अंततः दिग्विजयी तीर से हो ही गया लालू का सफाया

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-लिमटी खरे

देश के हृदय प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री रहे सुंदर लाल पटवा ने कांग्रेस के वर्तमान महासचिव और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के बारे में कहा था कि ‘‘दिग्विजय शोध का विषय हैं।‘‘ भाजपा के वयोवृद्ध और अनुभवी नेता सुंदर लाल पटवा की बात आज भी अक्षरशः सत्य ही साबित होती दिखती है। कहा जाता है कि राजा दिग्विजय सिंह जिसके कंधे पर हाथ रख दें, उसका विनाश सुनिश्चित है। कांग्रेस आलाकमान ने राजा दिग्विजय सिंह को बिहार की कमान सौंपी और बिहार से लालू प्रसाद यादव का सफाया हो गया। साल दर साल बिहार पर राज करने वाले लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल का बिहार में अब नामलेवा नहीं बचा है। कल तक स्वयंभू प्रबंधन गुरू लालू प्रसाद यादव को न तो केंद्र मंे और न ही अपने सूबे में ही आधार मिल पा रहा है। बिहार मंे वैसे भी बाहुबलियों का राज रहा है। कांग्रेस ने ही इन बाहुबली, धनपति, अपराधियों को प्रश्रय देकर बिहार की राजनति को प्रदूषित कर दिया है। क्षेत्रवाद, भाषावाद की राजनीति के चलते बिहार के लोगों को महाराष्ट्र विशेषकर मुंबई से वापस भागने पर मजबूर होना पड़ रहा है। केंद्र और मध्य प्रदेश में कांग्रेसनीत सरकारें सत्तारूढ हैं, फिर भी बिहार के लोगों को संरक्षण न मिल पाना निश्चित तौर पर कांग्रेस के लिए डूब मरने की बात है, क्योंकि बिहार ही एसा प्रदेश है जिसने देश के पहले राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद और जयप्रकाश नारायण जैसी विभूतियां दी हैं।

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के पहले चरण में कांग्रेस को केंद्र में सरकार बनाने में पसीना आ गया था। उस वक्त कांग्रेस ने चारा घोटाला के प्रमुख आरोपी लालू प्रसाद यादव को अपने साथ मिलाकर नैतिकता की समस्त वर्जनाएं तोड दी थीं। संप्रग के पहले कार्यकाल में लालू प्रसाद यादव ने रेल्वे मंत्रालय लेकर कांग्रेस पर खासा दवाब बनाया था। इस कार्यकाल में लालू प्रसाद यादव ने रेल्वे को फायदे में लाने की बात कहकर खुद को ‘स्वयंभू प्रबंधन गुरू‘ के तौर पर स्थापित कर लिया था। इस कार्यकाल में लालू यादव ने देश विदेश के आला दर्जे के मेनेजमेंट कालेज में जाकर व्याख्यान भी दिए थे। लालू यादव ने दबाव बनाकर कांग्रेस को बहुत ही हलाकान कर दिया था। यहां तक कि लालू के उपर चारा घोटाले के आरोप में जब भी सीबीआई का दबाव कांग्रेस ने बनाया तब तब लालू यादव और अधिक ताकतवर होकर उभरे थे। आलम यह था कि कांग्रेस के हर हथकंडे पूरी तरह से फ्लाप ही साबित हुए। थक हारकर जब आलाकमान ने बीसवीं सदी में कांग्रेस की राजनीति के चाणक्य राजा दिग्विजय सिंह को लालू यादव को साईज में लाने का काम सौंपा तब जाकर कांग्रेस को चैन आया।

राजा दिग्विजय सिंह ने अपने सधे कदमों से बिहार में कांग्रेस का ग्राफ उंचा करने और लालू प्रसाद यादव के कद को कम करने के प्रयास आरंभ कर दिए। पिछले विधानसभा चुनावों के बाद लोकसभा चुनावों में भी लालू यादव को गहरा झटका लगा। इसके बाद संप्रग की दूसरी पारी में कांग्रेस ने लाल यादव के कुशल प्रबंधन को दर किनार करते हुए मंत्रीमण्डल से बाहर का रास्ता दिखा दिया। अब लालू यादव अर्श से उतरकर फर्श पर आ गए हैं। कल तक कांग्रेस की कालर पकड़कर धमकाने वाले लालू यादव आज कांग्रेस के साथ बातचीत करने की स्थिति तक में नहीं रह गए हैं, यह सब राजा दिग्विजय सिंह की नीतियों का पुण्य प्रताप ही माना जा सकता है।

हाल ही में बिहार विधानसभा चुनावों के जो सर्वे सामने आ रहे हैं, उससे साफ होने लगा है कि इस बार भी लालू प्रसाद यादव का चमत्कार चलने नहीं वाला है। एक सर्वेक्षण के अनुसार इस बार जो परिदृश्य सामने आ रहा है, उसमें चौंकाने वाले नतीजे ही सामने आ रहे हैं। सभी सर्वेक्षणों को मिला लिया जाए तो जो स्थिति बनती है, उसके अनुसार इस बार जनता दल यूनाईटेड और भारतीय जनता पार्टी की जुगलबंदी वापस लौट सकती है।

बिहार की 243 सीटों में से जदयू और भाजपा की सरकार को पिछले बार की 143 के मुकाबले 27 सीटें ज्यादा मिल सकती हैं। इसका आंकड़ा 170 को पार करने की उम्मीद जताई जा रही है। दूसरे नंबर पर लालू यादव की राजद और राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी है जिसे पिछली बार मिली 64 के मुकाबले 34 सीटें ही मिलने की उम्मीद है। कांग्रेस इस बार कुछ फायदे में दिख रही है। कांग्रेस को इस बार 09 के स्थान पर 22 सीटें मिलने की आशा है। चौथे स्थान पर अन्य दलों के रहने की संभावना है। पिछली बार 13 के मुकाबले इस बार इसका आंकड़ा नौ तक सिमट सकता है। बसपा इस बार 04 के स्थान पर महज 02 सीट ही पा सकती है। निर्दलीय की संख्या भी इस बार कम होने की उम्मीद है। पिछली मर्तबा निर्दलीय की संख्या 10 थी जो घटकर 06 हो सकती है।

बिहार चुनाव 24 नवंबर को पूरे हो जाएंगे। सुरक्षा और निष्पक्षता को ध्यान में रखकर बिहार में चुनाव छः चरणों में कराने का फैसला लिया गया है। वैसे भी बिहार में धनबल और बाहूबल (मसल पावर) का जलजला सदा से ही रहा है। इस बार के चुनावों में राजद के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव बहुत ज्यादा अपसेट दिखे वे अपने ही कार्यकर्ताओं को गरियाते पाए गए। इससे साफ हो जाता है कि लालू यादव को कांग्रेस विशेषकर राजा दिग्विजय सिंह ने इस कदर हलाकान कर रखा है कि वे अपना आपा खोते जा रहे हैं। उधर सधी राजनीतिक पायदानों को चलते हुए राजा दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का आभा मण्डल बिहार में भी बिखेरने का प्रयास किया जा रहा है। नेशनल मीडिया को भी इसके लिए पूरी तरह मैनेज करने की तैयारी की जा रही है। कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी की बिहार यात्राओं के कवरेज के लिए कांग्रेस ने पूरा पूरा सकारात्मक एंगल भी सुनियोजित कर लिया है, ताकि राहुल गांधी को राष्ट्रीय राजनीति मंे स्थापित किया जा सके।

कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी ने भी बिहार को अब तक केंद्र सरकार द्वारा दी गई करोड़ों अरबों रूपयों की इमदाद के बारे में पूछकर थमे हुए पानी में कंकर मार दिया है, जिसकी प्रतिक्रिया बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है। उधर बिहार मूल के मध्य प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष प्रभात झा ने कहा है कि बिहार को मिली केंद्रीय मदद कांग्रेस की बपौती नहीं बिहार का हक था। लोगों का मानना है कि बिहार को अब तक पांच सालों में दी गई राशि का हिसाब किताब पूछने की जहमत कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी अब क्यों उठा रही हैं। क्या पिछले पांच सालों में उन्हें इस बारे में मालूमात करने की फुर्सत नहीं मिली? अब जब चुनाव सर पर हैं तब आना पाई से हिसाब किताब करने का क्या ओचित्य? क्या यह पूछ परख राजनैतिक षणयंत्र का हिस्सा नहीं है?

बिहार का पिछड़ापन किसी से छिपा नहीं है। बिहार में अब तक जंगलराज की स्थापना ही हुई है। पिछले पांच सालों में इस जंगल राज को पटरी पर लाने में नितीश कुमार की सरकार बहुत ज्यादा नहीं पर कुछ हद तक तो कामयाब रही है। बिहार के लोगों को लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी के राज और नितीश कुमार के राज में सुशासन और कुशासन का अंतर अवश्य ही समझ में आया होगा। बिहार में जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के अग्रणी नेता रहे शरद यादव, लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार, राम विलास पासवान, सुबोध कांत सहाय आदि ही एक मतेन नहीं हो पा रहे हों तो किस पर दोषारोपण किया जाए।

उधर महाराष्ट्र और दिल्ली में रोजी रोटी कमाने गए बिहार के वाशिंदों को दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित तो महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे और शिवसैनिकों के कोप का भाजन होना पड़ा। राज ठाकरे के फरमान के आगे बिहार के वाशिंदे डरे सहमे रहे, किन्तु भारत गणराज्य में कांग्रेस नीत प्रदेश और केंद्र सरकार राज ठाकरे के आगे पूरी तरह बेबस नजर आई। न तो प्रधानमंत्री, न ही सोनिया गांधी और न ही सूबे की सरकार ने राज ठाकरे की मश्कें कसने का उपक्रम किया। कुल मिलाकर बिहार के लोगों के घाव रिसते रहे और कांग्रेस ने उनके घावों पर मरहम लगाने के बजाए चुप्पी साधकर नमक छिड़कने का ही काम किया है।

बिहार में जातिवाद बहुत अधिक हावी है। यहां ठाकुर, भूमिहार ब्राम्हण, लाला, कुर्मी आदि अनेक जातियों के बीच रार किसी से छिपी नहीं है। राजनैतिक दल भी जातिवाद को हवा देकर उसी जात के उम्मीदवार को मैदान में उतारती है, जिस जाति के लोगों का उस निर्वाचन क्षेत्र में आधिक्य होता है। बिहार तपोभूमि कही जाती रही है। यहां गोतम बुद्ध और महावीर स्वामी की अनमोल वाणियां गुंजायमान होती रही हैं, विडम्बना ही कही जाएगी कि आज इन अनमोल वाणियों के बजाए लोगों के बीच लट्ठ, गालियों, गोलियों की आवाजें गूंज रही हैं।

दुख तो तब होता है जब सच्चाई सामने आती है कि देश पर आधी सदी से ज्यादा समय तक शासन करने वाली सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस ने केंद्र में सत्ता की मलाई चखने की गरज से बिहार को आताताईयों, सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाली जातिवाद की पोषक ताकतों के हवाले कर दिया। बिहार में कांग्रेस का ग्राफ भले ही चंद फीसदी उठता दिख रहा हो, किन्तु यह भी सच है कि बिहार में कांग्रेस का नामलेवा अब नहीं बचा है।

चुनाव के दरम्यान आरोप प्रत्यारोप नेताओं का पुराना शगल रहा है। युवराज राहुल गांधी, विदेश मूल की भारतीय बहू सोनिया गांधी आदि के आकर्षण और चुनावी धुन तरानों के बीच भीड़ तो इकट्ठी की जा सकती है, किन्तु इस भीड़ को वोट में तब्दील करना बहुत ही दुष्कर काम है। सोनिया, राहुल या सुषमा स्वराज अपने उद्बोधनों में एकाध लाईन बिहारी में बोलकर तालियों की गड़गड़ाहट तो बटोर सकतीं हैं, किन्तु यह वोट में तब्दील हो यह बात मुश्किल ही लगती है। बिहार के लोग परिश्रमी होते हैं, समझदार होते हैं, वे जानते हैं कि रोजी रोटी के जुगाड़ मंे जब वे मुंबई दिल्ली जाते हैं तो उन्हें ‘‘बिहारी‘‘ कहकर बेईज्जत किया जाता है। उनके साथ मारपीट की जाती है। उन्हें जबरन धकियाकर भगाया जाता है, पर यह सब कुछ देखने सुनने के बाद भी राजनैतिक दल और उनके राजनेताओं के कानों में जूं तक नहीं रेंगती। चुनाव सर पर हैं, बिहार के लोगों का अपना आंकलन होगा, किसकी सरकार बने या न बने यह फैसला बिहार की जनता को ही करना है, किन्तु राजनेताओं को चाहिए कि भारत के संविधान के अनुरूप देश की एकता अखण्डता बनी रहे इस दिशा में अवश्य ही प्रयास करे, अन्यथा आने वाली पीढ़ी उन्हें शायद ही माफ कर पाए।

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लिमटी खरे
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5 COMMENTS

  1. अब जब बिहार का चुनावी रिजल्ट आ चूका है तो आप का क्या ख्याल है लिमती जी?
    शायद दिग्गी रजा ने कांग्रेस की ही लुटिया डुबो दी!
    और राहुल का भी क्या असर परा ये भी जान लीजिये ९ से २२ का ख्याल था ४ पे पंहुंच गए!

  2. क्या भाई साहेब ! आप ने दिग्विजय जैसे टुच्चे राजनेता को महान देशभक्त और नीतिवान चाणक्य से मिला कर अपने लेख को हल्का कर दिया। काश : शकुनी से मिलाया होता या फिर जय चंद से।

  3. “अंततः दिग्विजयी तीर से हो ही गया लालू का सफाया” -by- लिमटी खरे

    यदि RJD और लालू का बिहार से सफाया हुआ तो इसका कारण दिग्विजयी तीर होंगे – यह लिमटी खरे जी का विश्लेषण स्वीकार नहीं किया जा सकता.
    बिहार के hero तो कहीं और हैं.
    अयोध्या राम मंदिर पर तो कांग्रस पार्टी भय के कारण कुछ बोल तक नहीं पा रही है. मुस्लिम किसको वोट देगा. दिग्विजयी तीर तो फोके हैं, कुछ असर नहीं है.

    – अनिल सहगल –

  4. बिहार का गौरव वापिस लौटना चाहिए …बिल्ली काली हो या सफ़ेद यदि चूहे मारने में कामयाब हो …तो काम की है …श्री दिग्विजयसिंह जी भूतपूर्व राज वंश के हैं ..भद्रलोक के हैं …इंजीनियर हैं ….बहुत अच्छे इंसान हैं किन्तु यह सही है की मध्यप्रदेश को वे १० साल में कुछ खास नहीं दे पाए …लेकिन यह जरुरी नहीं की वे केन्द्रीय राजनीत में सफल न हो पायें .हो सकता है की वे विहार में कुछ कर दिखाएँ …कुछ नहीं तो अगड़े पिछड़े के समीकरण का वंताधार तो कर ही सकते हैं

  5. वाकई दिग्गी राजा शोध का ही विषय हैं। इन्होंने भी मध्यप्रदेश को खूब बर्बाद किया। कर्मचारियों की तो जैसे जान ही निकाल ली। वैसे ये चाणक्य नहीं शकुनी हैं। चाणक्य ने तो चद्रगुप्त का निर्माण किया था वहीं शकुनी ने कौरवों का नाश। वैसे राजा दिग्गी अपने अनर्गल बयानबाजी के लिए भी खासे चर्चित रहते हैं।

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