लालू के चेहरे की चमक बहुत कुछ कहती है

रंजीत रंजन सिंह-

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-जदयू-राजद गठबंधन-2-

मीडिया में चल रही खबरों के अनुसार आगामी बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर जदयू-राजद गठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में नीतीश कुमार के नाम को स्वीकार कर राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने विष का घूंट पिया है। जो लालू नीतीश के पेट में दांत होने की बात कर रहे थे वे नीतीश को कैसे स्वीकार कर सकते हैं। लेकिन लालू के चेहरे पर लौटी खुशी और चमक बहुत कुछ कह रही है।

नीतीश कुमार की सत्ता लोभी राजनीति ने लालू को घर बैठे ही संजीवनी दे दी है और अब वे बिहार की राजनीति में फिर से प्रासंगित हो गए हैं। वरना 2005 के विधानसभा में 54 और 2010 के विधानसभा चुनाव में महज 22 सीटें जीतनेवाला राजद की स्थिति 2015 में भी कमोवेश वही होती अगर जदयू-भाजपा गठबंधन नहीं टूटता। नीतीश ने यह सोचकर भाजपा से नाता तोड़ा कि वे लालू के विकल्प बनेंगे, लेकिन हुआ कुछ और ही। लालू और नीतीश जेपी आंदोलन और गैर-कांग्रेसवाद राजनीति के उपज हैं। ये खुद को सामाजिक न्याय की लड़ाई के अगुआ भी मानते हैं। लेकिन लालू, नीतीश, रामविलास, मांझी, मुलायम या अन्य कोई समाजवदी नेता, सबके लिए सामाजिक न्याय की लड़ाई का मुद्दा सिर्फ सत्ता पाने का एक जरिया भर है। सत्ता मिलने के बाद सबने डॉ. लोहिया और जेपी के सपनों को दूर से सलाम किया। मुलायम ने उत्तरप्रदेश को गुंडों का सुरक्षित अड्डा और सैफई में फिल्मी सितारों के लिए हवाई अड्डा बनाया तो लालू ने 1990 से 2005 के दौरान बिहार को भूतबंगला बनाकर रख दिया। चरवाहा विद्यालय का उनका सपना भले ही पूरा नहीं हुआ लेकिन प्राथमिक, मध्य और उच्च विद्यालय तबेलों में बदल गए। सड़क, अस्पताल, रोजगार, बिजली क्या-क्या गिनाई जाए, कोई ऐसा विभाग नहीं था जो कुशासन से त्रस्त नहीं था। अपहरण रोज की बात थी तो हत्या और नरसंहार के क्या कहने! कभी बारा नरसंहार तो कभी बाथे, कभी लक्ष्मणपुर नरसंहार तो कभी मियांपुर। दो चार नहीं, दर्जनों लोगों की सामुहिक हत्या आम बात हो गई। लेकिन सामाजिक लड़ाई के सिपाही पटना की कुर्सी पर बैठकर जातीय हिंसा का तमाशा देखते रहे। पूरी दुनिया की नजर में बिहार में जंगलराज हो गया। 2000 आते आते देश और राज्य की राजनीति में काफी कुछ बदला। केन्द्र में भाजपानीत राजग की सरकार थी तो बिहार में भाजपा-जदयू को सत्ता से दूर रखने के लिए लालू ने गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति छोड़ते हुए कांग्रेस के समर्थन से राबड़ी देवी की सरकार बनवाई। राजद के खाते में 75 सीटें थीं। सूचना और तकनीक मजबूत हुआ, इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन का दौर आया और के.जे. राव चुनाव आयोग के पर्यवेक्षक के तौर पर 2005 के विधानसभा चुनाव में बिहार आए। लोगों ने जंगलराज के खिलाफ अपने मताधिकार का जमकर प्रयोग किया और राजद 54 सीटों पर सिमट गया। 15 साल बाद लालू की पार्टी विपक्ष में बैठी और नीतीश ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई। पांच साल में बहुत कुछ बदला तो बदलाव का असर 2010 के विधानसभा चुनाव के नतीजों पर भी पड़ा और राजद को केवल 22 सीटें ही मिलीं। लालू-राबड़ी की सुध-बुध गायब। पूरी पार्टी कोमा में चली गई। चारा घोटाले मामले में लालू के जेल जाने के बाद पार्टी पर बर्चस्व को लेकर लिए पार्टी से लेकर लालू के घर तक कोहराम मचा। अब्दुल बारी सिद्धकी, पप्पू यादव और राबड़ी देवी के बीच रस्साकस्सी चली। राबड़ी के घर में भी बड़े-बड़े ड्रामे हुए। कभी राजद ससुराल पार्टी कही जाती थी, अब राबड़ी के घर में ही नेता बनने की लड़ाई बेटे-बेटियों के बीच चलने लगी। नतीजा यह निकला कि लालू की अनुपस्थिति में राबड़ी पार्टी कार्यक्रम में जहां भी गईं दोनों बेटों को लेकर गईं। लालू जेल से बाहर आए तो उनकी प्राथमिकता किसी तरह मीसा भारती, तेजस्वी और तेजप्रताप को राजनीति में जगह पकड़ाना था। मीसा को तो उन्होंने लोकसभा चुनाव भी लड़वाया लेकिन असफलता हाथ लगी। मोदी लहर ने सबकुछ चौपट कर दिया। लोकसभा चुवाव में जदयू की भी बुरी हार और नीतीश का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की घटना लालू के लिए संजीवनी बनकर आई। एक तरफ मांझी सरकार को लालू ने समर्थन दिया तो दूसरी ओर 10 सीटों पर हुए विधानसभा उपचुनाव में राजद-जदयू और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा और 6 सीटों पर जीत दर्ज की। यहां से यह साफ हो गया कि तीनों मिलकर भाजपा को हराया जा सकता है। इसी थियोरी को आगामी विधानसभा चुनाव में भी आजमाने की पहल हुई और अब जदयू-राजद-कांग्रेस साथ-साथ चुनाव लड़ने की तैयारी में है। कोमा में भर्ती पार्टी को नीतीश कुमार ने जिंदा कर दिया। खबर है कि राजद 100 से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस जातीय समीकरण के तहत समझौता हुआ है अगर सफल वो रहा तो राजद को भारी जीत मिल सकती है। लेकिन लालू प्रसाद के लिए इस जीत से भी बड़ी बात यह है कि उन्होंने जिस तरीके से नीतीश कुमार को साधा और प्रदेश में गैर-भाजपावाद की धूरी में खुद को स्थापित किया, उससे साफ है कि बिहार की राजनीति में लालू की वापसी हो गई है। उनके चेहरे की चमक भी इस बात की पुष्टि करती है बस गौर से पढ़ने और समझने की कोशिश किजिए। चलते-चलते किसी कवि की दो पंक्तिः

दो नावों की बात पुरानी, अब तो युग है बेड़ों का

सत्ता हेतु कई नाव में, पांव चतुर गुरू धरता है।

दुर्याधन के दल में शामिल, सत्ता के भूखे पांडव

चीर द्रोपदी का इस युग में, भीम स्वयं ही करता है। (जारी…)

3 COMMENTS

  1. लालू प्रसाद जैसा राजनीतज्ञ आज तक कोई हो नहीं पाया। आखिर नितीश कुमार को भी उनके क़दमों में जाना ही पड़ा। आगे देखते है क्या होता है बिहार की राजनीति में। सुन्दर विश्लेषण किया है आपने। जारी रखिये।

  2. इस आलेख में आपने बहुत ख़ूबसूरती से बिहार की राजनीति के इस धुरंधर के “मन की बात” को पेश किया है,अब देखना यह है की यह धुरंधर धुरंधर साबित होता है या फिर धूल फाँकता है!

    कुमार चंद्रशेखर कश्यप

  3. एक बार जिसे सत्ता की चाट लग जाती है वह फिर किसी भी स्थिति में सत्ता के गलियारे से बाहर नहीं आ सकता। लालूजी जनता पार्टी में तत्कालीन जनसंघ के साथ थे तब वह साम्प्रदायिक नहीं थी. वे यूपी ए प्रथम में कांग्रेस के साथ थे तब कांग्रेस खराब नहीं थी। जब नीतीश भाजपा के साथ रहकर मुख्य मंत्री थे तब नीतीश अहंकारी थे ,अब नीतीश को उन्होंने नेता मानकर अपना चेहरा जैसे तैसे बचा या है.नेता के जीवन में एक समय ऐसा आता है जब उसके तुरुप के पत्ते चलना बंद कर देते है. काठ की हंडी बार बार चु ल्हे पर नहीं चढ़ा करती। बेहतर यह होगा की लालूजी अब अपना समय बजाय राजनीती के समाज सेवा में गुजारें.

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