मनोज कुमार

हर साल की तरह कैलेंडर बता रहा है कि आज 1& फरवरी है. 1& फरवरी अर्थात देश के इकलौते कलागृह के जन्मोत्सव का दिन. बड़े बजट के साथ जश्र होगा. अपने अपने पसंद के कलाकारों को विविध विधाओं में आमंत्रित किया जाएगा. कुछ लोग कला के अदृश्य होते जाने पर विलाप करेंगे तो कुछ लोग अपने से इतर विचारधारा को इस बात के लिए कोसेेंगे कि कैसे एक कलागृह को हाशिये पर पहुंचा दिया गया. कोई ये नहीं कहेगा कि यह कलागृह जिन हाथों में हैं, वही हाथ तो अभी भी हैं. आज ये हाथ अगर भारत भवन के हाशिये पर जाने की चिंता कर रहा है तो कल तक वह उस विचारधारा का पोषक क्यों बना हुआ था? हालांकि महंगे बजट के इस विमर्श में कुछ खास नहीं हाथ आएगा. सरकार बदलने के साथ, सत्ता परिवर्तन के साथ फिर आलाप पदारूढ़ सत्ता के अनुरूप लगाया जाएगा. बीते साढ़े तीन दशकों में भले ही ना हुआ हो लेकिन बीते दो दशकों में तो यही सबकुछ हुआ है. वैसे तो भारत भवन के जन्म के साथ ही विवादों का सिलसिला आरंभ हो गया था लेकिन तब विमर्श का पुट था. एक पॉजिविटी के साथ विषय पर चर्चा होती थी और प्रदेश को सांस्कृतिक सम्पन्न बनाने के लिए तकरार होता था. ये तेरी विचारधारा या ये मेरी विचारधारा की कोई जगह नहीं थी. इन विवादों में, विमर्श से भारत भवन वायब्रेट होता था. शायद मुख्यमंत्री कमल नाथ की भी यही मंशा है. वे भारत भवन के एक प्रोग्राम में कहते हैं कि भारत भवन को वायब्रेट होना चाहिए लेकिन कैसे हो, इस पर विमर्श की जरूरत है और जब इस बड़े कलागृह का जन्म दिन सेलिब्रेट कर रहे हैं तब तो और भी विषय सामयिक हो जाता है. भारत भवन के वर्षगांठ के बहाने मध्यप्रदेश के समूची संस्कृति विभाग के कार्यकलापों पर चर्चा करना सुसंगत होगा. मध्यप्रदेश की पहचान और नया मध्यप्रदेश बनने के पहले से कार्य कर रही मध्यप्रदेश कला अकादमी लगातार हाशिये पर है. जबकि उसे केन्द्र में होना चाहिए. कला अकादमी के पुराने कार्यों का सिंहालोकन करेंगे तो आपको पता चलेगा कि उसके हिस्से में प्रदेश के लगभग सभी बड़े आयोजन हैं. अनेक परिषद और अकादमियां कार्य कर रही हैं लेकिन उनकी सक्रियता पर कभी कोई चर्चा नहीं की गई. इसके पीछे मीडिया की भूमिका यह रही है कि वह राजनीतिक खबरों को तो सबसे पहले छापती है लेकिन कला-संस्कृति उसकी प्राथमिकता में नहीं होता है. हां, कुछ गड़बड़ की खबर होती है तो उपत कर सबसे पहले हेडलाइन बनती है. यही कारण है कि संस्कृति विभाग की कामयाबी और नाकामयाबी की खबरें जगह नहीं बना पाती है और आम आदमी की चेतना में संस्कृति विभाग का अर्थ मेला, सभा संगत तक ही है. मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन हुए एक वर्ष से अधिक का समय हो चुका है लेकिन संस्कृति विभाग के पुनर्गठन की कोई पहल अब तक नहीं हो पायी है. भाषा को लेकर उर्दू, मराठी, भोजपुरी, पंजाबी की अकादमी-परिषदें कार्य कर रही हैं. क्या यह अ‘छा नहीं होता कि कोई एक बड़ी अकादमी के अंतर्गत सबको शामिल कर लिया जाता. यही नहीं, अन्य भाषाओं की एक प्रभाग भी इसके अंदर बनाया जा सकता था. ऐसा हुआ नहीं. परिणामस्वरूप पृथक पृथक स्वरूप वाले अकादमियों और परिषदों का भारी-भरकम बजट है.संस्कृति विभाग के अंतर्गत आने वाली सभी अकादमी और परिषदों का अपना अपना प्रकाशन है. कुछेक के प्रकाशन हो रहा है तो कुछेक के प्रकाशन लम्बे समय से स्थगित हैं. प्रकाशन की मध्यप्रदेश की सम्पन्न परम्परा है लेकिन जिस तरह से इन प्रकाशनों को लिया जा रहा है, वह प्रकाशन अनुपयोगी हो गए हैं. इस सबसे बचने के लिए भारत भवन के जिम्मे प्रत्येक तीन माह में सौ पृष्ठों का कटेंट और कलेवर के साथ एकमात्र प्रकाशन किया जाए ताकि समूची संस्कृति की झलक देश-दुनिया देख सके. संख्या में प्रकाशनों का अधिक होने से ’यादा जरूरी है कि एक प्रकाशन हो लेकिन प्रभावी हो. भविष्य में यदि इस पर कोई फैसला किया जाता है तो संपादक के चयन में पारदर्शिता रखना एक बड़ी चुनौती होगी. जो संपादक योग्य हो, उसे दायित्व सौंपा जाए. इसके लिए विज्ञापन के माध्यम से लोगों से आवेदन बुलाया जाए तो संस्कृति, कला एवं साहित्य की समझ रखने वाले लोग श्रेष्ठ का चयन करें. पिछले समय में संस्कृति विभाग की कुछेक पत्रिकाओं में संपादक तो नियुक्त कर दिया गया है लेकिन उनकी नियुक्ति का आधार क्या है? कब विज्ञापन दिया गया, जैसे सवाल हवा में हैं.संस्कृति विभाग का महकमा बहुत बड़ा है और निरंतर होने वाली गतिविधियों के लिए इस महकमे की जरूरत भी होती है. इसमें कोई गुरेज नहीं. लेकिन संस्कृति विभाग के अंतर्गत परिवर्तन-बदलाव की कोई कोशिश नहीं होती है. जो जहां हैं, वर्षों से वहीं है. बेहतर और सकारात्मक परिवर्तन के लिए बदलाव की जरूरत होती है. फिर संस्कृति विभाग के किसी परिषद या अकादमी में भेजे जाने या वहां से हटाकर संस्कृति के दूसरे महकमे में पदस्थापना की नीति क्यों नहीं बनायी जानी चाहिए. जब संस्कृति विभाग में आने वाले आइएएस अफसरों को बदल दिया जाता है तो नीचे के महकमे में यह नीति क्यों लागू नहीं की जाती है. इस बात से सहमत होना पड़ेगा कि एक जगह लम्बे समय से जमे रहने से कई किस्म की निजी लालसाएं उत्पन्न हो सकती है क्योंकि मानव स्वभाव को बदला नहीं जा सकता है. ऐसा भी नहीं है कि सभी एक जगह जमे हुए हैं. कुछेक लोगों से ऐतराज हुआ तो उन्हें जरूर इधर उधर किया जाता है लेकिन कुछेक ऐसे अफसर हैं जो अपनी व्यतिगत कौशल के साथ जमे हुए हैं. इस पर मूल्यांकन कर एक नीति बनायी जानी चाहिए. स्थानीय और शौकिया रंगकर्मियों के साथ उन सभी विधाओं के रचनाधर्मियों को भारत भवन में स्थान मिले, इस बात का खयाल रखा जाना चाहिए. संस्कृति विभाग से मिलने वाला अनुदान भी उन्हीं को दिया जाना चाहिए जो किसी किस्म से शासन की सेवा में नहीं हैं. जो लोग शासन की सेवा में रहते हुए कला की सेवा करना चाहते हैं, उनका स्वागत है लेकिन सेवा के साथ अनुदान का यह रिवाज अनुचित प्रतीत होता है. इस पर भी सरकार को गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए. संस्कृति विभाग में दोहराव खूब है, इससे बचना चाहिए. मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय की पृथक से कोई आवश्यकता नहीं है. अपनी स्थापना के साथ ही मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय चर्चा-विवादों में रहा है. नाट्य विद्यालय को संचालित करने के लिए अलग से भारी-भरकम बजट खर्च हो रहा है, इसे भी बचाया जा सकता है. दूसरी तरफ नाट्य विद्यालय आरंभ होने के बाद भारत भवन का रंगमंडल हाशिये पर चला गया है. इस वर्षगांठ पर सरकार मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय को भारत भवन के रंगमंडल में विलय कर उपहार दे सकती है. जन्मदिन पर उपहार देना तो बनता है ना. यह भी हैरानी में डालने वाली बात है कि मध्यप्रदेश ट्रॉयबल म्यूजियम मूल रूप से मध्यप्रदेश आदिम जाति कल्याण विभाग का माना जाता है लेकिन संचालन का जिम्मा संस्कृति विभाग के पास है. इन सब पर एक बार फिर विचार किया जाना समय की जरूरत है. भारत भवन मध्यप्रदेश का है. हम सबका है. भारत भवन समृद्ध हो, इसकी चिंता भी हम सबको करनी होगी. भारत भवन वायब्रेट हो या ना हो लेकिन उसकी चमक कायम रहनी चाहिए. हमें 2020 में 1982 वाला भारत भवन चाहिए जिसका रग रग में मध्यप्रदेश का गौरव है.