान कर पाने में सक्षम ।
तभी मुेरा छः महीनों के लिए पटना जा हुआ। वहाँ बेटी कम्युटर पर काम करती थी। कम्प्युटर तो चण्डीगढ़ में भी था। पर मेरे मन में उसके प्रति कोई आकर्षण उत्पन्न नहीं हुआ था। यहाँ बेटी ने मुझे बताया कि कम्युटर पर मैं सहजता और दक्षता के साथ लिख सकता हूँ। उसने मुझे मेल लिखना और भेजना भी सिखाया। मुझे बताया कि हिन्दी में भी लिखा जा सकता है। उस वक्त हिन्दी के लिए यूनिकोड उपलब्ध नहीं था कई एक स्वतन्त्र सॉफ्टवेयर उपलब्ध थे। उनके उपयोग की पद्धति के लिए प्रशिक्षण की जरुरत थी। तभी मुझे अपने जुनून को पूरा करने के प्रति अवसर मिलने की सम्भावना का आश्वासन मिला। चण्डीगढ़ लौटने पर अब कम्प्यूटर के प्रति मेरा आग्रह प्रबल हो गया था। अवसर भी उपलब्ध था।
यह सब इतनी सहजता से होता गया कि मेरा जुनून बढ़ता ही गया। एक और इत्तेफाक इस शृंखला में जुड़ा। डॉ शंकरनाथ झा( बच्चू) ने बातों बातों में अपने लेखन का जिक्र किया। तो मैंने प्रस्ताव दिया कि मैं अपने कम्प्यूटर पर टाइप कर पाण्डुलिपि प्रस्तुत करने में सहायता कर सकता हूँ। फिर हमारी सहयात्रा की शुरुआत हुई.। वे लिखते रहे और मैं टाइप करने के लिए सामग्री पाता रहा। साथ साथ मैं अपना लेखन भी करता गया। उस समय उपलब्ध हिन्दी के विभिन्न सॉफ्टवेयर पर लिखना मेरे लिए सहज होता गया। इस बीच हिन्दी का यूनिकोड विकसित हुआ और उसमें काम करना सहज होता गया। इण्टरनेट,wifi (वायफाय) सहज रुप से उपलब्ध हो गए, होते गए।
I was excited to use e mail service. It opened access to known and unknown persons. Came to know about digital publications from these mails. I sent my articles for publication to a few of them.More than one editors showed interest. The articles began to be accepted and published. The
वेब पत्रिकाओं की जानकारी मिली, कुछ से सम्पर्क हुआ। मैंने अपनी रचनाएँ उन्हें भेजी। कई पत्रिकाओं में मेरी रचनाएँ स्वीकृत और प्रकाशित होने लगीं। एकाधिक सम्पादकों ने दिलचस्पी दिखलाई। मुझे स्वीकृति की उपलब्धि हुई। लिखना अधिक सार्थक लगने लगा। कुछ पाठकों ने भी सम्पर्क किया। बहुत लिखा, अपनी जीवन-यात्रा का खाका भी लिखा. अपने लिखे का अनेक पाठकों द्वारा पढ़े और पसन्द किए जाने की जानकारी मिलती रही।.इतना ही तो मैंने चाहा था। इसके साथ ही इस सवाल का जवाब मिल गया कि क्या मेरे पास कहने को कुछ है और क्या मेरे पास उन बातों को प्रस्तुत करने का हुनर है।
लिखने के साथ साथ पढ़ने के सुयोग भी मुझे मिलते गए। बब्बू, अपु और बेटी तीनो के ही जरिए मुझे किताबें मिलती रही जिन्होने मुझे सवाल करनेऔर पुराने सवालों के जवाब हासिल करने के लिए प्रेरित किया। डॉ पूरबी मण्डल ने बांग्ला साहित्य और राजशेखर ने अपने शिक्षक-गुरु समर्पण की रचनाओं के बहाने आध्यात्मिक चर्चा की ओर मुझे प्रवृत्त किया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीत मेरे लिए सम्बल से हो गए। नौकरी और पारिवारिक दायित्वों से मुक्त होने के साथ प्रासंगिकताहीन से जन्मी खालीपन को भरने में इनकी भूमिका के प्रति कृतज्ञता से मन भरा रहता है। अन्त में फेसबुक का धन्यवाद.। फेसबुक से जुड़े होने से मैं व्यापक समाज में अपनी उपस्थिति की स्वीकृति महसूस कर पाता हूँ। अन्त में, इस उक्ति का ध्यान आ ही जाता है- जब हम किसी चीज की कामना अन्तर से करते हैं, सारी सृष्टि उसे पूरा करने के लिए साजिश करने लग जाती है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के एक गीत की पंक्ति आमाय जागिये राखो, आमि तोमाय गान शोनाबो।

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