कहो कौन्तेय-६१

विपिन किशोर सिन्हा

(श्रीकृष्ण का गीतोपदेश एवं अर्जुन का मोह-भंग)

मैं पारिवारिक स्नेह के मिथ्या शोक से अभिभूत था। श्रीकृष्ण ने पल के शतांश में ही मेरा भाव ताड़ लिया। अब वे हंस रहे थे। अपने मधुर स्वरों पर स्नेह का अतिरिक्त लेप लगा बोलने लगे –

“हे पार्थ! तुम पाण्डित्यपूर्ण वचन तो कह रहे हो लेकिन शोक उनके लिए कर रहे हो जो शोक करने योग्य नहीं हैं। ज्ञानी पुरुष न तो जीवित के लिए और न ही मृत के लिए शोक करते हैं।

जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा वर्तमान शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होती है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर, आत्मा दूसरे शरीर में चली जाती है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से विचलित नहीं होता, मोह को प्राप्त नहीं होता।

आत्मा के लिए किसी भी काल में, न जन्म है, न मृत्यु। वह अजन्मा, नित्य शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी वह मरती नहीं।

जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर, नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग, नवीन भौतिक शरीर धारण करती है।

किन्तु तुम यदि यह सोचते हो को आत्मा सदा जन्म लेती है तथा सदा मरती है, तो भी हे महाबाहु! तुम्हारे शोक करने का कोई कारण नहीं है।

जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है। अतः अपने अपरिहार्य कर्त्तव्य-पालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।

हे गुडाकेश! वे क्षत्रिय सुखी हैं जिन्हें ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं। उनके लिए स्वर्ग लोक के द्वार अपने आप खुल जाते हैं।

यदि तुम युद्ध करने के स्वधर्म को संपन्न नहीं करते हो, तो तुम्हें निश्चित रूप से अपने कर्त्तव्य की उपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम योद्धा के रूप में अपना यश खो बैठोगे।

लोक में सदा तुम्हारे अपयश का वर्णन होगा। सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश मत्यु से भी बढ़कर है।

जिन-जिन महान योद्धाओं ने तुम्हारे नाम तथा यश को सम्मान दिया है, वे सोचेंगे कि तुमने भयग्रस्त हो युद्धभूमि छोड़ दी है। वे तुझे तुच्छ और कायर मानेंगे।

तुम्हारे शत्रु अनेक प्रकार के कटु वचनों से तुम्हारा तिरस्कार करेंगे और तुम्हारी सामर्थ्य का उपहास करेंगे। तुम्हारे लिए इससे कष्टप्रद और क्या हो सकता है?

हे पार्थ! यदि तुम युद्ध में मारे जाओगे, तो स्वर्ग प्राप्त करोगे और यदि तुम जीत जाते हो, तो पृथ्वी के साम्राज्य का भोग करोगे। अतः दृढ़ संपल्प के साथ खड़े होवो और युद्ध करो।

तुम सुख या दुख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किए बिना युद्ध के लिए युद्ध करो। ऐसा करने पर तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा।

तुम्हें अपने कर्म का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आप को अपने कर्मों के फल का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होवो।

हे फाल्गुनी। जैसे सर्वत्र बाढ़ आने पर कूप का कोई मूल्य नहीं रहता, वैसे ही ज्ञान की प्राप्ति होने पर कर्मकाण्ड का कोई मूल्य नहीं रह जाता।

अब मैं धीरे-धीरे सामान्य स्थिति की ओर बढ़ रहा था। श्रीकृष्ण के अमृत वचनों को सुन असमंजस से उबर रहा था, तभी उन्होंने कर्मकाण्ड पर ज्ञान को वरीयता देकर फिर मेरी उलझन बढ़ा दी। युद्ध से विरत होने की कोई तर्कपूर्ण युक्ति सोचने लगा, उनसे पुनः प्रश्न किया –

“हे जनार्दन! हे केशव! यदि आप ज्ञान को सकाम कर्म से श्रेष्ठ समझते हैं, तो फिर मुझे इस घोर युद्ध में क्यों प्रवृत्त करना चाहते हैं?”

मेरी चतुराई को क्षण भर में वे भांप गए। मेरा भ्रमित और उदास मुखमण्डल देखकर एक मोहक मुस्कान के साथ मेरी ओर दृष्टिपात किया। मेरी आंखों की गहराइयों में झांककर अपनी अमर वाणी में कहा –

“हे निष्पाप अर्जुन! किसी भी कार्य को आरंभ न करने का अर्थ यह नहीं कि उससे छुटकारा मिल गया। कर्म का त्याग करने से सिद्धि प्राप्त नहीं होती। कोई भी मनुष्य कर्म किए बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। प्रकृति प्रत्येक प्राणी को हर क्षण कोई-न-कोई कर्म करने पर विवश कर देती है। जो उपर से पंचेन्द्रियों को समेट कर मन-ही-मन विषय भोगों का चिन्तन करता है, उसको ढोंगी कहते हैं, दंभी कहते हैं। हे पार्थ! जो पंचेन्द्रियों के कार्य का ज्ञान प्राप्त करके अनासक्त बुद्धि से उनको निरन्तर कार्यरत रखता है, उसकी योग्यता विशेष होती है। हे गुडाकेश! इस पृथ्वी पर इस विशेष योग्यता से संपन्न मेरे अतिरिक्त कोई एक पुरुष और है, तो वह तुम हो। तुम युद्धभूमि में खड़े हो। यहां संशय का कोई स्थान नहीं। अतः दृढ़ इच्छशक्ति के साथ अपने स्थान पर बैठो और क्षत्रियों के लिए निर्धारित कर्म – युद्ध करो।”

मेरा मन अब स्थिर होने लगा था। श्रीकृष्ण ने मुझे कर्मयोग के अज्ञात रहस्यों से परिचित कराया था। मेरी ज्ञान पिपासा बढती ही जा रही थी। मैंने अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए अनेक प्रश्न किए और उस युग-पुरुष ने अत्यन्त धैर्य के साथ सबका समाधान किया। ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग, पुरुषोत्तम योग की अत्यन्त सुन्दर विशद व्याख्या की, मुझे भगवद्ज्ञान दिया। मेरी समस्त शंकाओं को सदा के लिए दूर करने हेतु अपने विराट रूप के दर्शन भी दिए।

उनके अर्थपूर्ण वचनों के साथ मेरे विवेक पर पड़ी अज्ञानता की परतें, एक-एक कर हटती गईं। मेरे शरीर का कंपन दूर हो गया। अपने सारे प्रश्नों के उत्तर पा, मैं संतुष्ट हो चुका था। उन्होंने मेरे भीतर के क्षत्रिय को झिंझोड़ दिया। मेरा मुखमण्डल पूर्व की भांति दमकने लगा। पैरों के पास पड़े अपने गाण्डीव को निश्चयपूर्वक उठाते हुए मैंने कहा –

“हे अच्युत! आपके उपदेश से मेरा मोह पूर्णतः नष्ट हो गया। मुझे अपने कर्त्तव्य-धर्म का ज्ञान प्राप्त हुआ है। अब पूरी तरह से निःशंक हुआ मैं। मैं आपकी इच्छा के अनुसार युद्ध करूंगा।”

श्रीकृष्ण का मुखमण्डल दीप्त हो उठा। उन्होंने अपना शुभ्र धवल पांचजन्य निकाला, गगन की ओर सिर उन्नत कर, कमल नयनों को मूंद, पूरी प्राण शक्ति से उसे फूंका। पितामह भीष्म ने भी अग्रस्थान पर खड़े हो अपना गंगनाभ शंख फूंका। मैंने भी नेत्र बंदकर, मां कुन्ती का समरण किया और पूरी शक्ति से देवदत्त शंख को फूंका। सभी योद्धाओं ने शंखध्वनि की। लेकिन यह क्या? महाराज युधिष्ठिर ने बिना फूंके ही अपना शंख रथ पर रख दिया, कवच उतार दिया। तूणीर और धनुष भी रथ के पार्श्व भाग में रख दिए। वे नंगे पैरों कौरव सेना की ओर बढ़ रहे थे। कुछ सोचने का अवसर नहीं था। शीघ्रता से भीमसेन और मेरे साथ नकुल-सहदेव ने भी उनका अनुसरण किया। मुझे डर लग रहा था कि मेरी तरह वे भी कही मोहग्रस्त तो नहीं हो गए। श्रीकृष्ण और अन्य राजाओं ने उन्हें सुरक्षा घेरे में लिया। हम सभी भ्राताओं ने व्याकुल होकर उनसे पूछा –

“राजन! शत्रुपक्ष के सैनिक कवच धारण कर युद्ध के लिए तैयार खड़े हैं। ऐसी अवस्था में आप हम सभी को छोड़कर कहां जाना चाहते हैं? हमारे हृदय में भय का संचार हो रहा है। कृपया हमारी शंका का समाधान कीजिए।”

युधिष्ठिर कुछ नहीं बोले। सिर्फ अपने पीछे-पीछे आने का संकेत दिया। श्रीकृष्ण उनका अभिप्राय समझ गए। हमारी शंका का समाधान चलते-चलते उन्होंने ही किया –

“महाराज युधिष्ठिर गुरुजनों की आज्ञा लिए बिना युद्ध नहीं कर सकते। वे पितामह, द्रोण, कृप, शल्यादि गुरुजनों से युद्ध की आज्ञा लेंगे और विजय के लिए आशीर्वाद भी प्राप्त करेंगे। हम सभी को इनका अनुसरण करना चाहिए।”

ऐसा ही हुआ। शत्रुओं की सेना के बीच से होकर वे सबसे पहले पितामह के पास पहुंचे। हम सभी उनके साथ थे। सबने बारी-बारी से पितामह के चरण-स्पर्श किए। युधिष्ठिर ने श्रद्धा से प्रणाम करते हुए निवेदन किया –

“अजेय पितामह! मेरा शत-शत नमन स्वीकार करें। सत्य और न्याय की रक्षा हेतु अन्तिम विकल्प के रूप में, महासमर स्वीकार कर, मुझे आपके सामने युद्ध के लिए खड़ा होना पड़ा है। बिना आपकी आज्ञा के हम आपके साथ युद्ध नहीं कर सकते। हमें युद्ध की आज्ञा दीजिए और साथ ही आशीर्वाद देने की कृपा भी कीजिए।”

पितामह की आंखों से आंसू के दो बूंद लुढ़क ही गए। शीघ्र ही स्वयं को संयत किया और बोले –

“मेरा मन तुम्हारे साथ है और शरीर दुर्योधन के साथ। मैं चाहकर भी इस महासमर को रोक नहीं पाया। राजन! यह पुरुष अर्थ का दास है। अर्थ किसी का भी दास नहीं। इस अर्थ से कौरवों ने मुझे बांध रखा है और मैं नपुंसकों जैसी बातें कर रहा हूं। युद्ध तो मुझे कौरवों की ओर से ही करना पड़ेगा लेकिन हृदय के अन्तस्तल से तुम्हारी विजय की कामना करूंगा।

पुत्र! तुम चिरंजीवी हो, तुम्हारी जय हो, तुम्हारी समस्त इच्छाएं पूर्ण हों, वृद्ध पितामह का यही आशीर्वाद है।”

पितामह को सिर घुमाकर उत्तरीय से आंसू पोंछते हम सबने देखा।

हम बारी-बारी से गुरु द्रोण, आचार्य कृप और मातुल शल्य के रथ के पास भी गए। उनकी चरण-वंदना कर उनसे भी युद्ध की आज्ञा ली।

सभी ने हमें विजयी होने के आशीर्वाद दिए।

मैं अग्रज युधिष्ठिर की विनम्रता के आगे नतमस्तक था। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपना मूल स्वभाव वे कभी नहीं छोड़ते थे। राजनीति के भी वे कुशल खिलाड़ी थे। सभी गुरुजनों से चिरंजीवी और विजयी होने के आशीर्वाद हम प्राप्त कर चुके थे। अब इतना तो निश्चित ही था कि जिन कण्ठों ने हमें चिरंजीवी होने का आशीर्वाद दिया था, उनके बाण हमारे कण्ठों पर प्राणघातक प्रहार नहीं कर सकते थे।

क्रमशः

 

2 COMMENTS

  1. भीष्म पितामह के शंख का नाम गंगनाभ है अथवा सिंहनाद ।। मार्गदर्शन करें।

    • महाभारत में भीष्म पितामह के शंख के नाम का उल्लेख नहीं है, परन्तु शिवाजी सावंत द्वारा रचित `मृत्युंजय’ में उनके शंख का नाम `गंगानाभ’ दिया गया है. मैंने यह नाम उसी पुस्तक से लिया है.

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