डिफाल्टर कारपोरेटस ने किया बैंकों का बेड़ागड़क

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private banksनफा और नुकसान को किसी भी बिजनेस का अहम हिस्सा माना गया है।  बैंकिंग बिजनेस को भी इसी नजरिए से देखा जा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में एनपीए (गैर निष्पादित परिसंपत्ति) को नुकसान का प्रर्याय माना जा सकता है। इस दृष्टिकोण से एनपीए के मुद्दे पर बैंकों को ज्यादा हाय-तौबा नहीं मचाना चाहिए, लेकिन इस संदर्भ में मामला इतना सीधा नहीं है। इसे पेचीदा इसलिए माना जा रहा है, क्योंकि बैंकों का पैसा नहीं लौटाने वालों में कारपोरेटस या बड़े उधोगपत्तियों की संख्या ज्यादा है। माना यह जा रहा है कि सरकार का वरहदस्त प्राप्त होने के कारण इनके मनोबल में बीते सालों में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। बानगी के तौर पर देखिए, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए स्तर मार्च, 2011 में 71080 करोड़ रुपया था, जो दिसबंर, 2012 में बढ़कर 1.55 लाख करोड़ रुपया हो गया, जिसमें से कारपोरेटस का हिस्सा 53.68 करोड़ था। मौजूदा समय में 172 कंपनियाँ ऐसी हैं, जिनपर बैंकों का 100 करोड़ या उससे उपर की राशि एनपीए के रुप में फंसी है। एक अनुमान के अनुसार बैंकों की तकरीबन 37194 करोड़ रुपये कारपोरेटस के पास बकाया हैं, जिसकी वसूली संदिग्ध है। कारपोरेटस के संदर्भ में एनपीए स्तर में हो रहे लगातार बढ़ोतरी को मद्देनजर रखते हुए हाल ही में बैंकों के प्रमुखों को संबोधित करते हुए वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने उन्हें ताकीद किया कि कंपनियों के अमीर मालिकों से एनपीए की राशि वसूलने में वे तेजी लायें।

एक विष्लेषण के मुताबिक बैंकों के द्वारा दिये गये कुल कर्ज में से दो तिहार्इ ऋण का हिस्सा 1200 कंपनियों को दिया गया है। इसके बरक्स चिंता की बात यह है कि इन कंपनियों का बाजार पूंजीकरण कर्ज की राशि से आधी या बहुत ही कम है। इस मामले में 10 निजी समूहों को दिये गये कर्ज का प्रतिषत 21.6 है। इस श्रेणी की कंपनियों में जेपी समूह, एडीएजी समूह, एस्सार, अदाणी समूह, इंडियाबुल्स, जीवीके, वीडियोकान आदि जैसे बड़े नाम शामिल हैं। इसी क्रम में ध्यान देने वाली बात यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कुछ कंपनियाँ, मसलन-भारत पेट्रोलियम, इंडियन आयल कार्पोरेशन, एमटीएनएल, पावर गि्रड कार्पोरेशन, एमएमटीसी और शिपिंग कार्पोरेशन आफ इंडिया का भी बाजार पूंजीकरण बैंकों द्वारा प्रदत्त कर्ज से बहुत ही कम है। चूँकि ये सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियाँ हैं, इसलिए बैंकों द्वारा इनको दिये गये कर्ज के मामले में जोखिम तो है, फिर भी उनके एनपीए होने की आशंका तुलनात्मक रुप से निजी क्षेत्र की कंपनियों के मुकाबले कम है।

अदाणी समूह को बैंकों ने 125398 करोड़ रुपया कर्ज के तौर पर दिया है, जबकि उसका बाजार पूंजीकरण महज 64912 करोड़ रुपया है। इसी तर्ज पर जेपी ग्रूप को बैंकों ने 75963 करोड़ रुपया कर्ज दिया है, लेकिन उसका बाजार पूंजीकरण केवल 30785 करोड़ रुपया है। एडीएजी समूह के मामले में भी बैंकों ने 73646 करोड़ रुपया ऋण दिया है, जबकि उसका बाजार पूंजीकरण सिर्फ 45738 करोड़ रुपया है। बाजार पूंजीकरण और बैंकों के द्वारा दिये गये ऋण के नकारात्मक अनुपात के मामले में देश की कर्इ और नामचीन कंपनियाँ शामिल हैं। जाहिर है सिथति भयावह है, क्योंकि अगर इस तरह की कंपनियों को दिया गया कर्ज एनपीए होता है तो उसकी वसूली असंभव हो जाएगी। अर्थात उनकी चल-अचल संपत्ति बेचने के बाद भी बैंक कर्ज की राशि का केवल कुछ हिस्सा ही वसूल कर पायेंगे। वैसे इस बाबत मजेदार बात यह है कि हाल ही में बैंकों में एनपीए हुए किंगफिषर एयरलाइंस के विविध ऋण खातों के प्रर्वतक विजय माल्या की यूबी समूह का बाजार पूंजीकरण और बैंकों द्वारा दिये गये ऋण का अनुपात सकारात्मक है। इसका प्रमुख कारण समूह की अनुशंगी कंपनी यूनाइटेड सिपरिटस के शानदार प्रर्दशन को माना जा रहा है।

बता दें कि मार्च, 2012 के अंत तक इन 1200 कंपनियों के ऊपर बैंकों का कुल बकाया लगभग 1.62 लाख करोड़ रुपया था, जो कारपोरेटस द्वारा लिये गये कुल कर्ज का 67.2 प्रतिषत था। विदित हो कि फिलहाल देश की अर्थव्यवस्था की हालत खस्ताहाल है। लिहाजा हालत में सुधार नहीं होने की सिथति में बैंकों द्वारा प्रदत्त ऋण की राशि का एक बड़ा हिस्सा एनपीए हो जाएगा, जिसका पुनर्गठन भी शायद मुशिकल होगा। जानकारों का मानना है कि बैंकों के वर्तमान हालत से बाजार भी वाकिफ है। गौरतलब है कि बैंकिंग क्षेत्र में बढ़ते जोखिम के कारण ही बीते दिनों बैंकों के शेयर में गिरावट देखने में आया था। ज्ञातव्य है कि इसमें आज भी कोर्इ खास सुधार नहीं आया है।

एनपीए स्तर को कम करने के लिए वर्ष 2011 की दूसरी तिमाही में भारतीय स्टेट बैंक के सभी 14 मंडलों के स्थानीय प्रधान कार्यालयों में सहायक महाप्रबंधक की अगुआर्इ में लेखा अनुसरण केन्द्र (एटीसी) नामक एक नये विभाग का सृजन किया गया। इस विभाग का मूल कार्य संभावित एनपीए या एनपीए हो चुके खातों पर सूक्ष्म निगाह रखना और वसूली के लिए सतत प्रयास करना है। इस संदर्भ में ओवरसीज बैंक के अध्यक्ष बैंकों का बचाव करते हुए कहते हैं कि बढ़ते हुए एनपीए का मूल कारण बढ़ता हुआ ब्याज दर और सिस्टम में गलत तरीके से ऋण खाता खोला जाना है। इनके बयान को कुछ हद तक सही माना जा सकता है, क्योंकि बीते दिनों भारतीय रिजर्व बैंक ने एक दर्जन से अधिक बार ब्याज दरों को बढ़ाया है। हालांकि कारपोरेटस कर्जदार के संबंध में इस तरह के प्रावधानों या सिस्टम में होनेवाली गड़बड़ी से संबंधित स्पष्टीकरण की कोर्इ सार्थकता नहीं है, क्योंकि कारपोरेटस खातों पर सूक्ष्मता के साथ निगाह रखी जाती है। स्टेट बैंक में एमसीजी (मिड कारपोरेट ग्रूप) और कैग (कारपोरेट अकाउंट ग्रूप) को कारपोरेटस खातों का संचालन करने एवं उसपर बारीकी से निगाह रखने के लिए चिनिहत किया गया है।

बैंकों का बढ़ता एनपीए स्तर सरकार के लिए सिरदर्द बन चुका है। इसके मद्देनजर सरकार ने हाल ही में सार्वजनिक क्षेत्र के 10 बैंकों को 12517 करोड़ रुपये मुहैया करवाने का फैसला लिया है। फिलहाल पूँजी के मामले में सरकारी बैंकों की हालत पतली है। बढ़ते एनपीए के कारण बैंकों के शुद्ध लाभ पर लगातार दबाव पड़ रहा है। बैंक संभावित एनपीए को ध्यान में रखते हुए हर साल इस मद में ज्यादा प्रोविजन कर रहे हैं। उनके पुनपर्ूंजीकरण की जरुरत है। गौरतलब है कि सरकार ने वित्त वर्ष 2010-11 के दौरान सरकारी बैंकों को 20117 करोड़ रुपये और वित्त वर्ष 2011-12 के दरम्यान 12000 करोड़ रुपये उपलब्ध करवाया था। सरकार द्वारा प्रदत्त इस पूँजी से बैंकों को टीयर 1 सीआरएआर (जोखिम वाली परिसंपत्तियों के अनुपात में पूँजी) को बराबर अनुपात में रखने में मदद मिलेगी। इससे बैंकों को बेसल-3 के मानकों के अनुसार अपने को तैयार करने में भी सहायता मिलेगी और  बैंकों के परिचालन में गतिषीलता बनी रहेगी।

ज्ञातव्य है कि सरकारी बैंकों का कर्ज टेक्सटार्इल, स्टील, एयरलाइन्स, टेलीकाम और मार्इनिंग जैसे क्षेत्रों में एनपीए में तब्दील तेजी से हो रहा है। उदाहरण के तौर पर एयरलाइन्स क्षेत्र में 77000 हजार करोड़ रुपये के कर्ज एनपीए हुए हैं, जिसमें 67000 करोड़ रुपया एयर इंडिया का है और 10000 करोड़ रुपया किंगफिशर का। टेलीकाम क्षेत्र में जीटीएल का 17000 करोड़ रुपये का कर्ज एनपीए हुआ है। हालात पर काबू पाने के लिए इन क्षेत्रों में अप्रैल, 2011 से लेकर दिसबंर, 2011 तक कुल 50250 करोड़ रुपये का ऋण बैंकों के द्वारा कारपोरेट डेट रिस्ट्रक्चरिंग (सीडीआर) के लिए अनुशंसित किया गया। वर्तमान में सीडीआर को अनुशंसित की गर्इ कुल ऋण राशि एक लाख तैतालीस हजार करोड़ रुपया है। सीडीआर में जाने के बाद कारपोरेटस के ऋण खातों पर रियायती दर पर ब्याज प्रभारित किया जाता है और ऋण की समयावधि भी बढ़ा दी जाती है, ताकि आसानी से किस्त चुकाया जा सके। इस प्रकि्रया को प्रत्यक्ष रुप से बेल आऊट तो नहीं कह सकते हैं, लेकिन इसका स्वरुप काफी हद तक उससे मिलता-जुलता है।

हकीकत में बैंकों का एनपीए स्तर खतरे के निशान से ऊपर पहुँच चुका है। कारपोरेटस से संबंधित एनपीए की बात न भी करें तो बैंकों द्वारा मुहैया करवाया गया अन्य क्षेत्रों का कर्ज भी तेजी के साथ एनपीए हो रहा है। बैंकों द्वारा जानबूझकर छुपाये गये एनपीए के स्तर का आंकड़ा स्वयं उनके पास भी नहीं है। इसके लिए दोषी बैंक वाले तो हैं ही, साथ में लेखा अंकेक्षक भी गुनहगार हैं। बैंककर्मी एवं लेखा अंकेक्षक के गठजोड़ की वजह से एनपीए के सही स्तर का आकलन करना असंभव हो गया है।

वर्तमान परिवेश में बैंकों में ऋण खातों का प्रबंधन कमजोर है। मानव संसाधन के पास जाब नालेज की कमी है। कारपोरेट ऋण प्रस्तावों को न तो सही तरीके से आंका जाता है और न ही ऋण स्वीकृति के बाद उनका फालोअप किया जाता है। ऋण प्रस्तावों के विष्लेषण के नाम पर महज खानापूर्ति की जाती है। कंपनी की पतली वितीय हालत के बाद भी आंकड़ों की बाजीगरी के द्वारा ऋण स्वीकृत कर दिया जाता है। बेहतर ब्याज दर के निर्धारण के लिए भी वितीय आंकड़ों के साथ खिलवाड़ किया जाता है। यह सारा खेल स्पीड मनी को पाने के लिए किया जाता है। विगत कुछ वर्षों में ठेके पर काम करवाने का चलन भी बैंकों में बढ़ा है। अनुबंध पर कर्मचारियों व अधिकारियों की नियुकित की जा रही है, जिनकी सामान्यत: कोर्इ जिम्मेदारी नहीं होती है। इसलिए उनके द्वारा किये गये कार्यों में गुणवत्ता का अभाव होता है। पड़ताल से स्पष्ट है कि बैंकों में व्याप्त अव्यवस्था व अराजकता अपनी चरम सीमा पर है। बिना व्यापक सुधार के उनके लिए एनपीए से निजात पाना बेहद ही मुशिकल है।

अंत में बताना जरुरी है कि एनपीए क्या है और बैंकों के लिए इससे मुक्त होना क्यों जरुरी है? दरअसल बैंक के कार्य को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटा गया है। पहला लोगों का पैसा जमा के रुप में स्वीकार करना और दूसरा उस जमा पैसे को ऋण के रुप में जरुरतमंद लोगों के बीच वितरित करना। ऋण एक निशिचत अवधि के लिए स्वीकृत किया जाता है, जो मुकर्रर समय के अंदर ब्याज व किस्त के रुप में ऋणी को चुकाना होता है।

जब तक ऋणी समय पर ब्याज व किस्त अपने ऋण खाता में जमा करता रहता है, तो उसे निष्पादित परिसंपत्ति या स्टैंडर्ड खाता कहा जाता है, पर जैसे ही उस खाता में ब्याज या किस्त या फिर दोनों जमा होना बंद हो जाता है, तो उसे गैर निष्पादित परिसंपत्ति कहते हैं। बोल-चाल की भाषा में इसे नन-परफोरमिंग असेट (एनपीए) कहा जाता है।

एनपीए ऐसी रकम है, जो बैंकों  द्वारा ऋण के रुप में दी जाती है, लेकिन जिसके वापस आने की संभावना नहीं होती। वर्तमान में यह रकम डेढ़ लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा है। इसका यह अर्थ यह हुआ कि इतना पैसा किसी काम का नहीं। अगर सरकार एवं बैंक मिलकर इस रकम को वापस लाते हैं तो लाखों लोगों को रोजगार, आधारभुत संरचना समेत कृषि क्षेत्र का विकास संभव हो सकता है।

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