कोविन्द से जगी हैं  नयी उम्मीदें

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 ललित गर्ग

देश के नए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का शपथ ग्रहण के बाद पहला उद्बोधन नयी आशाओं एवं उम्मीदों को जगाता है। उन्होंने उचित ही इस ओर ध्यान खींचा कि हमारी विविधता ही हमें महान बनाती है। हम बहुत अलग हैं, फिर भी एकजुट हैं। संस्कृति, पंथ, जाति, वर्ग और भाषा की विविधता ही भारत को विशेष बनाती है। अगर इससे विपरीत दिशा में हम चलते हैं तो भारत की सबसे मूल्यवान थाती और अपनी महान सभ्यता के आधार को ही गंवा बैठेंगे। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि राष्ट्र के निर्माण में भारत के हरेक नागरिक की बराबर भूमिका है। खेतों में काम करने वाली महिलाएं, पर्यावरण की रक्षा कर रहे आदिवासी, किसान, वैज्ञानिक, स्टार्टअप कारोबारी से लेकर सुरक्षाबल तक, सभी राष्ट्र निर्माता हैं। राष्ट्रपति ने बताया कि वह छोटे से एक गांव से आए हैं। वह मिट्टी के घर में पले-बढ़े। उनके उद्बोधन से जाहिर होता है कि वे भारत के समग्र एवं संतुलित विकास के लिये तत्पर रहेंगे। उन्होंने विनम्रतापूर्वक संकेत करना चाहा है कि हमारी व्यवस्था हर व्यक्ति को आगे बढ़ने के अवसर उपलब्ध कराती है। कोविन्दजी के नाम की राष्ट्रपति पद के लिये घोषणा एवं जीत से सत्ता और पदों की कुर्सी दोनों हाथों से पकड़कर बैठे लोगों की घिग्घी बंध गयी। देखने में ये बहुत छोटी घटनाएं लगती हैं। पर ये छोटी चिंगारियां ही प्रकाश स्तम्भ बन सकती हैं। जब सत्ता की  राजनीति का खेल बंद होगा, सेवा की राजनीति का अध्याय प्रारम्भ होगा तभी मूल्यों का निर्माण होगा, तभी लोकतंत्र मजबूत होगा और तभी लोकजीवन प्राणवान और शुद्ध होगा।
शून्य से शिखर की यात्रा करने वाले रामनाथ कोविंद का जीवन एक उदाहरण है कि अगर किसी नागरिक में असाधारण कार्य करने का जज्बा हो और वह जीतोड़ मेहनत करने के लिए तैयार हो, तो वह शिखर पर पहुंच सकता है। आज उन्हें देखकर समाज का वंचित तबका खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा होगा। न जाने कितने लोग मन ही मन कोविंद से प्रेरित हो रहे होंगे। उनका स्वाभिमान बढ़ा होगा। लोकतंत्र के लिए यह एक बड़ी बात है। प्रगति एवं विकास के लिये आज जिस माॅडल की जरूरत है, कोविन्द उसके सशक्त हस्ताक्षर बन कर प्रस्तुत हो रहे हैं। जैसाकि महात्मा गांधी की नजर में, जो पहले से सुखी हैं, जिनके हिस्से एक बेहतर जीवन है, वे पैमाना नहीं हो सकते प्रगति और विकास का। दुर्भाग्य से दुनिया के ज्यादातर मुल्कों के साथ हमारे मुल्क ने भी पूंजीवादी माॅडल को अपनाते हुए गांधी की इस हिदायत का खयाल नहीं रखा। नतीजा सामने है। हमारा इतना बड़ा निम्न एवं मिडिल क्लास खड़ा तो हो गया। जो गरीब है, उनके लिए इस वल्र्ड आॅर्डर में, ‘क्वालिटी लाइफ’ की गुंजाइश न के बराबर है। इसीलिये कोविन्दजी ने इस बात पर जोर दिया कि हाशिए के लोगों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाना हम सबका फर्ज है। उन्होंने कहा कि हमें इस बात का लगातार ध्यान रखना होगा कि हमारे प्रयास से समाज की आखिरी पंक्ति में खड़े व्यक्ति के लिए और गरीब परिवार की बेटी के लिए भी नई संभावनाओं और नए अवसरों के द्वार खुलें। हमारे प्रयत्न आखिरी गांव के आखिरी घर तक पहुंचने चाहिए। इसमें न्याय प्रणाली के हर स्तर पर, तेजी के साथ, कम खर्च पर न्याय दिलाने वाली व्यवस्था को भी शामिल किया जाना चाहिए।
मां, माटी, मानुष की चिंता बड़ी अच्छी बात है। भारत में राजनीति करने वाली हर पार्टी कुछ हेरफेर के साथ ऐसे ही मुहावरे लेकर जनता के पास जाती है। लेकिन गरीब को हमेशा सरकार का मुंह ताकते रहने वाला प्राणी बनाए रखने की राजनीति से सबसे ज्यादा नुकसान गरीबों का ही होता देखा गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि नए राष्ट्रपति सरकार को नागरिकों खासकर समाज के कमजोर वर्ग के प्रति उसके दायित्वों को लेकर सचेत करते रहेंगे। अब वह तमाम दलगत विभाजन से ऊपर उठकर हमारी व्यवस्था के अभिभावक के रूप में  और एक पिता के रूप में सामने आए हैं।  और देश उनसे यही अपेक्षा रखेगा कि वह अभिभावक की तरह ही हरेक नागरिक की आकांक्षा का ध्यान रखें। उन्होंने सबको साथ लेकर चलने की बात कही भी है। उनकी विनम्रता और सहज व्यवहार से हर नागरिक उनके प्रति आत्मीयता का भाव महसूस करता है। पद की गरिमा एवं संवैधानिक अक्षुण्णता के लिये भी वे संकल्पित दिखाई देते हैं, निश्चित ही राष्ट्रपति पद की एक नयी परिभाषा गढ़ी जायेगी। इससे यह भी प्रतीत होता है कि एक शुभ एवं श्रेयस्कर भारत निर्मित होगा।
रामनाथ कोविंद एक संवेदनशील राष्ट्रनायक के रूप में सामने आये हैं। कैरिलल के अनुसार, एक अच्छा नायक हमेशा अपने से ज्यादा दूसरों की फिक्र करता है। वह अपने आस-पास के लोगों के बीच इस बात का दिखावा नहीं करता कि वह औरों से अलग है, लेकिन समय आने पर वह ऐसा कुछ कर जाता है कि लोगों के दिल में जगह बना लेता है। वह समूह का अग्रणी होता है और हमेशा इसी कोशिश और खोज में लगा रहता है कि कैसे दूसरों की तकलीफों को कम किया जाए। वह इतना विनम्र होता है कि बड़े-से-बड़ा काम कर जाने के बाद भी वह श्रेय नहीं लेता। उसकी सबसे बड़ी खूबी यह भी होती है कि वह समाज को एक दिशा दे सकता है।
रामनाथ कोविंद ऐसे समय राष्ट्रपति बने हैं, जब विश्व बदलाव के दौर से गुजर रहा है। अमेरिका हो या फ्रांस अथव रूस, सभी जगह राष्ट्रपति अपने लिये नई भूमिका तलाश रहे हैं। कोविन्दजी भारत को नयी बुलन्दियों पर पहुंचाने के लिये तैयार दिखाई दे रहे हैं। उनकी सोच एवं संकल्प युगान्तरकारी है, लोकतांत्रिक ताने-बाने को सुदृढ़ कर जन-आस्थाओं पर खरा उतरना उनके लिये सबसे बड़ी चुनौती है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा उनको राष्ट्रपति बनाये जाने की घटना को भले ही राजनीतिक रंग देने की कोशिश की गयी हो, लेकिन मोदी स्वयं पिछड़े वर्ग से आते हैं और एक दलित को राष्ट्रपति पद तक पहुंचाकर उन्होंने एक बार फिर यह संदेश दिया कि वह समाज के सभी वर्गों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध हैं। वह दलित समुदाय के बीच यह संदेश देने में खास सफल रहे कि हर वर्ग की भलाई उनकी सरकार का एजेंडा है। यह संदेश इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि भाजपा को अमीरों और शहरी तबके की पार्टी के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। भाजपा अपनी रीति-नीति के जरिये इस धारणा को तोड़ने में सफल रही है कि वह किन्हीं खास वर्गों के प्रतिनिधित्व तक ही सीमित है। इसके कई सकारात्मक नतीजे भी सामने आए हैं।
रामनाथ कोविंद आशावादी हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं। पर निराशा के कारणों की सूची भी लंबी है, इसे भी नकारा नहीं जा सकता। क्योंकि बुराइयां जीने के लिए फिर नये बहाने ढूंढ लेती हैं। श्रीकृष्ण की गीता जीवन के हर मोड़ पर निष्काम कर्म का संदेश देती है मगर संग्रह और भोग का अनियंत्रण मन को अपाहिज बना देता है। महावीर के जीए गए सत्यों की हर बार समीक्षा होती है मगर सिद्धांतों की बात शास्त्रों, संवादों और संभाषणों तक सिमट कर रह जाती है। गांधी का जीवन-दर्शन सिर्फ अतीत की याद बनकर रह गया है। आज कहां है राम का वह संकल्प जो बुराइयों के विरुद्ध लड़ने का साहस करे? कहां है महावीर की अनासक्ति जो अनावश्यक आकांक्षाओं को सीमा दे सके? कहां है गांधी की वह सोच कि देश का बदन नंगा है तब मैं कपड़े कैसे पहूनूं।
आज का जीवन अच्छाई और बुराई का इतना गाढ़ा मिश्रण है कि उसका नीर-क्षीर करना मुश्किल हो गया है। पर अनुपात तो बदले। अच्छाई विजयी स्तर पर आये, वह दबे नहीं। अच्छाई की ओर बढ़ना है तो पहले बुराई को रोकना होगा। इस छोटे-से दर्शन वाक्य में कोविन्दजी की अभिव्यक्ति का आधार छुपा है। और उसका मजबूत होना आवश्यक है। वे अपने अदम्य साहस और संकल्प की बदौलत हमारे लिए धूप के ऐसे टुकडे़ हैं जिन पर ‘लोक‘ एवं ‘लोकतंत्र’ को रोशन करने की बड़ी जिम्मेेदारी हैं।

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