रियो ओलंपिक से मिलते सबक

1
179

rio-डॉ. मयंक चतुर्वेदी

दुनिया का सबसे बड़ा खेल मेला समाप्‍त हो गया और इसी के साथ हमारी वह सभी उम्‍मीदें भी कि एक कास्‍य, एक सिल्‍वर पदक के बाद कोई और अब गोल्‍ड भी दिला सकता है समाप्‍त हो गईं। यदि इस खेल मेले की पूरी सूची देखें तो भारत बहुत नीचे कहीं नजर आता है, जिसमें कि हम अपने पड़ौसी मुल्क चीन से तो कोई मुकाबला ही नहीं कर सकते। देखा जाए तो चीन की परिस्थितियां आबादी के लिहाज से कहें या विकास और प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से भारत से ज्‍यादा अच्‍छी हों, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, लेकिन पदक तालिका में चीन सूची में सबसे आगे तीन देशों में से एक है। ब्रिटेन जैसा छोटी आबादी वाला देश पदक पाने में दूसरे स्थान पर और अमेरिका तो फिर अमेरिका है। ताकत में भी नंबर 1 और खेल के मैदान में भी सबसे आगे अपने को लगातार सिद्ध करता रहा है। रूस, जर्मनी, जापान, फ्रांस, द. कोरिया, यहां तक कि इटली व ऑस्ट्रेलिया जैसे कम जनसंख्या वाले देश भी इस विश्वखेल मेले में शुरूआती 10 की सूची में अपना स्थान बनाने में कामयाब रहे लेकिन भारत इसमें कहां है ? भारत का स्थान 67वां रहा।
आत्ममंथन अब यहीं से शुरू होता है, भारत इस बार अपने सबसे बड़े 119 सदस्यीय दल के साथ दुनिया के इस सबसे बड़ी खेल प्रतियोगिता में हिस्सा लेने पहुंचा था। खेलों के इस महासमर में देश के हर नागरिक को यही उम्मीद थी कि भारत ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए इस बार के ओलंपिक में कुछ नया करिश्मा दिखाएगा और पदकों की जो लम्बे समय से बाटजोही की जा रही है, उसका अकाल अब समाप्त होगा। किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। हमेशा पूर्व ओलंपिकों की तरह ही इस बार का रिजल्ट है। स्त्री शक्ति ने जरूर देश की लाज बचा ली, नहीं तो जो 67वां स्थान सूची में कहीं नजर आता है, वह भी दिखाई नहीं देता।
भारत के इस 31 वें ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेने के साथ यह भी पता चलता है कि हमारी लगातार की असफलता को भी इतने ही वर्ष गुजर रहे हैं, हालांकि इसके साथ एक सच यह भी है कि भारत के खिलाड़ी बीच-बीच में अपना कुछ सार्थक परिणामकारी प्रदर्शन करते रहे हैं। भारतीय हॉकी टीम 8 बार की ओलंपिक चैंपियन है, लेकिन पता नहीं कई सालों से हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी में कौन सी जंग लगी है कि हम फिर से वह करिश्मा नहीं कर पा रहे, जो कभी ध्यानचंद और रूप सिंह, से लेकर समय-समय पर अजित पाल सिंह, वी. भास्करन, गोविंदा, अशोक कुमार, मुहम्मद शाहिद, जफऱ इक़बाल, परगट सिंह, मुकेश कुमार और धनराज पिल्ले जैसे खिलाड़ी करते आए हैं।

पदक पाने के आंकड़ों को देखें तो भारत ने एक देश के तौर पर सन् 1900 से आज तक कुल 28 पदक अपने नाम किए हैं, जिनमें स्वर्ण पदकों की संख्या 9 है। साथ ही भारत ने 7 सिल्वर और 12 ब्रॉन्ज मेडल जीते हैं। भारत ने लंदन ओलंपिक 2012 में सर्वाधिक छह पदक जीते थे, लेकिन उनमें स्वर्ण पदक शामिल नहीं था। खेलों से पहले भारतीय खेल प्राधिकरण (साइ) ने पदकों की संख्या दोहरे अंक में पहुंचने की उम्मीद जताई थी, लेकिन वे सब धराशायी हो गईं। इस बार के ओलंपिक में एयर पिस्टल में अपूर्वी चंदेला, अयोनिका पाल, जीतू राय, गुरप्रीत सिंह और लंदन ओलंपिक के कांस्य पदक विजेता गगन नारंग और अपना पांचवां व आखिरी ओलंपिक खेलने गए अभिनव बिंद्रा से सटीक निशाना साधने की उम्मीदें थीं, लेकिन निराशा ही हाथ लगी। महिला जिमनास्ट दीपा कर्मकार भी खाली हाथ रहीं।
भारतीय टेनिस स्टार लिएंडर पेस और उनके जोड़ीदार रोहन बोपन्ना पुरुष युगल के पहले दौर में हार कर रियो ओलम्पिक से बाहर हो गए। यही हाल महिला टेनिस खिलाड़ि‍यों का रहा, सानिया मिर्जा, प्रार्थना थोंबारे, शरत कमल, सौम्यजीत घोष, मौउमा दास और मनिका बत्रा कुछ कमाल नहीं कर पाईं। भारतीय महिला भारोत्तोलक सैखोम मीराबाई चानू निराशाजनक प्रदर्शन कर भारोत्तोलन स्पर्धा से बाहर हो गईं। पुरूष मैराथन में भारत के. टी. गोपी, खेताराम और तीसरे धावक नीतेंद्र सिंह राव के प्रदर्शन ने भी निराश किया। भारत की लंबी दूरी की महिला धाविका ललिता शिवाजी बाबर रियो ओलंपिक में 10वां स्थान ही हासिल कर सकीं। भारत के अग्रणी पुरुष बैडमिंटन खिलाड़ी किदाम्बी श्रीकांत को हार का सामना करना पड़ा। इसी प्रकार भारत की चक्का फेक एथलीट सीमा पूनिया भी अपना बेस्ट नहीं दे पाईं। मुक्केबाज शिवा थापा, मनोज कुमार और विकास कृष्ण यादव से जो उम्मीदें की जा रही थीं वे भी उन्हें पूरा नहीं कर सके।
पहलवान रविंदर खत्री तो ग्रीको रोमन कुश्ती स्पर्धा में अपना पहला मुकाबला हारकर ओलंपिक से बाहर हो गए। कुश्ती में पदक लाने की आस नरसिंह यादव से लेकर लंदन ओलंपिक के कांस्य पदक विजेता योगेश्वर दत्त से की जा रही थी, जिसमें कि नरसिंह को खेलने का अवसर नहीं मिला और योगेश्वर ओलंपिक के अंतिम दिन मंगोलिया के मन्दाखनारन गैंजोरिग के हाथों पराजय का सामना करते हुए बाहर हो गए। हां, महिला पहलवानों में विनेश और बबीता कुमारी को छोड़ साक्षी मलिक ने जरूर कुश्ति के जरिए देश की लाज रखी और भारत का पदक तालिका में कांस्य पदक प्राप्त कर खाता खोला।
उसके बाद एक कदम ओर आगे बढ़ाते हुए पीवी सिंधू सोने के संघर्ष से चूकीं, लेकिन उन्होंने देश की झोली में बैडमिंटन के जरिए रजत पदक डाल दिया। जब सिंधू गोल्ड पाने के लिए वल्र्ड नंबर-1 स्पेन की कैरोलिना मारिन से संर्घषरत थी, उस समय भारत में जैसे पूरा देश सिंधूमय हो गया था, लगा कि क्रिकेट के दीवाने देश में शायद पहली बार ऐसा हो रहा है, जब चौराहों पर क्रिकेट देखने के लिए नहीं, बैडमिंटन के लिए बड़ी-बड़ी स्क्रीन लगाकर लोग चिडिय़ा का आनंद ले रहे हैं और प्रार्थना कर रहे हैं कि पीवी सिंधू देश के लिए स्वर्ण पदक पा ले, सिंधू हार गईं, लेकिन फिर भी भारत की चांदी हो गई। किंतु जो खेल प्रेमी हैं और जिन्होंने सिंधू के इस फाइनल के पहले के मैच भी देखें हैं वे जरूर इस बात से सहमत होंगे कि हम स्वर्ण भी ला सकते थे, यदि कैरोलिना मारिन की तरह मानसिक रूप से सिंधू भी तैयार होतीं। यहां उनके खेल या कोचिंग पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जा रहा, सिर्फ बताने का प्रयास यह है कि जिस प्रकार मारिन ने दूसरे और तीसरे सेट में अपने हाव-भावों का प्रदर्शन किया और जैसे ही उन पर हारने का दबाव बनता, वे कोर्ट से बाहर निकलकर कहीं पानी पीने लगती तो कभी तौलिया रगड़ती नजर आतीं, इस बीच सिंधु अंदर मैदान में उनका इंतजार कर रही होती। इसी बीच सिंधु का धैर्य कहीं कमतर होता और उसका पूरा लाभ यह स्पेनिश खिलाड़ी उठा लेती।
हमारी आत्ममंथन की प्रक्रिया यहां से और गहरी हो जाती है। सिंधू भले ही ओलंपिक के लिए नई हों, लेकिन वे छोटी-मोटी खिलाड़ी बिल्कुल नहीं हैं। 18 की उम्र में वर्ल्‍ड चैंपियनशिप में ब्रॉन्ज और अर्जुन अवॉर्ड, 20 में पद्मश्री प्राप्त कर चुकी खिलाड़ी हैं। जब वह भी स्वर्ण से चूक सकती हैं तो अन्य भारतीय खिलाड़ि‍यों के मनोबल का तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। इसलिए भारत को यदि अपनी आबादी के लिहाज से, संसाधनों की बेहतरी से और आगे खेलों में अपनी दावेदारी को सशक्त बनाने के साथ ओलंपिक जैसे बड़े खेल मेलों में पदक तालिका का सुधार करना है, तो जरूर उसे देश की सामान्य मानसिकता से ऊपर उठने के लिए प्रभावी कदमों पर विचार करना होगा।
खिलाड़ी को दोयम दर्जे का मानने की जो आम भारतीय मानसिकता है, जिसे ज्‍यादातर घरों में देखा जा सकता है और अमूमन प्रतिभावान खिलाड़ि‍यों को अपने घरों में आए दिन झेलनी पड़ती है कि खेल से पेट नहीं भरने वाला, यह शोकियातौर पर ही सही है, सच पूछिए तो इससे उबरने के लिए प्रयत्नों की देश में आज सबसे ज्‍यादा जरूरत है। यदि विज्ञान, वाणिज्‍य, प्रबंधन और कला जैसे विषय जीवन में अर्थोपार्जन की सुनिश्चितता देने में सक्षम हैं तो कोई भी खेल जिसमें आप महारत हासिल कर लेते हैं आपको जीवन में रोजी-रोटी की कमी नहीं होने देगा। वर्तमान दौर में यह विश्‍वास देश में पैदा किया जाना अत्‍यधिक आवश्‍यक है।
वस्तुत: देश की नीति जब इस बात पर केंद्रित होकर बनाई जाएंगी तो निश्चित मानिए कि भारत कई स्वर्ण पदक लेकर हर खेल मेले से वापस लौटेगा। नहीं तो हम यूं ही एक और दो पदक पाने के लिए तरसते रहेंगे और चीन, अमेरिका, जर्मनी, रूस, ब्रिटेन, जापान, फ्रांस, द. कोरिया, इटली, ऑस्ट्रेलिया को छोड़ दिया जाए, तो भी अन्य छोटे देश नीदरलैण्ड, हंगरी, ब्राजील, स्पेन, कैन्या, क्रोशिया, क्यूबा, कनाडा, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान, कोलंबिया, ग्रीस, डेन्मार्क, युक्रेन, इरान, सर्बिया, टर्की, इंडोनेशिया, थाइलैण्ड, जोर्जिया, बेहरिन, फिजी, सिंगापुर, मैक्सिको, मलेशिया, तजाकिस्तान, अल्गेरिया, आयरलैण्ड, लिथुनिया, बल्गेरिया और वेनिजुएला जैसे तमाम देशों से हम पदक तालिका में पीछे ही बने रहेंगे।

Previous articleपरसाई का मूल्यांकन क्यों नहीं?
Next articleसंसार में किन व कौन सी मूल सत्ताओं का अस्तित्व हैं?
मयंक चतुर्वेदी
मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

1 COMMENT

  1. “दुनिया का सबसे अनफिट देश साँसे रोके चमत्कार की उम्मीद में बैठा है। जहाँ कॉलोनी बनती हैं पर पार्क नहीं। जहाँ लोग एडिडास के जूते और ट्रैक सूट पहन कर शॉपिंग करते हैं, मॉल में घूमते हैं या टीवी पर स्पोर्ट्स देखते हैं। जहाँ लोग 100 मीटर दूर की दुकान से आलू खरीदने 2 व्हीलर या कार से जाते हैं। जहाँ साइकल चलाने वाले हिकारत की नज़र से देखे जाते हैं। जहाँ खेलने का उद्देश्य खेल कोटे से नौकरी पाना है। जहाँ पैदल चलना, दौड़ना भागना, एक्टिव होना अजूबा है। जहाँ 1000 घरों पर दस धर्मस्थल और एक लाख घरों पर एक स्टेडियम भी नहीं है। वहां भी रियो से सोने की उम्मीद है…”
    यह मेरा वक्तव्य नहीं है.मैंने इसे केवल उद्धरित किया है,पर क्या यह कटटू सत्य नहीं है?

Leave a Reply to R.Singh Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here