प्रवक्ता न्यूज़

‘झूठ’ की बुनियाद पर महल मत खड़ा कीजिए पंकजजी, अंजाम आप जानते हैं

प्रिय पंकजजी,

नमस्‍कार।

आपका आरोपयुक्‍त लेख हमें प्राप्‍त हुआ। आपने प्रवक्‍ता के मंतव्‍य पर सवाल उठाये हैं इसलिए संपादक के नाते आपके आरोपों का जवाब देना हमारा दायित्‍व है।

“मैं तुम्‍हारे विचारों को एक सिरे से खारिज करता हूं, मगर मरते दम तक तुम्‍हारे ऐसा कहने के अधिकार का समर्थन करूंगा।” ऐसा लोकतंत्र के पुरोधा माने जाने वाले वॉल्‍टेयर ने कहा था।

पंकजजी, आपने जगदीश्‍वरजी के लेखों के हवाले से आरोप लगाया है कि ‘प्रवक्ता जैसा ईमानदार माना जाने वाला साईट भी शायद सस्ती लोकप्रियता के मोह से बच नहीं पा रहा है और एक अनजाने से चतुर्वेदी जी को इतना भाव दे कर जाने-अनजाने एक नये बुखारी को ही जन्म दे रहा है।‘ आप चिंता व्‍यक्‍त कर रहे हैं, ‘राष्ट्रवाद को गरियाने की सुपारी अगर प्रवक्ता जैसे खुद को राष्ट्रवाद का सिपाही मानने वाले साईट ने जगदीश्वर जी को दे रखी हो तो आखिर किया क्या जाय?’

आपको दिक्‍कत है कि ‘जगदीश्‍वरजी राष्‍ट्रवाद, हिंदुत्‍व और बाबा रामदेव को गरिया रहे हैं।‘ लेकिन हम मानते हैं कि जगदीश्‍वरजी ने लोकतांत्रिक दायरे में रहकर अपने विचार व्‍यक्‍त किए हैं और आपको भी लोकतांत्रिक मूल्‍यों का ख्‍याल रखते हुए अपनी बात कहनी चाहिए। आपको ठंडे दिमाग से जगदीश्‍वरजी के आरोपों का जवाब देना चाहिए न कि वैचारिक हस्‍तमैथुन का आरोप लगाकर। आपके लेख का लब्‍बोलुआब यह है कि प्रवक्‍ता को जगदीश्‍वरजी के ऐसे लेखन से बचना चाहिए।

दरअसल, आप बौखला गए हैं। आप किसी से सहमत नहीं है तो उसकी कड़ी आलोचना कर सकते हैं। विरोधी पक्ष से संवाद मत करो, उसे बोलने मत दो, क्‍या लोकतंत्र का यही मतलब है? फिर तो हमें एक तालिबानी और फासीवादी समाज में जीना होगा। आप बहस से क्‍यों कतराते हैं, क्‍या आपके तर्क इतने कमजोर हैं या फिर आपकी पोल खुल जाने का डर है। बौद्धिक विमर्श में हिंदू कमजोर पड़ रहा है, तो इसके कारणों की मीमांसा कीजिए। क्‍यों आज दयानंद सरस्‍वती, विवेकानंद, अरविंदो जैसा बौद्धिक योद्धा हिंदू समाज की रक्षा के लिए सामने नहीं आ रहा है और वामपंथी बुद्धिजीवी आज विमर्श में हावी है। इस पर आपको गंभीरता से सोचना चाहिए।

आप प्रवक्‍ता के शुरूआती दिनों से हमसफर हैं इसलिए हमारी पूरी यात्रा को करीब से जानते हैं। हमने बार-बार कहा है, प्रवक्‍ता लोकतांत्रिक विमर्शों का मंच है। प्रवक्‍ता लेखकीय स्‍वतंत्रता का पक्षधर है। यह एक बगिया है, जिसमें भांति-भांति के वैचारिक फूल खिलते हैं। प्रवक्‍ता किसी पार्टी का लोकलहर, कमल संदेश और पांचजन्‍य नहीं है। यह भारतीय जनता की आवाज है। यह एकांगी और संकुचित दृष्टिकोण से मुक्‍त है। हम चाहते हैं कि समाज में विचारहीनता का वातावरण न बने और बहस का रास्ता हमेशा खुला रहना चाहिए।

आप जानते होंगे कि भारत में शास्त्रार्थ की बहुत पुरानी परंपरा रही है, जहां विभिन्‍न विचारधारा के लोग एक ही मंच पर विचार-विमर्श करते थे। और वास्‍तव एक लोकतांत्रिक समाज में तर्कों व चर्चाओं के माध्‍यम से समस्‍याओं के हल निकाले जाते हैं। लेकिन आज ऐसा नहीं हो पा रहा है, यह दुर्भाग्‍यपूर्ण है। संविधान हमें यह अधिकार देता है कि हम अपनी बात कानून के दायरे में रहकर कहें, यही तो लोकतंत्र की मूल भावना है।

पंकजजी, मैं तो यही सलाह दूंगा कि औरों पर थूकना छोडि़ए और अपनी रेखा लंबी कीजिए। अपने कुएं से बाहर निकलकर दुनिया को देखिए, यही समय का तकाजा है।

और अंत में हां, आपका पूरा लेख ही ‘झूठ’ की बुनियाद पर खड़ा है। आपके इतिहास ज्ञान पर तरस ही खाया जा सकता है। पहले भारत के राजनीतिक इतिहास का अध्‍ययन कीजिए तब जाकर रा.स्‍व.संघ पर टिप्‍पणी कीजिए। संघ समर्थित दल ने कभी ‘अब्दुल्ला बुखारी करे पुकार, बदलो कांग्रेस की सरकार’ जैसे नारे नहीं लगाए। दूसरों की अफवाह पर आपने एक पूरा लेख लिख डाला। आपको जानकारी नहीं थी तो किसी संघ के जानकार बुद्धिजीवी से इसकी सत्‍यता परख लेते। और देखिए, सच के सामने आते ही झूठ की बुनियाद पर खड़ा आपका यह लेख भरभरा कर ढह रहा है।

आपका,

संजीव कुमार सिन्‍हा

संपादक, प्रवक्‍ता डॉट कॉम