अक्श बिखरा पड़ा है आईने में
मैं जुड़ने कि आस लिए फिरता हूँ
कदम तलाशते कुछ जमीं
हाथों पर आकाश लिए फिरता हूँ
कठोर हकीक़त है है मेरा आज
कल खोया विस्वास लिए फिरता हूँ
कदम उठते पर पूछते कुछ सवाल
क़दमों का उपहास लिए फिरता हूँ
कामयाबियां खुशी नहीं दे पाती
ऐसी कमी का आभास लिए फिरता हूँ
जाने यह कैसी जुस्तजू है
जाने कैसी प्यास लिए फिरता हूँ ?
कनिष्क कश्यप जी
आज पता चला ,आप तो छुपे रुस्तम निकले …
कामयाबियां खुशी नहीं दे पाती
ऐसी कमी का आभास लिए फिरता हूँ
जाने यह कैसी जुस्तजू है
जाने कैसी प्यास लिए फिरता हूँ ?
अच्छे भाव-शिल्प की सुंदर कविता केलिए आभार ! बधाई ! मंगलकामनाएं !
बधाई और शुभकामनाओं सहित…
– राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत अच्छा लिखा है आपने…..
कदम तलाशते कुछ जमीम पर
हाथों मे आकाश लिये फिरता हूँ
लाजवाब सुन्दर आभार्