बागी एवं बगावती होते टिकट वंचित नेता

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– ललित गर्ग-

पांच राज्यों के विधानसभा से पहले अनेक राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं के बीच बड़ी ऊंठापटक, खींचतान एवं चरित्रगत बदलाव देखने को मिल रहे हैं। राजस्थान एवं मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी एवं कांग्रेस ही आमने-सामने की स्थिति में है, लेकिन टिकट बंटवारे को लेकर इन दोनों ही दलों में दोनों ही राज्यों में व्यापक बदलाव देखने को मिल रहा है। दोनों ही दलों में अपने आपको पार्टी का सर्वेसर्वा मानने वाले नेताओं की इस बार टिकट बंटवारे में दाल नहीं गली और वे अपने चेहतों को टिकट देने में नाकाम साबित हुए, जिससे दोनों ही दलों में भारी असंतोष एवं विद्रोह देखने को मिल रहा है। प्रदेश के शीर्ष नेताओं को भी टिकट न मिलने से बागी एवं बगावती स्वर उभर रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या अब चुनाव का टिकट पाना या उसका कटना ही नेताओं के जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है? क्या पार्टी के प्रति बफादारी का गुब्बारा एक टिकट न मिलने की सूई से ही हवा शून्य हो गया है? एक प्रश्न और है कि टिकट क्या किन्हीं नेताओं की बपौती है, फिर बाकी कार्यकर्ताओं का क्या वजूद है जो सालों से पार्टी के लिये जी-जान लगाये होते है? क्या राजनीति अब सबसे ज्यादा लाभ और रौब का धंधा बन चुकी है? लोकतंत्र में जब मूल्य एवं सिद्धान्त कमजोर हो जाते है और सिर्फ निजी हैसियत को ऊंचा करना ही महत्वपूर्ण हो जाता है वह लोकतंत्र निश्चित रूप से कमजोर हो जाता है।
अफसोस, कि जिस जन की सेवा के लिए चुनाव टिकट रूपी एंट्री पास तैयार किया गया है, वह ‘जन’ पहले भी हतप्रभ था, आज भी है और शायद आगे भी रहेगा। क्योंकि आम मतदाता तो पहले भी ठगा जाता था, गुमराह किया जाता था। आज भी उसके साथ यही हो रहा है? टिकट की दौड़ के लिये सक्रिय होने एवं पांच साल में केवल चुनाव के समय नजर आने वाले उम्मीदवारों को दोनों पार्टियों ने टिकट न देकर एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया है। राजनीति में ऐसे ही साहसिक एवं अभिनव प्रयोग की अपेक्षा है, ताकि राजनीति में प्रतिनिधित्व की पात्रता किन्हीं सीमित हाथों से बाहर आये एवं नये चेहरों को अपना हूनर दिखाने का अवसर मिले।
राजस्थान विधानसभा चुनावों के लिए नामांकन के आखिरी दिन अनेक चेहरों को निराशा हाथ लगी है।  भाजपा की आखिरी लिस्ट आ चुकी है, लेकिन इस लिस्ट में केंद्रीय नेतृत्व ने वसुंधरा राजे को किनारे कर दिया है। भाजपा ने इस बार वसुंधरा राजे के कई समर्थकों के टिकट काट दिए हैं। इनमें अशोक परनामी, अरूण चतुर्वेदी प्रमुख है और दोनों नेता ऐसे है जो पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष भी रह चुके हैै। इनके साथ ही पूर्व मंत्री एवं राजे के खास यूनुस खान का भी टिकट काट दिया गया है। राजपाल सिंह शेखावत और राव राजेन्द्र का टिकट भी पार्टी ने काट दिया है। कांग्रेस में भी ऐसे अनेक महत्वपूर्ण चेहरों को निराशा हाथ लगी है। टिकट न मिलने से पार्टी के इन वफादार सैनिकों के स्वरों में भी बगावत देखने को मिल रही है। निश्चित ही दोनों ही दलों में टिकट बंटवारे में आजमाये इन नये प्रयोगों का व्यापक असर देखने को मिलेगा। राजस्थान के अनेक राजनीतिक विश्लेषकों से चर्चा से यह तथ्य भी सामने आया है कि दलों में हो रहे इन बदलावों का नकारात्मक ही नहीं, सकारात्मक परिणाम भी सामने आयेगा।
चुनाव के समय राजनीतिक दलों में टिकट वितरण को लेकर असंतोष होना स्वाभाविक है। जो राजनीतिक कार्यकर्ता वर्षों मेहनत करे और टिकट वितरण के समय उसे दरकिनार कर दूसरे या किसी आयातित व्यक्ति को टिकट दे दिया जाए तो राजनीति में निष्ठा और समर्पण का पैमाना अपने आप ध्वस्त होने लगता है। वैसे भी हर पार्टी में एक सीट पर टिकट के एक से अधिक आकांक्षी होते हैं। दलों की संवैधानिक मर्यादा एवं सीमाएं हैं कि वे चुनाव में किसी एक को ही टिकट दे सकती हैं। ऐसे में बाकी को या तो पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार का समर्थन करना होगा या फिर दूसरे किसी दल से टिकट लेकर अथवा निर्दलीय चुनाव में खड़ा होना होगा। टिकट न मिलने वालों को अपनी नाराजगी प्रकट करने का अधिकार है, वे चाहे तो पार्टी हाई कमान और टिकट वितरणकर्ताओं के सामने खुलकर अपनी नाराजगी का प्रदर्शन कर मन को हल्का करे या अनैतिक विकल्प के तौर पर पार्टी में रहकर ही भीतरघात कर पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी को हरवाकर अपनी उपेक्षा का बदला ले और अगले चुनाव में अपनी उम्मीदवारी का खाता खुला रखे।  
राजस्थान में ऐसे ही सीन बन रहे हैं, अब विरोध के प्राचीन तरीकों जैसे कि नारेबाजी, धरना प्रदर्शन से मीलों आगे जाकर शीर्ष नेताओं के घरों के सामने आत्मदाह करने, पार्टी दफ्तरों पर हमले, नेताओं के कपड़े फाड़ने, हाथापाई, सामूहिक इस्तीफे और टिकट कटने के बाद मातमी अंदाज में जार-जार आंसू बहाने की स्थितियां समाप्त हो गयी है। अब तो पार्टियों में विरोध प्रदर्शन का सबसे सशक्त हथियार निर्दलीय चुनाव लड़ना या भीतरघात करना ही देखने को मिल रहा है। मानो सभी दलों में अनुशासनहीनता और अराजकता की एक अघोषित स्पर्द्धा चल रही हो, जिसमें हर असंतुष्ट अपने गिरोह के साथ दूसरे को पीछे छोड़ने की दबंगई में लगा है। ऐसा नहीं है कि आला नेताओं को कार्यकर्ताओं के इस तरह उग्र अथवा बागी होने का अंदाजा न हो। लेकिन पार्टियां चुनाव का टिकट बांटती हैं तो टिकट देने और टिकट काटने के उसके अपने पैमाने होते हैं। उनकी अपनी सीमाएं भी होती है।
टिकट बंटवारे में आलाकमान बहुत बारीकी से निर्णय लेता है, महीनों तक भीतर-ही-भीतर योग्य उम्मीदवार की पात्रता के संबंध में पार्टी की चलने वाली गंभीर विश्लेषण-जांच एवं अनुसंधान की गहरी भूमिका होती है, अब कोई धमक, सेवा एवं पैसा काम नहीं आता। यहां तक बड़े नेताओं के निजी संबंध भी अब कारगर नहीं रहे। एक-एक पात्र उम्मीदवार पर हर कोण से गंभीर रिपोर्ट तैयार होती है और वही टिकट बंटवारे का माध्यम बनती है। इसलिये अब बगावत एवं विद्रोह के उतने नुकसान भी नहीं देखने को मिलते, जितने पहले हुआ करते थे। पार्टी हित में शीर्ष नेतृत्व ऐसे बगावती स्वरों को शांत करने की पूरी कोशिश करता है। राजस्थान में अनेक टिकट वंचित उम्मीदवार छोटे दलों के टिकट पर या निर्दलयी चुनाव मैदान में उतरने का एलान कर चुके हैं। हालांकि, नाराजों को बिठाने और चुप कराने के लिए दोनों दलों में बड़े नेता साम-दाम-दंड-भेद सभी तरीके अपनाने में लगे हैं। लेकिन राजनीतिक कार्यकर्ता यह बखूबी जानता है कि बड़े नेताओं द्वारा उससे किए वादे भी ज्यादातर चुनावी वादों की तरह खोखले अथवा आधे-अधूरे होते हैं। साथ में यह भी सच है कि बड़े दलों में अब वो ऋषि एवं कद्दावर राजनेताओं का अभाव है, जिनके इशारों पर आक्रोश एवं विद्रोह शांत हो जाते थे। ऐसे दिग्गज नेताओं का नैतिक प्रभाव खत्म होने के बाद आजकल कार्यकर्ताओं को मनाने का फार्मूला मोटे तौर पर अगले चुनाव में टिकट के वादे, सत्ता में आने पर किसी पद की रेवड़ी, या फिर बात-बेबात उसकी पीठ थपथपाने, मंच से तारीफ के दो शब्द कहकर भावनात्मक शोषण करने या फिर धन के रूप में ही देखने को मिल रहा है।
लेकिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सबसे बड़ा सवाल तो राजनीति में बुनियादी नैतिकता एवं लोकतांत्रिक मूल्यों का है? लोकतंत्र में चुनाव टिकट की आकांक्षा रखना स्वाभाविक है, लेकिन उसे जीने-मरने का सवाल बना देना या उसे विसंगतियों एवं विडम्बनाओं का शिखर बना देना क्या संदेश देता है? दरअसल राजनीतिक व्यवस्था मूलतः लोकतंत्र को चलाने और इस तंत्र के असल मालिक लोक के जीवन को सुचारु और समृद्ध बनाने के लिए है, लोकतांत्रिक माफिया बनने के लिए तो कत्तई नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से आजादी के अमृत काल में यह कड़वा सच है कि राजनीति अब अधिकांश लोगों के लिए शुद्ध रूप से चौतरफा लाभ का धंधा है। इसीलिए वो इसे छोड़ना तो दूर इसे पीढ़ी दर पीढ़ी कायम रखना चाहते हैं ताकि पावर, पैसा और प्रतिष्ठा की गंगोत्री सूख न सके।

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