खुलेपन के मायने

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खुलेपन के मायने बदल गए हैं, विचारों के खुलेपन को नहीं ,
शरीर के खुलेपन को ,
तरजीह मिलने लगी है।

हद होती है,
हर बात की,
शरीर के खुलेपन की,
कोई हद नज़र आती नहीं।

हर युग की जरूरतें,
स्थितियाँ, परिस्थितियां
अलग होती हैं।
परिवर्तित होती हैं
मन:स्थितियाँ,
शारीरिक पहनावा,
मौसम अनुसार भी।

माहौल बदलता है,
सोच बदलती है,
व्यक्ति का नजरिया बदलता है।
बदल जाता है चुनौतियों से
जूझने का तरीका भी ।
यह बदलाव आंतरिक होता है।

युगानुरूप
आंतरिक बदलाव पर नहीं,
बाह्य बदलाव तक ,
सीमित हो गये हैं हम।

समस्या, चुनौतियों से
जूझने के लिए,
सोच, सुर और नजरिया
बदलना जरूरी है,
अगर दुनिया बदलनी है।

पर, सबसे खतरनाक ,
यह हो गया है,
हमनें बाह्य बदलाव को ही
अंतर्बाह्य बदलाव का,
पर्याय मान लिया है।

सभ्यता और संस्कृति में हमने, सभ्यता को ही ,
संस्कृति मान लिया है ।

सभ्यता शरीर है ,
संस्कृति मस्तिष्क,
मस्तिष्क के बगैर ,
शरीर का कोई वजूद नहीं,
ये दोनों हैं अन्योन्याश्रित ,
ये जाने, समझें,
हम सभी।

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