कहीं लुप्त न हो जाएँ कुड़बुङिया वाले?

0
159

 अनूप आकाश वर्मा

बात,शादी-ब्याह से शुरू करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि भारत में वैवाहिक कार्यक्रमों में होने वाली धमाचौकङी समूचे विश्व में प्रसिद्ध है,जो उमंग जो जुनून यहाँ की बारात और बारातियों में है वो कहीं और नहीं। बेशक!आज शहरों में रिवाज़ अब बदल रहे हों लोग आधुनिक से अत्याधुनिक हो रहे हों,गाँवों में भी अब ए-वन क्लास बैंड,डीज़े,विदेशी म्यूज़िक और न जाने किस-किस की तलाश में अपनी हैसियत के हिसाब से हज़ारों-हज़ार रूपये फूंकने का दम-खम दिखाया जा रहा हो मगर फ़िर भी इन सबके बीच न जाने कब से चली आ रही एक लोक संस्कृति “कुङबुङिया वाले” अपनी जगह बचाये हुये है।शादी-ब्याह में कुङबुङिया वालों का चलन मुख्यत: उत्तर भारत में है।जो ख़ासकर उत्तरप्रदेश और बिहार में ज़्यादा लोकप्रिय है।

दरअसल,”कुङबुङिया वाले”उस मनोरंजक मंडली को कहते हैं जो सिर्फ़ शादी के मौके पर विशेषत: बुलाई जाती है और फिर इसमें होने वाली अनेक रस्मों व रीति-रिवाज़ों के हिसाब से समय-समय पर लोगों का मनोरंजन करती है।नाच-गाना होता है।एक मंडली में कम से कम पाँच से सात लोग शामिल होते हैं और सभी पुरूष होते हैं,महिलाओं के लिये इसमें कोई जगह नहीं है।यहाँ ग़ौर करने वाली बात ये है कि इस मंडली में सभी पुरूष हैं,किन्नर नहीं।इन्हीं पुरूषों में से ही कुछ लोग नाचने और कुछ बजाने का कार्य करते हैं।सो इनमें किन्नरों सा हठ नहीं है।नेग के नाम पर जो भी दे दिया जाता है उसमें ही संतोष करते हैं।कई जगहों पर इन्हें ‘नचनिया मंडली’ की संज्ञा भी दी जाती है।वाद्य यंत्रों में डुगडुगी,नगाङे और मंजीरे से ही सारे सुर साध लेने का हुनर इन्हें पता है।नगाङे को हल्की आंच में गर्म कर और भी सुरीला बनाया जाता है।फिर एक-एक कश मार कर खुद को जोशीला।ये दोनों बातें इनकी श्रद्धा का प्रतीक हैं क्योंकि इसके बाद इन्हें कितनी बार और कब-कब नाचना-बजाना है, नहीं मालुम।शादी-ब्याह का मौका है तो बस!नाचना है और बजाते जाना है,यही पता है।

इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिये कुङबुङिया वालों के सामने पैदा हुये बैंड-डीजे आज कहाँ से कहाँ पहुंच गये और कुङबुङिया वालों की स्थिति आज भी जस की तस बनी हुई है।न तो नेग से गुज़र-बसर ही होती है और न ही इस कला को लोग सम्मान की नज़र से देखते हैं।साथ ही न तो इनकी विनम्रता में कमी आई और न ही लोगों की कठोरता में।इसके पीछे कई वजहें हो सकती हैं।एक तो ये कि इस मंडली में ज़्यादातर दलित ही होते हैं,हालांकि अब ऐसा नहीं है बदलते दौर में इस कला की तरफ अन्य जातियों का रूझान भी नज़र आता है,वज़ह कुछ भी हो।जाति की बंदिशे आज भी बस इन्हीं के लिये हैं..शहरी बैंड-बाजों में कौन लोग झुनझुनाते हैं ये जानने पूछने की कभी किसी ने ज़हमत न उठाई होगी मगर यहाँ ये मान लिया जाता है कि कुङबुङिया वाला है तो दलित-महादलित ही होगा,मनुवादी सोच इसे छूना भले गंवारा न करे मगर नाचाना उसका शौक है।एक कुङबुङिया वाले से पूछने पर पता चला कि सीजन से होने वाले शादी-ब्याह में नाचने से इनका गुज़ारा नहीं होता सो बाकी दिन ये कलाकार मेहनत-मजदूरी कर अपना गुजारा करते हैं।किन्नरों और कुङबुङिया वालों में एक बङा अंतर ये भी है कि किन्नरों में कहीं न कहीं एक आधिकारिक मजबूरी होती है मगर कुङबुङिया वालों में इस कला के प्रति एक समर्पण होता है,जो इनकी विनम्रता से झलकता है।शादी के घर में,मंडली के आते ही इन्हें घर के बाहर ही खाना परोसा जाता है।उसके बाद बजनिये अपने-अपने वाद्य यंत्रों को गरम-नरम करने लगते हैं और नचनिये अपने नैन-नक्श संवारने में जुट जाते हैं।सौंदर्य प्रसाधन के नाम पर बेनामी लिप्स्टिक,पौडर,काजल,नकली बाल,बहुत सारी बालों की क्लिप और कुछ सुलझे-उलझे नकली जेवरात ही होते हैं।कोई बङे से बङा मेकप-आर्टिश्ट भी इतनी लगन से किसी को न सजाता होगा जितनी लगन से ये नचनिये खुद को पुरूष से स्त्री में ढालते हैं।पहनावे में सिर्फ साङी या सलवार कमीज़ का ही इस्तेमाल होता है।गाने-बजाने की शुरूआत लङके वालों के नेग से शुरू होती है,जहाँ सौ मांगने पर दस देने की परम्परा का निर्वहन होता है।खैर!कुङबुङिया वालों के इस रंगारंग कार्यक्रम की शुरूआत दुल्हे के लिये आशीष से होती है और उसके बाद हिन्दी फिल्मी गीतों को बखूबी सुर दिया जाता है।मुन्नी यहाँ भी बदनाम होती है।पूछने पर एक नचनिये ने बताया कि हमारे उस्ताद हर किस्म का डेंस कर लेते हैं।डॉंस को डेंस सुनना अच्छा लगा।नचनिये ने बताया कि चाहे धर्मेन्द्र चाहे जितेन्द्र चाहे गोविन्दा कोई सा भी करवा लो हमारे उस्ताद बहुत अच्छा डेंस करते हैं।जान कर हंसी आई कि बेशक!मुन्नी यहाँ बदनाम हो गई हो मगर डॉंस माफ़ कीजियेगा इनका डेंस अभी भी धर्मेन्द्र,जितेन्द्र और गोविन्दा के इर्द-गिर्द ही घूमता है,रितिक,शाहिद जैसे सितारे अभी गाँवों में नहीं पहुंचे हैं क्या ? नाच देखा तो इनके जुनून का पता चला कोई मंझी हुई अदाकारा भी इतनी भक्ति इतनी श्रद्धा से न नाचती होगी,जैसे ये लोग नाचते हैं।नाचते भी हैं और निगाह भी रखते हैं कि किसने अपने हाथों में रूपये,दो रूपये,दस रूपये पकङ रखे हैं।यही इनकी ऊपरी कमाई है जो सभी में समान रूप से बंटनी होती है,न उस्ताद को अधिक न चेले को कम|

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,676 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress