जनांदोलन के अलावा और कोई रास्ता नहीं

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हिमकर श्याम

shyam rudra pathakहिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा हासिल करने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। यह दर्जा भी केवल कागजों तक ही सीमित रहा। गुजरात उच्च न्यायालय के अनुसार ऐसा कोई प्रावधान या आदेश रिकार्ड में मौजूद नहीं है जिससे हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया हो। दिल ही दिल में सभी स्वीकार करते हैं कि हिंदी संपर्क भाषा होने लायक है पर व्यवहार में इसे कोई नहीं अपनाता है। सरकारी दफ्तरों में अधिकतर कार्य अंग्रेजी में ही किया जाता है। प्रशासन और न्यायालय हिंदी में नहीं चलते। घर से लेकर रोजगार और शिक्षा हर जगह हिन्दी की उपेक्षा की जा रही है। हर क्षेत्र में आज भी अंग्रेजी का वर्चस्व है। हमें अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त करना होगा। जब तक अंग्रेजी का वर्चस्व रहेगा हिंदी का बढ़ना मुश्किल है। हम अपनी मानसिक गुलामी की वजह से यह मान बैठे हैं कि अंग्रेजी के बिना हमारा काम नहीं चल सकता। करोड़ों लोगों की भाषा शासन और न्याय की भाषा क्यों नहीं बन सकती है?

हिंदी के प्रचार-प्रसार की चेष्टा तो बहुत की गयी, पर वह ठीक तरह से किया गया है यह कहना संशयात्मक है। जो सत्ता के केंद्र में हैं, व्यवस्था के अंग हैं या सामाजिक स्तर से मजबूत हैं वे अपनी दुनिया में डूबे हुए हैं। ऐसी कोई पार्टी नहीं है जो हिंदी के प्रश्न पर डटी रहे और हिंदी के लिए लड़ती हुई दिखाई दे। लोकतंत्र के महत्वपूर्ण अंग विधायिका में हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं की हालत पर कभी बहस नहीं होती है। इस मुद्दे पर हिंदी भाषी प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करनेवाले नेताओं की उदासीनता शर्मनाक ही कही जा सकती है। देश की संसद में अभी तक हिंदी को वह दरजा नहीं मिल सका है जो एक राष्ट्रभाषा को मिलना चाहिये। संसद में हिंदीभाषियों का दबदबा कम हो रहा है। संसद में अधिकतर सदस्य अंगरेजी में ही प्रश्न पूछते हैं व बहस करते हैं। हिंदी के लिए जनांदोलन के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह गया है।

अनेक बाधाओं, विवादों और झगड़ों के बाद हिंदी राजभाषा के रूप में स्वीकार कर ली गयी और वह समूचे संसार की समृद्ध भाषाओं की खुली प्रतिद्वंदिता में आ गयी। साधनविहीन जन की भाषा न तो अंग्रेजी पहले थी और न अब है। करोड़ों लोगों के देश में अंग्रेजी न जनभाषा हो सकती है और न राजभाषा। विभिन्न रूपों में यह स्थान हिंदी को ही लेना है। लोकभाषा को महत्व दिए बिना लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का कोई भी अंग संतोषजनक ढंग से तब तक काम नहीं कर सकता जब तक की उसकी भाषा लोकभाषा के अनुरूप नहीं हो। न्यायपालिका लोकतंत्र का महत्वपूर्ण अंग है। विडंबना है कि न्यायालयों में हिंदी को मान्यता देने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। राज्यभाषा पर संसदीय समिति ने वर्ष 1958 में यह अनुशंसा की थी कि उच्चतम न्यायालय में कार्यवाहियों की भाषा हिंदी होनी चाहिए। लेकिन देश के न्यायालयों की कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में ही संपन्न होती रही। हमने अपनी राष्ट्रभाषा के मुकाबले अंग्रेजी को ज्यादा महत्व दिया, जिसका नतीजा यह हुआ कि हमारी राष्ट्रभाषा लगातार कमजोर पड़ती गयी। संविधान के भाषा संबंधित नीति में कहा गया है कि जब तक हिंदीत्तर क्षेत्रों की तीन-चैथाई सदस्य एकमत से हिंदी स्वीकार नहीं करते तब तक अंग्रेज चलती रहेगी। संविधान के अनुच्छेद 348 में यह कहा गया है कि संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होगी।

मैकाले ने भारतीय भाषाओं को दीन-हीन और दरिद्र कह कर अंग्रेजी की स्थापना की थी। उनका मंतव्य यह था कि इससे आगे चलकर एक ऐसा वर्ग तैयार होगा जो रंग और खून से तो हिन्दुस्तानी होगा, किंतु उसकी रूचि, मति, बुद्धि और भाषा अंग्रेज की होगी। मैकाले की इस नीति का असर स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। अंग्रेजी के वर्चस्व से भारत में एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ जो भारतीय होते हुए भी अभारतीय रहा। स्वतंत्रता के बाद हिंदी के प्रति व्यापक उपेक्षा और तिरस्कार का भाव विकसित हुआ है। राजनैतिक दृष्टि से इसके कारण जो भी हो पर इस स्थिति के मूल में हमारी बदलती हुई चिंतन पद्धति का कम योगदान नहीं है। अंग्रेजी सदैव वर्ग-विभेद का एक माध्यम रही।

हिंदी विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। बाजार ने हिंदी जाननेवालों को बाकी दुनिया से जुड़ने के नये विकल्प खोल दिये हैं। फिल्म, टी.वी., विज्ञापन और समाचार हर जगह हिंदी का वर्चस्व है। इंटरनेट और मोबाइल ने हिंदी को और विस्तार दिया। हिंदी लगातार फैल रही है। हिंदी बढ़ रही है लेकिन इसके सरोकार लगातार घट रहे हैं। हिंदी बोलनेवालों का वर्चस्व घट रहा है। अंग्रेजी बोलना-लिखना-पढ़ना समाज में बेहतर स्थिति और रोजगार की बहुत बड़ी योग्यता है, इसलिए हिंदी को वह जगह नहीं मिल रही है, जिसकी वह हकदार है।

राजनीतिज्ञ और नीति निर्माता हिन्दी के जिस महत्व को नहीं समझ पाये, बाजार ने फौरन समझ लिया। हिंदी आज बाजार की भाषा बन गयी है। एक ऐसी भाषा जिसके सहारे साठ करोड़ लोगों को बाजार द्वारा रोज नये सपने दिखाये जाते हैं। उदारीकरण के बाद जब बाजार का विस्तार हुआ तो विदेशी कंपनियां और विदेशी निवेशक अपने-अपने उत्पादों के साथ भारत पहुंचे। यहां के बाजार के सर्वे और शोध के बाद उन्हें यह महसूस हुआ कि भारतीय उपभोक्ताओं तक पहुंचने के लिए उनकी भाषा का उपयोग करना फायदेमंद हो सकता है। हिंदी बोलने, और समझने वालों की संख्या सर्वाधिक है। इस संख्या के कारण हिंदी पर बाजार की निगाह पड़ी। हिंदी को अपनाना बाजार की मजबूरी भी है।

यह समझ से परे है कि हमारे देश में अंग्रेजी को इतना महत्व क्यों दिया जा रहा है। दुनिया के मात्र 25 से भी कम देशों की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी है। दुनिया के अधिकांश देश दूसरे देशों के साथ आर्थिक-व्यापारिक सौदों के लिए मूल पाठ अंग्रेजी में नही बनाया जाता है तथा वार्ताओं में भी वे अपनी ही भाषा बोलना पसंद करते हैं। अनेक देशों के राजनेता अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी मातृभाषा का ही इस्तेमाल करते हैं। जापानियों, चीनियों, कोरियनों का अपनी भाषा के प्रति गजब का सम्मान और लगाव है। बिना अंग्रेजी के इस्तेमाल के ऐसे देश विकास के दौड़ में कई देशों से काफी आगे हैं। फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश आदि भाषाओं ने कभी अंग्रेजी के सामने समर्पण नहीं किया। हिंदी समाज को इनसे सीख लेने की जरूरत है। हिंदी का उच्चवर्ग ही नहीं मध्यवर्ग भी हिंदी को तेजी से छोड़ रहा है क्योंकि उसे यह लगता है कि उसका हित हिंदी के साथ नहीं है।

हिंदी की दुर्दशा के लिए बाजार और मीडिया के साथ-साथ हिन्दी समाज भी बहुद हद तक जिम्मेवार है। हिंदी की दुर्दशा का कारण यह है कि सार्वजनिक मंचों पर हिंदी भाषी अपनी भाषा बोलने में संकोच करते हैं। संकोच का यह भाव ही अंग्रेजी को पनपने और अपना साम्राज्य स्थापित करने का मौका देता है। कोई भी भाषा सीखना और समझना बुरा नहीं है लेकिन अपनी मातृभाषा को हेय दृष्टि से देखना ठीक नहीं है।

यह दुर्भाग्य है कि स्वतंत्रता के 65 वर्षों के बाद अपने राष्ट्रभाषा के प्रति सम्मान का एक स्वर सुनाई नहीं दे रहा है। राष्ट्रभाषा से लगाव या उसपर गौरव करना तो कलंक ढोना जैसा प्रतीत किया जाता है। सामाजिक सक्रियता किसी भी भाषा के लिए एक अनिवार्य शर्त है जिसे हिंदीभाषियों ने पूरी तरह से भुला दिया है। हिंदी समाज ने यह मान लिया है कि राजभाषा होने के बाद ही हिंदी की सारी समस्या सुलझ गयी है।

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