किडनी के सौदागर

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kidney-racket-2प्रमोद भार्गव
दिल्ली के पंचतारा माने जाने वाले अस्पताल अपोलो में गुर्दे यानी किडनी का व्यापार करने वालों का पूरा एक गिरोह पकड़ा जाना हैरान करने वाला वाक्या है। इस घटना के उजागर होने से हमारे स्वास्थ्य तंत्र का अमानवीय चेहरा तो बेनकाब हुआ ही है, गरीब समाज की लाचारगी भी प्रगट हुई है। हालांकि मानव अंगों का कारोबार कोई नई बात नहीं हैं, लेकिन एक बड़े और प्रतिष्ठित अस्पताल में धन के लालच में ऐसी घटनाओं का सामने आना शर्मनाक है। इससे पता चलता है कि पैसे की हवस चिकित्सा जैसे पवित्र व्यवसाय को अनैतिक बाजार में बदलने का काम कर रही है।
दिल्ली पुलिस ने इस काले कारोबार में शामिल अस्पताल के कर्मचारियों सहित 9 लोगों को गिरफ्तार किया है। कहा जा रहा है कि यह गिरोह देश के कई राज्यों में लाचार गरीबों को दिल्ली लाकर उनकी किडनी का सौदा करते था। सौदे की कुल रकम करीब 25 से 30 लाख होती थी, जिसमें दलाल को 3 से 4 लाख और कथित रूप से किडनी दान करने वाले व्यक्ति को महज एक-ड़ेढ़ लाख रुपए मिलते थे। शेष 20 लाख की राशि किनकी जेब में जाती थी, यह सवाल फिलहाल अनुत्तरित जरूर है, लेकिन आशंका तो उठती ही है कि यह राशि किडनी प्रत्यारोपण करने वाले चिकित्सकों के समूह और अस्पताल के मालिकों के बीच ही बंटती होगी ? हालांकि पुलिस पूछताछ में चिक्त्सिक इस गोरखधंधे से स्वयं को अछूता व अनजान बता रहे हैं। लेकिन यह कैसे संभव है कि उनके सरंक्षण के बिना किडनी का प्रत्यारोपण मुमकिन हो जाए ? अलबत्ता हमारे संपूर्ण पुलिस एवं प्रशासन तंत्र की मुश्किल यह है कि उसके हाथ गरीब और लाचार की गिरेबान से आगे बढ़ ही नहीं पाते। नतीजतन नाजायाज कारोबार का सिलसिला नए दलालों के जरिए गतिशील बना रहता है। यही वजह है कि मानव अंगों के प्रत्यारोपण का कारोबार थमता ही नहीं है। देश के इस-उस कोने से इस अवैध धंधे की खबरें, जब-तब सुर्खियों में बनी ही रहती हैं।
निसंदेह मानव अंगों का प्रत्यारोपण आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की एक ऐसी अनूठी उपलब्धि है, जिसने जिंदगी की आस खो चुके लोगों को फिर से नया जीवन देने का काम किया है। किंतु धन के लालची चंद चिकित्सक समूह इस पवित्र और जीवन देने वाले व्यवसाय को अमानवीय चेहरे में बदलने का काम कर रहे हैं। इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन को कहना पड़ा है कि ‘मानव शरीर और इसके अंगों को व्यापारिक लेन-देन की वस्तु नहीं बनाया जा सकता है।‘ साफ है, इस पर प्रतिबंध लगना लाजिमी है। गौरतलब है कि भारत सरकार ने 1994 में ‘मानव अंग प्रत्यारोपण कानून‘ बनाया था। इसके मुताबिक रोगी का निकटतम रक्त संबंधी ही उसे गुर्दा, यकृत या फेंफड़ा जैसे जीवनदायी अंग दे सकता है। इसे पारिभाशित करते हुए कहा गया है कि मरीज के माता-पिता, भाई-बहन, बेटा-बेटी और पति-पत्नी ही अंगदान के अधिकारी हैं।
यही वजह थी कि कई मर्तबा चाहते हुए भी कोई दूसरा व्यक्ति जरूरतमंद को अंगदान नहीं कर सकता था। किंतु बड़े अस्पतालों और कुछ एनजीओ की मांग के चलते इस अधिनियम में 1999, 2001 और फिर 2011 में संषोधन हुए। इनमें अंगदाता का दायरा बढ़ा दिया गया। अब दादा-दादी, नाना-नानी और चचेरे, ममेरे व मौसरे रिश्तेदारों को भी रोगियों को अंगदान करने की अनुमति दे दी गई। इसके अलावा मरीज की देखभाल में लगे, ऐसे व्यक्ति को भी अंगदान की अनुमति दे दी गई, जो रोगी का करीबी रिश्तेदार नहीं होने के बावजूद अंगदान कर सकता है। बशर्ते धन का लेन-देन न हो। इसके अलावा अब तक रक्त समूह या कोशिकाओं की भिन्नता जैसी चिकित्सीय जटिलताओं के चलते भी अंगदान की इच्छा रखने वालों की भूमिका सीमित थी। लिहाजा विशेष परिस्थितियों में प्रावधान किया गया कि भिन्न रक्त समूह का व्यक्ति भी अपने अंग के बदले मरीज की जरूरत के मुताबिक दूसरे के शरीर का वही हिस्सा ले सकता है। इसे सरलता से समझने के लिए परस्पर अंगों की अदला-बदली की सुविधा कहा जा सकता है।
दरअसल हमारे यहां जरूरत के मुताबिक गुर्दों का प्रत्यारोपण नहीं हो पा रहा है, इसलिए किडनी का बाजार फल-फूल रहा है। प्रत्येक वर्ष 2.1 लाख भारतीय को किडनी की जरूरत पड़ती हैं, लेकिन नियमों के मुताबिक 3-4 हजार गुर्दों का ही वैधानिक प्रत्यारोपण मुमकिन हो पाता है। गोया किडनी कारोबार का पूरा नेटवर्क तैयार हो गया है। चिकित्सकों के सरंक्षण में खून की अदला-बदली करके किडनी बेचने वाले को रोगी का रक्त संबंधी साबित कर दिया जाता है। इन नमूनों की बदली रिर्पोटों को ही अनुमति देने वाली सरकारी समिति को भेजा जाता है। मरीज और अंगदाता के अन्य जरूरी फर्जी दस्तावेज भी तैयार कर लिए जाते हैं। खानापूर्ति की इस कागजी प्रक्रिया पर समिति स्वीकृति की मोहर लगा देती है। इन कानूनों के अमल में आने के बाद यह कभी देखने व सुनने में नहीं आया कि समिति के सदस्यों ने कभी रोगी और अंगदाता के रक्त व कोशिका के नमूने अपनी मौजदूगी में लिए हों और जांच के बाद अनुमति दी हो ? इससे यह आशंका भी उत्पन्न होती है कि सरकारी समिति का भी सरंक्षण किसी न किसी रूप में इस-काले कारोबार को मिला हुआ है।
1990 के आते-आते यह कारोबार पूरी तरह तिजारत का रूप ले चुका था। किडनी प्रत्यारोपण के अवैध धंधे से जुड़ा अब तक का सबसे बड़ा कारनामा गुड़गांव के डाॅ अमित कुमार से जुड़ा है। इसने 10 साल में 600 गुर्दों का सफल प्रत्यारोपण किया था। इस गोरखधंधे का जब पर्दाफ़ाश हुआ तो पता चला कि इस गिरोह के तार दिल्ली, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश तक जुड़े हुए हैं थे। बाद में डाॅ अमित कुमार उर्फ किडनी कुमार को नेपाल से गिरफ्तार किया गया था।
एक चिकित्सक द्वारा इतनी बड़ी संख्या में किडनी प्रत्यारोपण करने से साफ हुआ था कि किडनी की हेराफेरी और बच्चों की तस्करी का धंधा भी खूब पनप रहा है। ऐसे अनेक मामले उजागर हो चुके हैं, जिनमें पेट की शिकायत लेकर आए मरीजों का बेजह आॅपरेषन करके गुर्दे निकाल लिए गए। मानव अंगों की तस्करी करने वाले गिरोह अंग बेचने के लिए बच्चों तक का अपहरण करके उनकी हत्या करने से भी नहीं हिचकते हैं। दुनिया में जिन देशों में मानव अंगों का अवैध व्यापार सबसे ज्यादा होता है, उनमें भारत भी एक है। केंद्र सरकारें विदेशी पूंजी निवेष के लालच में जिस तरह से मेडिकल टूरिज्म को बढ़ावा देती रही हैं, उसकी ओट में भी मानव तस्करी और अंग प्रत्यारोपण का गोरखधंधा परवान चढ़ रहा है। ऐसी स्थिति में मेडिकल टूरिज्म को तो प्रतिबंधित करने की जरूरत है ही, स्वेच्छा से अंगदान से जुड़़ी रूढ़ मान्यताओं को तोड़ने के लिए भी जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है, ताकि लोग खुद आगे आएं।
दरअसल हमारे यहां आमतौर यह धारणा प्रचलन में है कि अगर व्यक्ति अपने अंग किसी दूसरे को दान देंगे तो उनकी अपनी जिंदगी खतरे में पड़ जाएगी। इसलिए क्यों जोखिम उठाएं ? इस बिंदू पर कुछ धार्मिक मान्यताएं और सामाजिक पूर्वग्रह भी अपनी जगह कायम हैं। गोया किसी दुर्घटना के दौरान मस्तिश्क मृत हो जाने की स्थिति में भी व्यक्ति के परिजन उसका कोई अंग दान में देने की इच्छा नहीं जताते हैं। जबकि इस हालात में गुर्दा ह्रदय, यकृत, फेफड़ें और आंखों जैसे महत्वपूर्ण व अनमोल अंगों समेत शरीर के करीब अन्य 37 अंग और ऊतक दान किए जा सकते हैं। यदि दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति के अंग दान होने लग जाएं तो शायद इस अवैध व्यापार पर आप से आप प्रतिबंध लग जाए ?
प्रमोद भार्गव

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