‘तीन-तलाक’ से मुक्ति, राष्ट्रीय एकात्मता की एक युक्ति

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‘तीन तलाक’ से मुक्ति, राष्ट्रीय एकात्मता की एक युक्ति मनोज ज्वाला भारतीय मुस्लिम समाज को राष्ट्र की मुख्य-धारा से अलग-थलग किये रखने वाली ‘तीन-तलाक प्रथा’ के उन्मूलनार्थ कानून बन जाने से इसके बहुआयामी परिणाम सामने आने वाले हैं । इससे मुस्लिम समाज की दशा और दिशा, दोनों में सुधार होगा । मुस्लिम समाज की औरतें गैर-मुस्लिम स्त्रियों की अपेक्षा अपने ही घर-परिवार में जिस प्रकार के शोषण-दमन-उत्पीडन की जिन्दगी जीने को विवश थीं और देश के संविधान से समानता का अधिकार प्राप्त होने के बावजूद जिस मजहबी फरमान के कारण विषमता का घूंट पीने को मजबूर थीं, उन सब अवांछनीयताओं से उन्हें अब छुटकारा मिल गया । अब कोई भी मुस्लिम औरत अपने शौहर के हाथों शोषित हो कर बेवजह उसके द्वारा तीन बार ‘तलाक’ बोल देने अथवा लिख कर सूचित कर देने मात्र से परित्यक्त नहीं की जा सकती है । अपनी बिवी को तलाक देने के लिए किसी भी मिंयां को अब भारतीय कानून की प्रक्रियाओं का अनुपालन करना ही होगा । प्रकारान्तर में कहें तो यह कि मुस्लिम समाज में शादी भले ही उसके मजहबी शरीअत के अनुसार ‘निकाह’ की शक्ल में होती रहेगी , किन्तु शादी के बाद उस मजहबी कानून की नकारात्मक भूमिका समाप्त हो जाएगी । अर्थात शादी-शुदा मिंया-बिवी के पारस्परिक सम्बन्ध को टिकाये रखने में उनके शरीअत की भूमिका चाहे जो भी हो, किन्तु उसके तोडने में उसकी कोई भूमिका नहीं रहेगी । उनकी शादियां अगर टुटेंगी तो भारतीय कानून की न्यायसंगत प्रक्रिया के अनुसार टुटेंगी, जिसके तहत बिवी को उसके शौहर मिंयां के द्वारा वाजीब कारणों से ही तथा उचित रीति से ही ‘तलाक’ दिया जा सकेगा और तलाकशुदा बिवी को गुजारा-भत्ता के साथ-साथ पारिवरिक सम्पत्ति में हिस्सा देना अनिवार्य होगा । जाहिर है, मुस्लिम औरतों को उनके मजहबी कानून की गिरफ्त से मुक्त कर भारतीय संविधान के कानून की परिधि में ले लाने से एक ओर जहां उनका शोषण-दमन-उत्पीडन रुकेगा, वहीं दूसरी ओर मर्दों में एकाधिक शादियां करते रहने की प्रवृति भी जरूर थमेगी, क्योंकि अब ‘तीन-तलाक’ वाली सुविधा समाप्त हो जाने से किसी बिवी को परित्यक्त कर देना मुश्किल हो गया । लाखों-करोडों मुस्लिम औरतों की जिन्दगी तबाह कर चुकी उस मजहबी कुप्रथा के समाप्त हो जाने से न केवल औरतों के जीवन में सुकुन आयेगा और वे समानता के अधिकार का सुख अनुभव करेंगी, बल्कि मुस्लिम समाज के मर्दों में भी जाहिलियत कम होगी और वे भी प्रगतिशीलता के पथ पर अग्रसर होंगे । गौरतलब है कि दुनिया के कई देशों में, यहां तक कि मुस्लिम देशों में अर्थात इस्लामी शरीअत से शासित देशों में भी ‘तीन-तलाक’ प्रथा एकदम प्रतिबन्धित है । पडोस के इस्लामी स्टेट पाकिस्तान में भी इस कुप्रथा का वजूद नहीं है । किन्तु भातरीय मुस्लिम समाज के ठेकेदार मुल्लाओं-मौलवियों ने मजहब के नाम पर अपना अलग ही शरीअत कायम कर रखा था , जिसे मजहबी सियासतदारों का संरक्षण मिलते रहता था । मजहब के नाम पर समाज को शासित करने वाले उन रहनुमाओं ने ऐसा हौव्वा खडा कर रखा था कि ‘तीन-तलाक’ उनके ‘अल्लाह-खुदा’ का फरमान है, जो देश की राजसत्ता के शासनिक प्रावधानों से भी ऊपर किसी भी कानून से परे है, उस पर कोई टिका-टिप्पणी तक नहीं कर सकता और उसका निष्पादन-क्रियान्वयन भी उनका पर्सनल लॉ बोर्ड ही कर सकता है । उनका तर्क हुआ करता था कि इस मामले में शासनिक हस्तक्षेप से उनके धार्मिक अधिकारों का हनन होगा, जो संविधान-प्रदत मौलिक अधिकारों के विरुद्ध समझा जाएगा । तब की कांग्रेसी सरकार उनके इन तर्कों का न केवल समर्थन करती थी, बल्कि उन्हें उनके उस मजहबी कारोबार को शासनिक संरक्षण भी दिया करती थी, क्योंकि वह उनके वोटों का सौदा किया करती थी । तब ऐसा लग रहा था जैसे देश में संविधान से इतर एक असांवैधानिक मजहबी सत्ता का कानून भी समानान्तर कायम हो । किन्तु साम्प्रदायिक तुष्टिकरण-आधारित उस वोटबैंक के बावजूद कांग्रेस के सत्ता से बेदखल हो जाने और उसकी नीतियों के विरुद्ध देश भर में समान नागरिक संहिता लागू करने सहित विभिन्न राष्ट्रीय मुद्दों को उभार कर भाजपा के सत्तासीन हो जाने के बाद से ही यह अपेक्षा की जा रही थी कि देश में सांवैधानिक कानूनों के समानान्तर चल रहे मजहबी कानूनों को समाप्त कर एक समान नागरिक कानून कायम किए जाएं , जिसका वादा भी हर संसदीय चुनाव के मौके पर करती रही है भाजपा । ऐसे में ‘तीन-तलाक’ नामक एक प्रकार के मजहबी कानून को संसद से पारित विधेयक द्वारा निरस्त कर देश की सभी महिलाओं को एक ही सांवैधानिक कानून के दायरे में ले लाने से अब ऐसा समझा जा सकता है कि भाजपा-सरकार देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की ओर धीरे-धीरे आगे बढ रही है । सरकार का यह कदम बिल्कुल सधा हुआ संयमित और संतुलित है । पहले महिलाओं को इस बावत प्रेरित-प्रोत्साहित व जागरुक करने तथा बाद में तत्सम्बन्धी अध्यादेश जारी करने से मुस्लिम समाज में तदनुसार मानस विकसित किया गया , तब इस हेतु विधेयक तैयार कर उसे लोकसभा में पेश किया गया । फिर देश भर में संसद से ले कर गांवों-शहरों के चौपालों तक मुस्लिमम औरतों के सामानाधिकार सम्बन्धी चर्चा-संवाद और बहस-विमर्श होने देने के बाद जिस तरह से तीन तलाक के विरुद्ध सरकारी पहल के पक्ष में जनमत निर्मित हो जाने पर इसे निरस्त किया गया सो गौरतलब है । समाज में इस बावत जनमानस निर्मित किए बिना अगर इसे कानूनन प्रतिबन्धित कर दिया जाता, तो अब तक उन मजहबी कठमुल्लाओं के इशारे पर इस्लाम का वास्ता देते हुए मुसलमानों की भीड सडकों पर उतर कर विरोध-प्रदर्शन करने लगती, किन्तु अब हालत ऐसी है कि इस मसले पर उनकी सुनने वाला ही कोई नहीं है, मुस्लिम समाज ही उनसे विमुख हो चुका है । देश का सर्वोच्च न्यायालय तो बहुत पहले ही उस ‘तीन-तलाक’ को अवैध घोषित कर चुका है । अब शादी व तलाक मसले पर मुस्लिम औरतें भी जब एक ही सांविधानिक कानून के दायरे में आ गईं तब जाहिर है, इससे मुस्लिम समाज में मोदी-सरकार के आगामी सम्भावित कदम- समान नागरिक संहिता के बावत जनमानस निर्मित होने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाएगी । यह जरुरी भी है । छोटे-छोटे कदमों से बडे-बडे मुकाम हासिल करना आसान होता है, जबकि कठोर परिवर्तनों व सुधारों को अंजाम देने से पहले उन्हें आत्मसात कर सकने योग्य जन-मानस निर्मित कर लेना भी जरुरी होता है । मोदी-सरकार कायदे से यही कर रही है । देश में एकात्मता स्थापित करने के बावत सबके लिए एक समान कानून की सख्त आवश्यकता है । ऐसे में यह कहा जा सकता है कि ‘तीन-तलाक’ से मुक्ति वस्तुतः देश में राष्ट्रीय एकात्मता स्थापित करने की एक युक्ति है । किन्तु सिर्फ इसी युक्ति से राष्ट्र का अभीष्ट सिद्ध नहीं होगा , अपितु ऐसी अन्य मजहबी अवांछ्नीयताओं को दूर करने वाली दो-चार अन्य युक्तियों को भी प्रयुक्त करना होगा और उनमें बहुविवाह की रीति और जनसंख्या-नीति को प्राथमिकता देनी होगी । • मनोज ज्वाला ; अगस्त’२०१९

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