कपोत ए खत

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ये दिन अब रंज सा लग रहा है
अहोरात्र तुम्हारी नालिश कर रहा है
मेरे भेजे कपोत का खत तुम्हे मिला क्या ?
तुम मुझसे खफा क्यों हो
अब उसपे ए’तिबार भी करो
नही इलावा कोई और तुम्हारे
मेरे उर को अब इल्तिफ़ात करो
सुन रही हो न तुम !
कही तुमने उसे गरल तो नही दिया
हर घूंट को उदक समझ पीया
मुझे बिन तुम्हारे बेकरार कर तुम्हें
तवज्जोह वफ़ा का मिला क्या ?
मेरे जराहत अब भर नही रहे
तुम छूकर उसे इक्तिफ़ा कर दो
मैं ठहरा नावाकिफ मुझसे मुख्तलिफ न हो
मेरे उर में वफ़ा की पेशकब्ज से आघात न करो
कही तुम्हारी काया भी हिज्र में राख न हो
मैं जा रहा हु मेरे कपोत को लिए
तुम कही और सराय बना रही
श्लोक की उल्फ़त को बातिल सा बता रही
तुमने मुझे छतिग्रस्त करके माना
लिए मृतचैल मेरी बे-मुरव्वत
वापिस आगार को जाना

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