-श्रीराम तिवारी-
मैं बचपन से ही योग -अभ्यास और शारीरिक व्यायाम करता आ रहा हूँ। इक्कीस जून को भी करूंगा। यदि मोदी जी नहीं करवाते तो भी करता। यदि किसी कारण से वे इस सामूहिक आयोजन को निरस्त भी करते हैं फिर भी मैं तो उस दिन भी सुबह ६ बजे निश्चय ही करूँगा। क्योंकि यह मेरी दिनचर्या का आवश्यक हिस्सा है। योगी आदित्यनाथ जैसे बड़बोले नेता-कम-साधु या किसी शासक के भय से न तो योग छोड़ूंगा और न शुरू करूंगा। मेरा मानना है कि बेहतरीन जीवन के लिए ‘योग’ क्रिया एक अचूक वैज्ञानिक उपादान है। योगक्रिया एक बेहतरीन जीवन शैली है। इसलिए मैं नित्य ही उसका यथा संभव अभ्यास करता हूँ। और आजीवन करता भी रहूँगा। जाहिर है कि २१ जून को भी मैं योगाभ्यास करूंगा। यह महज इसलिए नहीं कि किसी नेता या बाबा का फरमान है !
मैं उनका विरोधी नहीं जो योग -ध्यान इत्यादि नहीं करते। मैं उनका भी विरोधी नहीं जो २१ जून को यह सब नहीं करेंगे ! मैं मोदी जी के आयोजन का भी विरोधी नहीं हूँ। योगाभ्यास की वैश्विक और सामूहिक प्रतीकात्मक शुरुआत के लिए भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ,उनके प्रेरणा स्त्रोत स्वामी रामदेव जी और यूएनओ सेक्रेटरी जनरल मि. बान – की -मून- का तो हमे तहेदिल से शुक्रिया अदा करना चाहिए। भले ही इस आयोजन के पीछे इन सबकी कोई भी मनसा रही हो किन्तु दुनिया भर में भारतीय ‘योग’ का मान तो अवश्य ही बढ़ा है। इससे भारत के खाते -पीते उच्च मध्यम वर्ग की चटोरी जुबाँ पर कुछ तो लगाम लगी है !
भारतीय पुरातन मनीषियों ने योगविद्द्या के रूप में संसार के शोषक वर्ग को तो बेहतरीन तोहफा दिया है । वेशक उनकी मंशा शायद यही रही होगी कि इस धरा पर जो लोग योगाभ्यास करते हैं या करेंगे वे एक दिन नेक और अच्छे इंसान जरूर बनते हैं। वशर्ते ‘योग’ की सही तश्वीर संसार के सामने हो।हालाँकि भारतीय उप महाद्वीप की मेधाशक्ति इसी क्षेत्र में भटकती रही है। भारतीय चिंतकों और अन्वेषकों की बिडंबना रही है कि ज्ञान-ध्यान-योग जैसी आध्यात्मिक उड़ानों में तो बेजोड़ रहे हैं किन्तु मेहनतकश आवाम-के लिए,किसानों के लिए और आर्थिक -सामाजिक विषमता के लिए उनके पास एक शब्द नहीं था। यही वजह रही है कि हजारों सालों से भारत में केवल हल-बेल और मानसून ही जीवन आधार रहे हैं। जब अंग्रेज – डच -फ्रेंच और यूरोपियन आये तब भारत की जनता ने जाना कि संविधान और ‘लोकतंत्र’ किस चिड़िया का नाम है ? कम्प्यूटर ,इंटरनेट,टीवी मोबाईल ,रेल ,डाक,तार,टेलीफोन ,स्कूटर ,कार ,पेट्रोलियम ,मोटर,इंजन से लेकर सिलाई मशीन तक सब कुछ विदेशी है। रुद्राक्ष की माला ,त्रिशूल ,कमंडल और योग क्रिया ही शुद्ध देशी है । बाकी सब विदेशी है। हमारे अतीत के वैज्ञानिक चमत्कार यही हैं। योगी आदित्यनाथ को याद रखना चाहिए कि ‘यह सन्सार माया है ,भौतिक संसाधन और वैज्ञानिक उपकरण सब मृगतृष्णा है’ अतः इनके साथ -साथ राजनीति से सन्यास लेकर उन्हें अपने दंड -मंडल सहित योग-ध्यान में लींन हो जाना चाहिए।
जिस तरह मानव सभ्यता के इतिहास में पश्चिमी राष्ट्रों के चिंतकों – वैज्ञानिकों ने, न केवल राष्ट्र राज्यों की अवधारणा का आविष्कार किया ,अपितु कृषि,विज्ञान,रसायन,चिकित्सा,रणकौशल, तोप ,बन्दूक , बारूद सूचना एवं संचार ,अंतरिक्ष विज्ञान और स्थापत्यकला में चहुमुखी विकास किया है। ठीक उसी तरह दुनिया की हर कौम ने , हर कबीले ने , हर देश ने, हर समाज ने -अपने ‘जन समूह’ को अजेय ,स्वश्थ और पराक्रमी बनाने के लिए भी कुछ न कुछ सार्थक शारीरिक व्यायामों का भी विकाश भी किया है। भारत ,चीन और पूर्व के देशों के मध्य पुरातनकाल से ही इस शरीर सौष्ठव प्रक्रिया का उन्नत योग के रूप में आदान-प्रदान होता रहा है। चीन ,जापान ,कोरिया ,थाइलैंड इत्यादि में शारीरिक पौरुष को मार्शल आर्ट- कुंग-फु- जूड़ो -कराते- ताइक्वांडो और सूमो इत्यादि में निरंतर निखार होता रहा है।इसे ही बाद में आत्म रक्षार्थ बौद्ध भिक्षुओं ने परवान चढ़ाया।
भारतीय चिंतकों ,ऋषियों और प्राचीन मनीषियों ने इस शारीरिक मशक्क़त अर्थात व्यायाम को – मानसिक ,लौकिक, दैविक, पारलौकिक और आध्यात्मिक आवेगों के साथ संबद्ध कर ‘योग’ में रूपांतरित कर दिया । उनके मतानुसार मानव शरीर को महज बंदरों ,भालुओं की तरह उछल-कूंद कराने मात्र से ही यह योग सिद्ध नहीं किया जा सकता। उन्होंने सूर्योदय के समय शुद्द आबोहवा में प्राणवायु को ठीक से पहचाना। पेड़ों की पत्तियों पर आपतित प्रातःकालीन सूर्य रश्मियों से क्ल्रोफिल क्रिया और उससे उतपन्न आक्सीजन का ज्ञान भले ही पतंजलि को न रहा हो किन्तु प्राणवायु का महत्व तो वे जरूर वे जानते थे। यदि उन्होंने दो हजार वर्ष पूर्व यह पता लगा लिया कि यह धरती ‘सूर्य’ की परिक्रमा करती है और इसका जन्म भी सूर्य से ही हुआ है अतः सूर्य को नित्य शुक्रिया अदा करने में के गलत है ? इससे तो मनुष्य में कृतग्यता का ही भाव आता है ! इससे आराधक का ऊर्जावान होना भी स्वाभाविक है ।
इसी तरह से इस्लामिक जगत में भी यदि सूर्योदय से पहले की नमाज का महत्व है और उसका प्रयोजन इसी तरह से आंका गया है की सुबह जल्दी उठो और अल्लाह को उसकी नेमतों का शुक्रिया अदा करो। जब कोई व्यक्ति सुबह जल्दी उठेगा और शरीर -मन -प्राण की शक्ति संचित करेगा तो उसमें सूर्य का कुछ तो एहसान होगा। इसके अलावा वजू या नमाज की मुद्राएँ हों , पंचकर्म या सूर्य नमस्कार की मुद्राएँ हों, यदि ध्यान से देखें तो सभी में वही खास तत्व उभयनिष्ठ है ,जिसकी हर नेक इंसान को शिद्द्त से जरुरत है।इसीलिये सूर्य नमस्कार का विरोध करना या योग का विरोध करना उतना ही बड़ा गुनाह है जितना कि योगी आदित्यनाथ ने -योग नहीं करने वालों को समुद्र में डूबने का अभिशाप देकर किया है।
बिना सूर्य नमस्कार के बचे-खुचे शारीरिक श्रम को यदि योग कहा जाए तो यह ‘योग ‘ का तिरस्कार है। स्वामी रामदेव और नरेंद्र मोदी आज जिसे योग बता रहे हैं वह भी केवल ‘मर्कट नर्तन’ मात्र है। भीषण गर्मी ,कड़कड़ाती ठण्ड में भूंखे-नंगे आदिवासियों को ,बारह महीना खेतों में काम करने वाले किसानों, फैक्ट्रियों-कारखानों में तथा निर्माण क्षेत्र में पसीना बहा रहे मजदूरों को इस यह २१ जून की नौटंकी में शामिल होने की फुर्सत कहाँ ? उन्हें तो योग भी किसी तपश्या से कम नहीं। भूंखे भजन न होय गोपाला। इसलिए इस निर्धन सर्वहारा वर्ग के लिए अपनी आजीविका के अलावा किसी भी ‘योग’ -भोग की अभिलाषा नहीं है। वह अपने खून पसीने से तमाम उत्पादन और सृजन साकार करते हुए ही नित्य ही ‘सहज योग’ करता रहता है ,यदि मोदी जी द्वारा आहूत कार्यक्रम [योग] से उसे दो-जून की सूखी रोटी भी नसीब हो जाएतो वह अभिनंदनीय है। अन्यथा उसके श्रम को किसी योग या भोग की नहीं अपितु न्यूनतम मजदूरी तथा किंचित पोषित आहार – रोटी-कपड़ा और मकान की ही दरकार है।
पुरातनकाल से ही यह तथाकथित ‘योग’ अपने बुनियादी स्वरूप में -शारीरिक व्यायाम के रूप में पहले फौजियों- सेनानियों के लिए अनिवार्य था। सामंतयुग में इन्द्र्जालिकों ने, गोरखपंथियों ने ,चंद्रकांता संतति जैसे नटविद्द्या – मोहनी विद्या में माहिर जासूसों ने योग को चमत्कारिकता प्रदान की। लेकिन वास्तविक योगियों ने इस तरह की पाशविक शक्ति अर्जन को ‘योग’ नहीं ‘तामसी कर्म ‘ कहा है। इसी तरह केवल अपने निजी निहित स्वार्थ के निमित्त किये गए अष्टांगयोग -यम नियम ,आसन ,प्रत्याहार ,प्राणायम ,ध्यान , धारणा और समाधि को भी योग नहीं कहा जा सकता। केवल लोम-विलोम ,भस्त्रिका,कपालभाती ,अग्निसार या भ्रामरी प्राणायाम को भी योग नहीं है। ये सभी प्रयोजन तो ‘योग’ के निम्नतर क्रमिक सोपान हैं। वास्तविक योग के विषय में तो स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण का कथन है कि :-
तपस्विभ्योSधिको योगी ,ज्ञानिभ्योSपि मतोSधिक :।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी ,तस्मात् योगी भवार्जुन।।
–श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय-६ ,श्लोक -४६
भावार्थ स्पष्ट है कि योग के मार्ग में आडंबर ,पाखंड ,दिखावा ,राजनैतिक निहित स्वार्थ इत्यादि बाधाओं करना जरुरी है। जब तपश्वी, ज्ञानी और कर्मशील भी योगी के समक्ष बौने हैं तो जो रोज सुबह से शाम झूठ बोलने वाले क्या ख़ाक योग समझते होंगे ? यदि उनका अभिप्राय केवल शारीरिक श्रम से है और यदि उनके मन-मष्तिष्क में तमोगुण कूट -कूट कर भरा है तो इक्कीस जून को हो या जिंदगी भर, उनका योग कभी सधने वाला नहीं है। बेशक वे सुडौल शरीर के मालिक बन सकते हैं। उनका ५६ इंच का सीना भी हो सकता है। किन्तु वे ‘योगी’ नहीं हो सकते। वे योग की ब्रांडिंग कर सकते हैं। जो लोग मानते हैं कि इस तरह के अधकचरे प्रदर्शन से दुनिया में ‘योग’ की या भारत की प्रतिष्ठा बढ़ेगी बड़ा मान होगा वे बड़े भोले और ‘अयोगी’ हैं। दरअसल उन्हें योग का अ ब स याने ककहरा भी नहीं मालूम। उन्हें यह याद रखना होगा कि ‘सच्चा योग ‘ तो इस लौकिक संसार से विरक्ति के उपरान्त ही साधा सकता है। योग सिर्फ शारीरिक मशक्क़त नहीं है।योग कोई धार्मिक पाखंड नहीं है। यह विशुद्ध विज्ञान है। क्रांतिकारियों के लिए तो यह योगाभ्यास परम आवश्यक है। यह शक्ति -स्फूर्ति तो देता ही है साथ ही अन्याय और अत्याचार से लड़ने का जज्वा भी देता है। जिसे विश्वास न हो वह मोदी जी की सफलता से ही इसकी महिमा का अंदाज लगा सकता है।
योग गुरु स्वामी रामदेव ,श्री-श्री और अन्य अनेक स्वनामधन्य ‘योगी’ महर्षि भी वास्तव में परफेक्ट ‘योगी’ नहीं हैं। जिनका एक पाँव राजनीति की नाव पर हो , दूसरा पाँव मीडिया की नजर का गुलाम हो वे ‘नट ‘ हो सकते हैं किन्तु ‘योगी’ नहीं। वेशक यदि इस शारीरिक मशक्क़त के साथ -साथ व्यक्ति , समाज और राष्ट्र को समोन्नत बनाने ,सुसभ्य बंनाने,शोषणविहीन समाज -अन्याय अत्याचारविहीन समाज स्थापित करने की तमन्ना हो , देश और दुनिया के दैहिक ,दैविक,भौतिक संतापों-कष्टों से निजात दिलाने की कामना हो श्रेष्ठतम मानव के निर्माण की अभिलाषा हो, तो ही सच्ची ‘योग’ सिद्धि सम्भव है। वास्तविक योग क्रिया कोई घातक – साम्प्रदायिकता नहीं है। दरसल धर्मनिरपेक्ष मानसिकता वाला व्यक्ति ही सच्चा योगी बन सकता है। इसमें घृणा ,द्वेष या बैरभाव नहीं बल्कि समता और करुणा का भाव ही धजता है। केवल हिन्दू साधु -संत ही योगी नहीं हुए हैं – जनक[विदेह], श्रीकृष्ण ,पतंजलि रामदेव ही योगी नहीं हुए हैं, बल्कि यहूदी-पारसी- इस्लाम – ईसाइयत -जैन -बौद्ध इत्यादि दर्शन परम्परा में भी महानतम योगी-सिद्ध और महात्मा हुए हैं। उन्होंने किसी को भी जबरन योग हेतु बाध्य नहीं किया।
सत्तारूढ़ भाजपा सांसद [अ]योगी श्री आदित्यनाथ जैसे लोग यदि कह रहे हैं कि सूर्य नमस्कार या योग नहीं करने वालों को ‘समुद्र में डूब मारना चाहिए ! तो इससे योग नहीं करने वालों या गैर हिन्दुओं की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला । बल्कि यह तो सरासर हिंदुत्व का और योग का ही अपमान है।नकली ‘योगी’ आदित्यनाथ या उनके जैसे भगवाधारियों को योगी कहना तो योग का अपमान है !उन्होने या तो पातंजलि योगसूत्र पढ़ा ही नहीं या फिर उन्होंने अपने ही आदि गुरु गोरखनाथ को भी ठीक से नहीं समझा ! ‘कबीर’ नानक ,रैदास को वे समझ पाएंगे इसका सवाल ही नहीं उठता। उन्हें शायद ही ज्ञात हो कि ‘योग’ के बहुआयामी उद्देश्य के लिए ‘पतंजलि’ जैसे कुशल योगाचार्यों ने विभिन्न ‘योग सूत्रों’ का वैज्ञानिक अन्वेषण करते हुए बेहतरीन प्रतिपादन किया है । बिना किसी भय व रागद्वेष के उन महान ऋषियों ने मानव मात्र को ‘योग’ की कला का ज्ञान दिया। उन्होंने उद्घाटित किया कि मानव मात्र अपने शरीर मन बुद्धि,अहंकार और प्रकृति के साथ इन सबका सांगोपांग तादात्म्य स्थापित कर शतायु हो सकता है।अर्थात ‘जीवित शरदः शतम’ की कामना के साथ -साथ संसार के सभी प्राणियों और प्रकृति से बेहतरीन सामंजस्य की कला को ही उन्होंने योग कहा है – इसे उन्होंने अपने एक खास सूत्र में इस प्रकार व्यक्त किया है।
‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ‘
अर्थात चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। इसमें एकांत का बड़ा महत्व है। यह सड़कों पर या कैमरे के सामने प्रदर्शित तो किया जा सकता है किन्तु इसे ‘साधा’ नहीं किया जा सकता। योग कोई प्रदर्शनीय वस्तु नहीं अपितु शानदार अनुकरणीय कला है।इसके बारे में स्वामी समर्थ रामदास कह गए हैं:-
‘योगिनांम साध ली जीवन कला ‘
इसी को वेदव्यास ने निम्न प्रकार से व्यक्त किया है –
योग क्षेम बहाम्यहम्
अथवा
‘तस्मात् योगी भवार्जुन ! [भगवद्गीता ]
जो इसे जानते और मानते हैं वे ही इसे कर सकते हैं। जब स्वामी रामदेव का नाम भी मैंने नहीं सुना था तब बचपन में गाँव में पीपल या पलाश की छाँव में भी हम ‘अष्टांगयोग’ किया करते थे। गायों-बेलों का चारा-पानी ,खेती -मजूरी सब करते हुए भी न केवल पढाई-लिखाई बल्कि योग-व्यायाम इत्यादि में भी हमारी रूचि हुआ आकृति थी। टीवी या मीडिया पर किसी की शारीरिक -मानसिक चेष्टाओं देखकर हमने योग नहीं सीखा।किसी प्रदर्शनीय सामूहिक प्रयोजन का नाम योग नहीं है। इसे तो एकांत में ही साधा जा सकता है। इसी तरह इसके आयोजक यदि सूर्य नमस्कार को भी किसी के दबाव में छोड़ रहे हैं तो यह और भी अधिक आपत्तिजनक है।
बहरहाल संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आहूत ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ इक्कीस जून को दुनिया भर में मनाने की जोरदार तैयारियाँ चल रही हैं। वेशक योग दिवस के इस महत आयोजन के पीछे भारत के वर्तमान पीएम श्री नरेंद्र मोदी की खास भूमिका रही है। वेशक भारत के योग गुरु स्वामी रामदेव ने भी इस योग को अंतर्राष्टीय पहचान दिलाई है। उन्ही की प्रेरणा से मोदी सरकार के नेतत्व में दिल्ली और कतिपय राज्य सरकारें भी इस ‘योग दिवस’ को कुछ इस अंदाज में प्रचारित कर रहीं हैं मानों भारत में कोई विराट जन क्रांति होने जा रही हो ! इस तरह के अनावश्यक आक्रामक प्रचार-प्रसार से वे लोग सशंकित हो जाते हैं जो नादानी में यह मान बैठे हैं कि यह ‘योग तो केवल हिन्दु-मठाधीशों की ही बपोती’ है।
मैं बचपन से यह योग -प्राणायाम बगैरह करता आ रहा हूँ। २१ जून को भी करूंगा। किन्तु यह किसी के कहने सुनने से नहीं। वैसे भी ‘योग’ की महत्ता पर दुनिया में कोई दो राय नहीं हो सकती। दुनिया का कोई भी जागरूक बेहतरीन इंसान जो स्वयं का और समाज का हितेषी है वो ‘योग’ का विरोध कर ही नहीं सकता। लाख आरोपित किया जाए कि ‘मोदी सरकार’ का यह ‘योग’ आयोजन राजनीति से प्रेरित है या इसमें साम्प्रदायिकता की ‘बू’ आती है , किन्तु यदि चीन ,जापान ,अमेरिका ,यूरोप या जर्मनी के डाक्टरों से पूंछो तो वह भी इस ‘योग’ का ही समर्थन ही करेगा।
ये बीजेपी वाले धार्मिक थे ही कब ??? धर्म-जाति-भाषा के नाम पर और कितना —– 1८ चैनल्स को खरीदकर रिलायंस ने पत्रकारिता की अंतिम क्रिया कर दी है , इसलिए कोई रिलायंस-गुजरात की सच्चाई नहीं दिखा रहा है . कॉरपोरेट जगत रिलायंस में तो रिलायंस स्कूल के प्रिंसिपल पाकिस्तानी बॉर्डर जाम्नगर ( गुजरात ) में बच्चों के मन में जहर भरते हैं वो भी हिंदी दिवस ( 14-9-10 ) के दिन माइक पर प्रात:कालीन सभा में :- ” हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है आपके शिक्षक-शिक्षिकाएँ गलत पढ़ाते हैं ”
” धर्म एक अफीम है जिसे खिलाकर जनता को मूर्ख बनाया जा सकता है ” कार्ल मार्क्स का यह कथन आज सार्थक होता दिख रहा है !
चाहे द्वारका धाम के शंकराचार्य हों – चाहे पोरबंदर के रमेश भाई ओझा – चाहे साबरकांठा के आचार्य ज्ञानेश्वर सब किसी न किसी घराने के समर्थक बन गए हैं !!
सोमनाथ मंदिर का इतिहास जानते हुए भी तिरुपति-साईंमंदिर आदि में जमा धन गरीबों की भलाई में नहीं लग रहा है ?
केवल आम आदमी पार्टी ही नहीं कम्यूनिस्टों को भी साम-दाम-दण्ड-भेद आदि नीतियों से अलग कर दिया गया है जो लोकतंत्र के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है —–
गुजरात में तो गरीब मरने के लिए विवश हैं धर्म-भाषा- जाति के नाम पर परेशान किए जा रहे हैं – हिंदी शिक्षक-शिक्षिकाओं तथा उनके बच्चों तक के साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है — लिखित शिकायतें महामहिम राष्ट्रपति-राज्यपाल प्रधानमंत्री सीबीएसई आदि के इंक्वायरी आदेश आने पर भी गुजरात सरकार कुछ नहीं कर रही है ?
ये राष्ट्रभक्त कब थे ???
जिस समय पूरा देश पाकिस्तानियों द्वारा भारत के सैनिक का सर काटे जाने तथा दिल्ली की दुखद घटनाओं से दुखी था उसी समय वाइब्रेंट गुजरात के अहमदाबाद में आयोजित ‘बायर सेलर मीट’ में 9 और 10 जनवरी 2013 को पाकिस्तानी शिष्टमंडल ने भी शिरकत की थी ( देखिए राजस्थान पत्रिका -13-1-13,पेज नम्बर -01)