राजा ययाति और लाल कृष्ण आडवानी

adwaniविनोद कुमार सिन्‍हा 

वैदिक युग में आर्यावर्त्त में एक अति पराक्रमी राजा हुआ करते थे। नाम था ययाति। वे सूर्यपुत्र मनु के वंशज और इन्द्रासन के अधिपति रहे महान राजा नहुष के पुत्र थे। यश, पराक्रम और कुशल प्रजापालन में वे कही से भी अपने पिता नहुष से उन्नीस नहीं थे। एक बार आखेट करते समय उनकी भेंट दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य की कन्या देवयानी से हुई। अपूर्व सुन्दरी देवयानी ने अपने पति के रूप में उनका चुनाव कर लिया। शुक्राचार्य की सहमति से दोनों का विवाह भी संपन्न हो गया। अपने दास-दासियों के साथ देवयानी राजधानी आकर सुखपूर्वक महाराज ययाति के साथ दांपत्य जीवन का आनन्द लेने लगी। एक दिन अपनी अशोक वाटिका में भ्रमण के दौरान ययाति ने अतुलनीय रूप-लावण्य से संपन्न एक युवती को जल-विहार करते देखा। ऐसा सौन्दर्य उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। युवती के पास जाकर उन्होंने उसका परिचय पूछा। उन्हें ज्ञात हुआ कि वह युवती और कोई नहीं बल्कि दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा थी। शुक्राचार्य इसी वृषपर्वा के राजगुरु थे। शर्मिष्ठा और देवयानी घनिष्ठ सहेलियां थीं। एक को अपने पिता के प्रतापी राजा होने का घमंड था, तो दूसरी को अपने पिता के तप का। एक दिन दोनों के अहंकार टकरा ही गए और दोनों में जमकर लड़ाई हुई। आहत देवयानी ने शर्मिष्ठा को नीचा दिखाने के लिए उसे अपनी दासी बनाने की ठान ली। शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री के अहंकार का पोषण किया और दैत्यराज वृषपर्वा को अपनी पुत्री को दासी के रूप में देवयानी की सेवा में नियुक्त करने का निर्देश दिया। वृषपर्वा ने इन्कार कर दिया। रुष्ट शुक्राचार्य ने राजगुरु का पद त्यागकर अन्यत्र जाने की तैयारी कर ली। दैत्यराज चिन्ता से घिर गए। शुक्राचार्य के बिना दैत्य अधूरे थे। उनकी अनुपस्थिति में देवराज इन्द्र का सामना करना उनके वश में नहीं था। वृषपर्वा के पास एक तरफ शुक्राचार्य का हठ था तो दूसरी ओर अपने राज्य का कल्याण। वे रुग्ण रहने लगे। शर्मिष्ठा से अपने पिता की यह दशा देखी नहीं गई। आसन्न संकट को टालने के लिए उसने स्वेच्छा से देवयानी की दासी बनना स्वीकार कर लिया। राजा ने भारी हृदय से इसकी सहमति दे दी। इस तरह राजपुत्री शर्मिष्ठा अपने पिता के राजगुरु शुक्राचार्य की लाडली देवयानी की दासी बन गई। महाराज ययाति को शर्मिष्ठा से स्वाभाविक सहानुभूति उत्पन्न हुई और साथ में अनुराग भी उत्पन्न हुआ। शर्मिष्ठा के रूप-लावण्य पर ययाति पहले से ही मुग्ध थे। उनके प्रणय-निवेदन पर शर्मिष्ठा मे भी हामी भार दी। देवयानी से बदला लेने का यह सुनहरा अवसर वह हाथ से जाने देना नहीं चाहती थी। दोनों ने गुप्त रीति से गंधर्व विवाह कर लिया। दोनों से तीन पुत्र पैदा हुए। कुरु इन दोनों का सबसे छोटा पुत्र था। ययाति एक साथ दो सुन्दरियों – देवयानी और शर्मिष्ठा के रूप-यौवन का भोग वर्षों तक करते रहे। देवयानी से भी उनके दो पुत्र हुए। कालान्तर में शर्मिष्ठा और ययाति के प्रेम-प्रसंग की जानकारी देवयानी को हो गई। क्रुद्ध देवयानी ने राजा का परित्याग कर पितृगृह की शरण ली। शुक्राचार्य के कोप का सामना करना ययाति के औकात के बाहर की बात थी। उन्होंने शुक्राचार्य के पास जाकर क्षमा-याचना की और देवयानी को पुनः भेजने का निवेदन भी किया। क्रोध से भरे शुक्राचार्य ने देवयानी को साथ भेजने की स्वीकृति तो दे दी लेकिन एक भयंकर शाप भी साथ ही साथ दे दिया। जिस जवानी के जोश में ययाति ने उनकी पुत्री देवयानी से बेवफ़ाई की थी, उसी जवानी को शुक्राचार्य ने दयनीय बुढ़ापे में परिवर्तित कर दिया। वृद्ध ययाति अपनी युवा पत्नी के साथ राजधानी लौट आए। अपने बुढ़ापे से दुखी राजा का मन अब किसी काम में नहीं लगता था। चाहकर भी न तो वे देवयानी और न ही शर्मिष्ठा के रूप-यौवन का भोग कर सकते थे। चिन्ता और दुख ने उन्हें अशक्त कर दिया था। देवयानी से अपने पति की यह दशा देखी नहीं गई। उसने अपने पिता से अपना शाप वापस लेने का अनुरोध किया। पुत्री के बार-बार के आग्रह के बाद शुक्राचार्य ने एक युक्ति बताई कि अगर राजा का कोई औरस पुत्र उनको अपनी जवानी देकर उनका बुढापा ले ले, तो ययाति पुनः यौवनावस्था को प्राप्त कर सकते हैं। भोग-लिप्सा के आकांक्षी ययाति ने अपने पांचों पुत्रों से अपनी जवानी देने का अनुरोध किया लेकिन सबसे कनिष्ठ कुरु को छोड़कर किसी ने अपनी सहमति नहीं दी। राजा को अपने अल्पवय पुत्र पर तनिक भी दया नहीं आई और उसकी जवानी लेने में उन्होंने तनिक भी विलंब नहीं किया। ययाति जवान होकर पुनः रूप यौवन का भोग करने लगे और किशोर कुरु को असमय ही जर्जर वृद्धावस्था झेलने के लिए मज़बूर होना पड़ा। लेकिन भोग से भी कभी कोई तृप्त हुआ है क्या? कुछ ही वर्षों में भोग की निरर्थकता ययाति की समझ में आ गई। शुक्राचार्य की सहायता से उन्होंने अपनी ओढ़ी हुई जवानी अपने पुत्र को लौटा दी और स्वयं बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। कुरू का उन्होंने राजा के रूप में अभिषेक किया और स्वयं संन्यास ग्रहण कर लिया।

उपरोक्त पौराणिक कहानी को भाजपा के शलाका पुरूष लाल कृष्ण आडवानी के साथ संदर्भित करने की क्या आवश्यकता आ पड़ी? पाठकों के मन में एक स्वाभाविक प्रश्न का उठना अनापेक्षित नहीं है। लेकिन अपनी सत्ता लिप्सा को ८५ साल की उम्र में भी दबा न पाने के कारण नरेन्द्र मोदी की राह में रोड़े अटकाने का आडवानी जी का कार्य कही से भी ययाति की भोगलिप्सा से कमतर नहीं है। कहते हैं कि हिन्दू वृद्धों की बुद्धि बुढापे में सठिया जाती है। यहां प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा है। आडवानी जी ने इसका पहला प्रमाण पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना की तारीफ़ों के पुल बांध कर दिया था, दूसरा प्रमाण युवा नेतृत्व को हतोत्साहित करके दिया था और तीसरा प्रमाण गोवा में अभी अभी संपन्न भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अपनी सप्रयास अनुपस्थिति दर्ज़ कराके दिया है। ८५ साल की उम्र में भी सत्ता पाने की महत्वाकांक्षा उनके ज़ेहन में ययाति की भोगलिप्सा की तरह आज भी जवान है। लेकिन तब द्वापर था। ययाति को कम से कम एक पुरु तो मिल गया था। आज कलियुग है। भारत का युवा अपना नैसर्गिक अधिकार छोड़ने के लिए कत्तई तैयार नहीं है। नरेन्द्र मोदी युवा पीढ़ी की उम्मीद बनकर उभर रहे हैं। आडवानी जी को जितनी जल्दी यह बात समझ में आ जाय, उतना ही अच्छा। वरना समय किसका इन्तजार करता है। महाराज ययाति राजर्षि के रूप में विख्यात थे, लेकिन आज कोई भी उन्हें राजर्षि के रूप में नहीं याद करता। अपने सबसे छोटे पुत्र कुरु की जवानी उधार लेकर भोग में लिप्त भारतवर्ष के एक स्वार्थी राजा के रूप में ही भारत के इतिहास में उनका उल्लेख आता है।

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विपिन किशोर सिन्हा
जन्मस्थान - ग्राम-बाल बंगरा, पो.-महाराज गंज, जिला-सिवान,बिहार. वर्तमान पता - लेन नं. ८सी, प्लाट नं. ७८, महामनापुरी, वाराणसी. शिक्षा - बी.टेक इन मेकेनिकल इंजीनियरिंग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. व्यवसाय - अधिशासी अभियन्ता, उ.प्र.पावर कारपोरेशन लि., वाराणसी. साहित्यिक कृतियां - कहो कौन्तेय, शेष कथित रामकथा, स्मृति, क्या खोया क्या पाया (सभी उपन्यास), फ़ैसला (कहानी संग्रह), राम ने सीता परित्याग कभी किया ही नहीं (शोध पत्र), संदर्भ, अमराई एवं अभिव्यक्ति (कविता संग्रह)

10 COMMENTS

  1. Adavani ki Draupadi cheer haran awam Bhishm Pitamah se sambandhit tweet ka satik aur prashanshaniya jawab hai. Hindu bridh ka sathiya jana yahan par pramadit hota hai. Raja Yayati se jor kar Adawani ko samajna aasan ho jata hai.

  2. SAadvani की बात आज कोइ नही सुंग क्योंकि इसक पीछुनकी पी ऍम बनने की लालसा ही लाशी जाएगी लेकिन मोदी को आगे लाने से लड़ाई भ्रष्टाचार की बजाए धर्मनिरपेक्षता बनाम मोदी हो जाने से भाजपा को ही नुकसान ज्यादा होगा.

  3. मित्रवर क्षमा करें मुझे अडवाणीजी का व्यवहार किसी वयोवृद्ध नेता का क्षणिक सन्तुलन खो बैठना जैसा बिलकुल नहीं लगता .उलटे ऐसा लगता है की आडवाणीजी अपनी वर्षों पाली गई महत्वाकांक्षा को एक बार फिर असफल होता देखकर क्रुद्ध हो कर अपनी पार्टी को अधिकाधिक सम्भव हानि पहुचाने पर तुल गए हैं .2 0 0 4 से अनेक बार ऐसी घटनाएँ घटी जो किसी भी सामान्य बुद्धि नेता को यह ज्ञान प्राप्त करा देती की अब उनका उचित स्थान पार्टी के नेतृत्व में नहीं अपितु परामर्शदाता मण्डल के एक सम्मानित सदस्य के रूप में होना चाहिए .अभी तक किसी पार्टी ने मोदी जैसा सर्वप्रिय नेता देश को नहीं दिया पर आदवानिजी को देश में हुए अनेक सवेक्षणों में मोदीजी की लोकप्रियता सिद्ध होना भी अमान्य है . हम तो केवल ईश्वर से उन्हें सद्बुद्धि देने की प्रार्थना ही कर सकते हैं

  4. ​– ​”​​ललिता पवार” शब्द है न की ललित पवार, ​क्षमा……..

  5. थोड़ी देर की बात है, फिर सब ठीक हो जाएगा, बिकाऊ मीडिया बेफिजूल मुद्दे को तूल दे रहा है। आज कल मीडिया ललित पवार का रोल कर रहा है। आडवानी जी को अपने व्यक्तित्व की गरिमा का पता है।

    ​वैसे ययाति की कहानी के लिए शुक्रिया।


    सादर,

  6. विश्वास तो मुझे भी नहीं होता। अत्यन्त भारी और भग्न हृदय से मैंने यह लेख लिखा है। यह कुछ वैसा ही है जैसे राम अचानक रावण में परिवर्तित हो जांय। परन्तु यह समय विलाप करने का नहीं है। आगे धर्म-युद्ध है।अभी नहीं तो कभी नहीं। गाण्डीव उठाना ही पड़ेगा। आडवानी जी ने अपनी भूमिका का चुनाव स्वयं किया है। उनके पास कृष्ण बनने का खुला विकल्प था, उन्होंने स्वयं भीष्म पितामह की भूमिका का चुनाव किया है। दुख इस बात का हमेशा रहेगा कि लाल कृष्ण आडवानी इतिहास में बलराज मधोक की तरह याद किए जायेंगे न कि अटल बिहारी वाजपेयी की तरह।

  7. किसी भी नेता को, कुछ समय के लिए,ऐसा विचलित होना संभव है।
    पर धीरे धीरे उनका भी संतुलन ठीक हो जाएगा।
    कुछ कालावधि का ही प्रश्न है।

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