
—विनय कुमार विनायक
ये ऐतिहासिक गाथा,कलचुरी हैहय यदुवंशी क्षत्रियों की,
चन्द्र, बुध,पुरुरवा,आयु, नहुष,ययाति, यदु, हैहयवंश की,
सोम शीतलम्,बुद्ध पूर्व,आयुष्मान,ययातिवंशी यादों की!
ये सच है कि इस भू की जो चीजें धरा में उपलब्ध है,
उसकी नाश कभी नहीं होती, चाहे वो धन हो या वंश,
न जाने कितनी बार यहां आए राम-रावण, कृष्ण-कंश!
जमाना लाख बुरा चाहे,किसी का यहां बुरा होता नहीं,
तुम मारो किसी वंश,जाति या विचार को हथियार से,
वो मरते नहीं कभी,किसी के चाहने भर से या डर से!
कहने को यह कहा गया है, कि किसी वंश-जाति को,
मारना हो तो उनका इतिहास बिगाड़ दो और मार दो,
मगर काल का चक्र घूमता, कहता बिगड़ी सुधार लो!
‘हैहयानां पंच कुला:’शौण्डिक एक हैहयवंशी क्षत्रिय था,
जो अत्रि ऋषिपुत्र चन्द्र के वंशज सहस्त्रार्जुन का पौत्र,
दत्तात्रेय के पाशुपत पंथ का अनुयायी शिव भक्त था!
शौण्डिक गण महाभारत युद्ध कौरव पक्ष से लड़ा था,
संशप्तक योद्धा बनकर अर्जुन के सामने आ खड़ा था,
‘ब्राह्मणां अमर्षनात्’ क्षत्रिय से वृषलत्व को पाया था!
पाशुपतपंथी कलचुरी राजपूत बन फिर उभर आया था,
शौण्डिकेरा,तुण्डिकेरा,कुण्डिकेरा कुण्डिनपुर के हैहयों ने,
दो सौ अडतालीस ईस्वी में कलचुरी संवत् चलाया था!
पांच सितंबर 248 ई., वि.सं. 306 का पहला आश्विन,
कलचुरी इन्द्रदत्तपुत्र दह्यसेन हुआ था चेदि में आसीन!
चेदि है जबलपुर जहां जाबालिपुत्र सत्यकाम आश्रम था!
कलचुरी सहस्त्रार्जुनवंशी त्रैकुटक की राजधानी त्रिपुरी;
तेवर में बैठा दह्यसेन पुत्र ब्याघ्रसेन, फिर जयनाथ!
आगे कोकल्लदेव 850ई.में, महानृप बनके आया था!
कोकल्लदेव कलचुरी ने त्रिपुरी में राजधानी बसाया था,
ईस्वी स. 850 से 890 तक कोकल्लदेव ने राज किया,
महोबा के श्रीहर्ष चंदेलपुत्री नट्टा से विवाह रचा लिया!
कोकल्लदेव धर्मात्मा,दानी,शास्त्रवेत्ता, परोपकारी राजा थे,
भोज,बल्लभराज,श्रीहर्ष, शंकरगण को निर्भय करने वाले!
कोकल्लदेव के अठारह पुत्रों में मुग्धतुंग उतराधिकारी थे!
मुग्धतुंग पुत्र बालहर्ष और केयूरवर्ष युवराज गद्दी पे बैठे,
बालहर्ष का उत्तराधिकारी,उनके अनुज केयूरवर्ष युवराज थे,
इनकी रानी नोहला ने नोहलेश्वर शिवमन्दिर बनवाई थी!
युवराजदेव पुत्र लक्ष्मण ने वैद्यनाथ मठ पे ह्रदयशिव व
नोहलेश्वर मठ पर उनके शिष्य अघोरशिव को बैठाए थे,
लक्ष्मण ने पश्चिम विजयकर,कोशल व औण्ड्र को जीते!
औण्ड्र राजा से जीत में मिली स्वर्ण कालिया नाग मूर्ति,
दक्षिण समुद्र में पूजनकर सोमनाथ को अर्पित किए थे,
लक्ष्मण ने बिल्हारी में लक्ष्मणसागर तालाब बनवाए थे!
लक्ष्मण के पुत्र शंकरगण और युवराज देव द्वितीय थे,
युवराजदेवपुत्र कोकल्ल दूसरे औ’उनके पुत्र गांगेयदेव हुए,
गांगेयदेव ने सोने, चांदी और तांबे के सिक्के चलवाए!
गांगेयदेव ने चंदेलों से,कालिंजर का किला जीत लिए थे,
कालिंजराधिपति कहलाए, उड़िया व बंगाल को पछाड़े थे,
1041ई. में अक्षयवट प्रयाग में रानियों संग मोक्ष पाए!
अरब विद्वान अलबरुनी दस सौ तीस में डाहल आए थे
औ’ गांगेयदेव की राजव्यवस्था की भूरी-भूरी प्रशंसा की,
कालिंजर के चंदेलों ने गांगेयदेव को जगत विजेता लिखे!
गांगेयदेव राज्य विस्तारकर,विक्रमादित्य विरुदधारी बने थे,
उनके उत्तराधिकारी महादानी काशीराज कर्णदेव कलचुरी थे,
कर्णदेव ने कर्णावती नगरी बसाई मध्यप्रदेश कारीतलाई में!
कर्णदेव महान शासक थे काशी का कर्णमेरु मंदिर बनवाए,
कर्णदेव के भेड़ाघाट अभिलेख में उत्कीर्ण उनकी विरुदावली,
उनके विक्रम से कलिंग कांप उठा, पाण्ड्य ने उग्रता छोड़ी!
कर्णदेव के काल में महमूद गजनवी ने आक्रमण किया था
और दक्षिण से तमिल शासक राजेंद्र चोल ने पूर्व क्षेत्र घेरा,
राजेन्द्र चोल ने तंजोर से बंगाल,पांड्य,केरल, कलिंग जीता!
तमिल दल प्रधान राजेंद्र चोल अतिमहत्वाकांक्षी शासक थे,
पूर्वी भारत विजेता,जंगी बेड़ा ले मलाया,जावा,सुमात्रा जीते,
ऐसी विकट स्थिति में मध्यदेश में मालवा,चेदि बढ़ रहे थे!
उन दिनों मालवा में राजा भोज और चेदि में गांगेयदेव थे,
गांगेयदेव के पुत्र कर्णदेव सिंह कलचुरी सिंहासनारुढ़ होकर,
किया धनुष टंकार, चंदेल-महमूद-राजेंद्र चोल पे किया वार!
उन राजाओं को अशक्त कर कर्ण ने मगध पे किया प्रहार,
इस समय तक महमूद और राजेंद्र चोल स्वर्ग गए सिधार,
महिपाल पुत्र नयपाल को करद बना,किया संबंधी स्वीकार!
फिर कर्णदेव दक्षिणाभिमुख हुए, चोल से युद्ध करने गए,
पांड्य और मुरल पर बरस पड़ी कर्णदेव सिंह की तलवार,
गुर्जर,हूण हेकड़ी भूले,कुंग,बंग,कलिंग ने किए हार स्वीकार!
त्रिपुरी के साथ उत्तर भारत में काशी बनी दूजा राजधानी,
बारह वर्षों तक कर्ण ने असि से चारों दिशाएं जीत लिए,
थानेश्वर,हांसी,नगरकोट मुसलमानी आतंक से मुक्त हुए!
किम्बदंती;’कर्ण डहरिया कर्ण जुझार,कर्ण हांक जानै संसार’
कर्ण की सेना डाहल मंडल से, चारों तरफ भारत में फैली,
छत्तीसगढ़ से झारखण्ड के कर्णटांड़/कर्माटांड़,कर्णग्राम तक!
कर्णग्राम यानि कैरोग्राम में कर्णेश्वर महादेव कर्ण स्थापित,
काशी में कर्णमेरु, विश्वनाथ,झारखंड में कर्णेश्वर, वैद्यनाथ
के उपासक कर्णदेव सिंह कलचुरी महादानी,राजा महान थे!
कर्णदेवसिंह 1041 ई में त्रिपुरी सिंहासन पे आसीन हुए थे,
मैथिली-अंगिका-बंगला-उड़िया कवि विद्यापति दरबारी उनके,
कर्ण व हूंणपुत्री आवल्लदेवी पुत्र; यश:कर्ण उत्तराधिकारी थे!
कर्णदेव का अवसान ईस्वी सन् ग्यारह सौ बाईस में हुआ,
त्रिपुरी की गद्दी पर कर्ण पुत्र यश:कर्ण का अभिषेक हुआ,
यश:कर्णदेव का उत्तराधिकारी नरसिंह देव कलचुरी हुए थे!
नरसिंहकन्या कर्पूरदेवी की शादी सोमेश्वर चौहान से हुई,
कर्पूरदेवी के लाल थे मु.गोरी के विजेता पृथ्वीराज चौहान,
पृथ्वीराज महावीर थे जिसे मु.गोरी ने छल से मार दिया!
कलचुरी की भाग्य लक्ष्मी अब वाम होने चली नरसिंह से,
जयसिंहदेव, फिर विजयसिंहदेव, फिर अजयसिंहदेव आए,
किन्तु हैहयवंशी कलचुरी की, त्रिपुरी सत्ता सिमटती जाए!
महाभारत कालीन कर्ण से भी कलचुरी कर्ण बड़े दानी थे,
हरबोले बसुदेवा भिक्षुक ने कर्ण दानी की विरुदावली गाई,
“राजा करण बड़ दानी भए कि हर गंगा।
सवा पहर मन सोनो देंय कि हरगंगा।।
सोन काट नरियर में देंय कि हर गंगा
रानी करे खिचराहा दान की हरगंगा।।
बेटा करें गौवों का दान कि हरगंगा।
बहू करें वस्तर का दान कि हरगंगा।।
कर कन्या मोतिन का दान कि हरगंगा।
धरम धुजा द्वारे फहराय कि हरगंगा।।“
एक बार भगवान ने कलचुरी कर्ण दानी की परीक्षा ली,
तपी वेशधारी देव ने एक बालक से कर्ण का पता पूछे,
बालक ने कहा ‘‘कौन करण का पूछो नाव कि हरगंगा।
एक करण चेदि का नाव कि हरगंगा।।
दूजो करण पंडित का नाव कि हरगंगा।
तीजे करण कलवारो नाव कि हरगंगा।।
और करण राजन का नाव कि हरगंगा।“
तब तपस्वी बोला हमें दानी करण,चेदि करण दिखाओ,
हम कलचुरी करण से मिलना चाहते,राजा से मिले वो,
राजा से मिलकर तपी ने कहा पुत्र का मांस खिलाओ!!
दानी कर्ण कलचुरी कर्ण ने अपने बालक को काटकर,
रानी ने मांस पकाके तपी के सामने रख दी परोसकर,
कौर उठाकर ज्यों लिन्हा,भगवान प्रकट हो वर दीन्हा,
‘‘दिशा दिशा कर टेरे गए कि हरगंगा।
तब पिता पिता कर मिलगे आय कि हरगंगा।।“
कर्णदेव या लक्ष्मीकर्ण देश के शक्तिशाली शासक थे,
कला, साहित्य औ’ संस्कृति रक्षक कर्ण के दरवार में
विद्यापति, गंगाधर, बिल्हण कवि थे, कर्ण दरबार में!
कर्ण को हिन्दू नेपोलियन कहा जाता,उन्होंने चौरासी
तालाब बनवाए जबलपुर में, अपनी मां के तर्पण को,
जो कर्णदेव को जन्म देकर स्वर्ग को सिधार गई थी!
कर्णदेव ने ढेरों मंदिर बनवाए और ब्राह्मणों को दिए,
अमर कंटक में मंदिर समूह,पंच मठ,कर्ण, शिवमंदिर,
जोहिला नदी मंदिर,पातालेश्वर शिवालय और पुष्करी!
—विनय कुमार विनायक