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भूमि-अधिग्रहण नहीं चाहिए; क्यों? 

-डॉ. मधुसूदन –

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(एक) हमारा संकीर्ण दृष्टि दोष:
हम चाहते हैं; कि, राष्ट्र की प्रत्येक समस्या के समाधान में, हमारी इकाई को, हमारे प्रदेश को, हमें लाभ पहुंचे। और जब ऐसा होता हुआ, नहीं दिखता, तो हम समस्या को हल करने में योगदान देने के बदले, समस्या के जिस गोवर्धन पर्वत को उठाना होता है, उसी पर्वत पर चढ़कर बैठ जाते हैं। तो, पर्वत का भार बढ़कर, उसे उठाना असंभव हो जाता है। समस्याएँ लटकी रहती हैं। उनके सुलझने से जो कुछ लाभ हमें होना था; उस लाभ से भी हम वंचित रहते हैं।
बंधुओं, ऐसे समस्या का समाधान नहीं निकलता। न देश को समस्या सुलझाने से लाभ होता है। एक घटक के नाते जो लाभ हमें पहुंचना होता है, वह भी नहीं पहुंचता।


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दो) क्या प्रत्येक समाधान से सभी को लाभ?
हर समस्या के सुलझने से हर कोई को लाभ प्रायः कभी नहीं होता। पर अनेक राष्ट्रीय समस्याएँ सुलझने पर जो कुल सामूहिक लाभ होता है, वह अनुपात में कई गुना अधिक होता है।
पर सारी  कुक्कुरमुत्ता पार्टियाँ  छोटी छोटी इकाइयों के स्वार्थ पर टिकी हैं। किसी समुदाय के स्वार्थ को उकसा कर आप झटपट संगठन खडा कर नेता बन सकते हैं। त्याग के आधार पर संगठन करना कठिन होता है।और राष्ट्रीय दृष्टि से संगठन खडा करना और भी कठिन है। ऐसे, राष्ट्रीय दृष्टिका अभाव चारों ओर दिखता है। वैयक्तिक स्वार्थ को उकसाकर संगठन खड़ा करना तो सरल होता है; इस लिए, छोटी-छोटी इकाइयों के बहुत सारे संगठन आप को देशभर में, दिखाई देंगे। सामान्यतः, ऐसे संगठन उन्नति की बालटी के अंदर अपना, पैर गड़ाकर उसे दूसरों से, उठवाना चाहते हैं; उन्नति के, गोवर्धन पर्बत पर चढ़कर, उसका  भार बढ़ाकर उसे दूसरों से उठवाना चाहते हैं। ऐसे, जब समस्याएँ हल नहीं होती तो अपनी इकाई को छोड़कर शासन सहित अन्य सारों को दोष देते हैं।

पर, कुछ त्यागव्रती निःस्वार्थ संगठन भी हैं, जिनके नेतृत्व में राष्ट्रीय-दृष्टि के कर्णधार हैं, पर ये अपवाद ही माने जाएंगे। भाग्य है, हमारा कि, ऐसे संगठनों ने ही भारत को आपत्तियों में सदैव सहायता की है। 

(तीन) क्या हम जनतंत्र में विश्वास करते हैं?
कहने के लिए हम जनतांत्रिक है, वास्तव में हम स्वार्थतांत्रिक हैं। हमारे लिए हर समाधान या समस्या का हल, मेरे प्रदेश को, मेरी जाति को, मेरे समुदाय को क्या मिला, इसी निकष पर टिका है।

(चार) हमारा निकष: 

हमारा निकष है, ऐसा हल जिस में बिना अपवाद, सभी का लाभ हो। किसी को कुछ देना ही ना पड़े। लाभ ही लाभ होना चाहिए।  तभी, सबका साथ, सबका विकास सार्थक होगा। हम मूर्ख हैं।
ऐसे निकष का अर्थ विस्तार यही होगा, कि, हमारे लिए, प्रत्येक समाधान ==>सारे घटक प्रदेशों के स्वार्थों का जोड़ होना चाहिए। उस जोड़ में यदि मेरे गुट का नाम नहीं है, तो हम चढ़ जाएंगे गोवर्धन पर्वत पर। फिर उठाके दिखाइए, उस पर्वत को। या हम जो बाल्टी उठाने का प्रयास हो रहा है, उस बाल्टी में अपने पैर गाड़ देंगे। दिखाइए उठाकर उस बाल्टी को।
क्या इसे राष्ट्रीय दृष्टि कहा जा सकता है?
नहीं। यह स्वार्थी वृत्ति ही राष्ट्रीय समस्या के हल में अड़ंगा है।
इस भाँति समस्याएँ कभी भी हल नहीं हो सकती। 

(पाँच) गुजरात का अनुभव: 
यदि यही नीति गुजरात में गत १० वर्षों में अपनायी गयी होती, तो, सरदार सरोवर (नर्मदा) बांध बन ही ना सकता। और आज सारे कच्छ को और अंशतः राजस्थान को भूमि सिंचन का पानी न पहुंचता। गुजरात के नगर वासियों को २४ घण्टे पानी ना मिलता। साणंद समृद्धि के मार्गपर आगे ना बढ़ता।
एक गुना घाटा हुआ तो सामने १०० गुना से अधिक लाभ हुआ। यह अनुमान लेखक का नहीं, पर विशेषज्ञों का है।

गुजरात में क्या हुआ?
एक (१) एकड़ की भूमि के बदले, सैंकड़ों (१००+) एकड़ भूमि उपजाऊ हो गयी। पूरे कच्छ और कुछ राजस्थान की भूमि भी उपजाऊ हो गयी। कितने सारे नगरों को २४ घण्टे पानी की आपूर्ति होने लगी, बिजली मिलने लगी।

(छः) युक्तियों की पराकाष्ठा

युक्तियों की पराकाष्ठा भी कम न थीं। नर्मदा की नहर के ऊपर ही छत लगाई गयी। जिस से धूप के कारण भाँप बनकर उड़ जानेवाला पानी बचाया गया। फिर छत के ऊपर सौर ऊर्जा संग्राहक लगाए गए। सौर ऊर्जा का संग्रह कर, बिजली निर्मिति भी की गयी।

सोचिए। नर्मदा का बाँध और नहरें बनाने जितनी भूमि लगी।
(क)  उसके बदले में गुजरात सहित कच्छ की कुल भूमि सिंचित हुयी।
(ख) गुजरात के नगरों को २४ घण्टे पानी मिला ।

विशेषज्ञों के अनुसार:
(लाभ /घाटे) के अनुपात की संख्या १०० से भी काफी बड़ी निकली।
एक एक एकड़ भूमि के बदले कई कई एकड़ों को सिंचन ।

कुल खाद्यान्न की उपज भी कई गुना बढ़ी ।
फिर नर्मदा की नहर पर छत लगी।
उस छत के कारण धूप से, भांप बनकर उड़ जानेवाला पानी बचा।
उस छतपर सौर ऊर्जा से बिजली भी बनाई गई।
सौर ऊर्जा किसी भी प्रकार की दूषित वायु नहीं फैलाती।
नहर पर की छत भांप से पानी का व्यय भी बचाती है।
और सौर ऊर्जा के लिए अतिरिक्त भूमि भी बचती है।

(सात) मेरा प्रत्यक्ष अनुभव:

मैं जब, अहमदाबाद गया तो २४ घण्टे नल में पानी देखकर ही चकित था। पहले नल को खोल खोल कर पानी परखा जाता था। ये ऐसा बदलाव था, जो, महिलाओं को शीघ्र संतुष्ट करता, अनुभव हुआ। दिन भर पानी से काम जो पडता है। यह बदलाव पुरूषों के लिए कोई विशेष अर्थ नहीं रखता।
शेष सारे बदलाव देखकर भी बहुत बहुत हर्षित था।
भूमि दिए बिना  बाँध बन न सकता था, न नहर बन सकती थी,   टाटा का साणंद का उद्योग खड़ा हुआ होता। 

(आठ) हम जादुई छड़ी चाहते हैं।

पर, हम कुछ दिए बिना ही सब कुछ पाना चाहते हैं। यह कपटपूर्ण व्यापार है।
गांधी जी ने भी सात सामाजिक पाप गिनाए, हैं।
१- सिद्धांतों के बिना राजनीति।
२- परिश्रम के बिना संपत्ति का उपभोग।
३- अंतरात्‍मा को मारकर आनंद।
४- चरित्र के बिना ही ज्ञान प्राप्ति।
५- नैतिकता विहीन लेनदेन।
६- मानवता विहीन विज्ञान।
७- बिना त्‍याग की पूजा।

मुझे लगता है; कि आज  (१)- “सिद्धांतों के बिना राजनीति” हो रही है।
(२)- परिश्रम के बिना ही संपत्ति के  उपभोग को, हम पुरस्कृत कर रहे हैं।
(३)- अंतरात्‍मा को मारकर हम सुखी होना चाहते हैं।
(५)- नैतिकता विहीन ही लेन देन  चाहते हैं।
(७)- बिना त्‍याग किए ही, (भारत माता की) पूजा करना चाहते हैं।

लगता है, जागने का समय है; बंधुओं उठो, जागो, और अपनी उन्नति में कुछ योगदान दो। समय निकला जा रहा है।

उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान् निबोधत”॥

अब की बार, अषाढ चूकने का अवसर नहीं है। 
पल पल निकला जा रहा है। 

चेतक करो, अब चेत करो 
उन्नति के, चेतक की टाप सुनायी दे रही है।