विधि-कानून

न्याय की भाषा अगर अनजानी हो तो कैसे किसी का समाधान करेगी

प्रतिभा सक्सेना 

downloadअनायास ही मन में प्रश्न उठता है – न्यायालय किसलिये स्थापित किये गये हैं ? लंबे समय के वाद-विवादों,गवाहियों,प्रमाणों और साक्षियों के बाद जो निर्णय लिये जाते हैं इसीलिये न कि दोषी के दंड का औचित्य सिद्ध हो , जन-मन में उचित-अनुचित का बोध जागे जिससे कि वह अपराध से विरत रहें. , उनके विवरण और नतीजे जन-जन के लिए उदाहरण बने रहे. न्याय की भाषा अगर अनजानी हो तो कैसे किसी का समाधान करेगी!

न्याय का आधार और उसकी कार्य-विधि ,विवादों के सारे दाँव-पेंच और नतीजे क्या केवल न्यायाधीशों वकीलों, और गिनती के अंग्रेज़ी-दाँ अति-समर्थ लोगों के जानने की चीज हैं.और इसमें पूरी तौर से जो लोग इन्वाल्व्ड और प्रभावित उसे समझ ही न सकें . यह लोक-तंत्र की भावना के विपरीत है , अन्याय है .

न्यायालय की कार्यवाहियों तक कुछ गिने-चुने समर्थ लोगों की पहुँच में होने से कुछ नहीं सधेगा.जनता के और विशेष रूप से, अति साधारण या कठिन जीवन जीनेवाले जिन्हें, पग-पग पर मनमाने सुख और सुविधाओं का लोभ विचलित कर सकता है, जाने-समझे तो इसका असली उपयोग है.

नागरिकों की न्याय में भागीदारी हो तो और भी अच्छा ! अमेरिका में नागरिकों की एक आवश्यक ड्यूटी होती है- मुकद्दमों के निस्तारण के लिये उन्हें उनके क्रमानुसार जूरी-मंडल में आमंत्रित किया जाता है. वे वादों के निस्तारण में अपने मत देते हैं. नियम-क़ानून समझ कर उनके क्रियान्वन में सबका सहयोग लेना जन-भाषा के बिना संभव ही नहीं हो सकता. पर भारतीय व्यवस्था में यह क्या सोचा भी जा सकता है?

न्याय कोई कारोबार नहीं है जिसके ट्रेड-सीक्रेट पता चलने से और जनता उसे हथियाने और अरक्षित हो जाने का डर हो . जन के न्याय-विचार को यदि सजग रखना है तो न्यायालयों की कार्य-प्रणाली जन-भाषा में हो यह आवश्यक है. तभी आम लोग उसे जानने-समझने में रुचि ले कर अंगीकार कर सकेंगे.