अवसाद के युग में साहित्य

साहित्य का वर्तमान बदला रूप अधिकतर लोगों की समझ में नहीं आ रहा । इन दिनों भाषिक प्रयोगों और मध्यकालीन विषयवस्तुओं की प्रासंगिकता नजर आ रही है। कुछ हैं जो अभी प्रगतिशील आंदोलन के प्रयोगों के आगे नहीं बढ़े हैं। इसमें कुछ ऐसे हैं जो अभी भी छायावादी भावबोध में जी रहे हैं। यही हाल कथा साहित्य है। किसी को कथा सरितसागर की कहानियों का फारमेट अच्छा लगता है तो कुछ के लिए प्रेमचंद का कथा रूप अपील करता है। कुछ ऐसे हैं जो राजेन्द्र यादव के दीवाने हैं तो कुछ को उदयप्रकाश में कथा के जादुई यथार्थ के दर्शन होते हैं। तात्पर्य यह है कि हिन्दी में साहित्य के नाम पर प्राचीन से लेकर नवीन सब कुछ चल रहा है।

हिन्दी में इन दिनों अतीत से लेकर अत्याधुनिक वर्तमान शिल्प के प्रयोगों का तांता लगा है। यही हाल पापुलरकल्चर का है। उसमें भजन से लेकर भांगड़ा तक,पॉप संगीत से लेकर शास्त्रीय संगीत तक सबमें फ्यूजन चल रहा है। वगैर किसी सिद्धांत और मकसद के पुरानी से लेकर नई शैलियों और देशी-विदेशी सिद्धांतों की खिचड़ी परोसी जा रही है। सिर्फ अंतर्वस्तु पर बहस कम से कम हो रही है। अतीत की शैलियों से लेकर अत्याधुनिक शैलियों का मनमाना प्रयोग इस बात का संकेत है कि कलाओं में नियमरहित अतीत का संगम हो रहा है। शैलियों को संतुलित कर देने, एक ही धागे में पिरो देने की इस प्रवृत्ति ने खास किस्म का सर्वसंग्रहवाद पैदा किया है।

साहित्य पुनर्सृजन है। वह वास्तव की बजाय कल्पना का खेल है। लेकिन कथाकार उसे वास्तव के रूप में व्याख्यायित करने में लगे हैं। दूसरी ओर वास्तव घटनाओं का नकली रूप टीवी चैनलों से नाट्य रूपान्तरण के जरिए आ रहा है। कुछ ऐसे विचारक भी हैं जो बता रहे हैं कि वेदों की ऋचाएं,लोकगीत, महाकाव्यों की कविताएं आदि सब कुछ सच था। वे उन्हें किसी न किसी वास्तव घटना से जोड़ रहे हैं और उनकी

वैधता की तलाश कर रहे हैं।

यानी साहित्य सच है ,सच के अलावा कुछ भी नहीं है। कलाओं में सच के पूजकों की ऐसी भीड़ पहले कभी नहीं देखी गयी। वे बता रहे हैं कि सब कुछ उपभोग के लायक है। सब कुछ आत्मसात किया जा सकता है। ‘सब कुछ कला और सब कुछ यथार्थ’ के नारे के नाम अतीत से लेकर वर्तमान तक की विलक्षण खिचडी पक रही है और उसे हम अनालोचनात्मक ढ़ंग से खा रहे हैं।

‘सब कुछ कला है’ के नारे के मानने वालों को साहित्य में कैसे प्रतिष्ठित किया जा रहा है और सब की रचनाओं को एक पदबंध में कैसे बांधा जा सकता है इसका साहित्यिक खेल ‘नया ज्ञानोदय’ के हाल ही में प्रकाशित ‘प्रेम’ और ‘बेबफाई’ विशेषांकों को देखकर लग सकता है। संपादक महादय ने उपरोक्त पदबंधों के आधार पर अतीत से लेकर वर्तमान तक की साहित्यिक रचनाओं को वर्गीकृत करके पेश किया है और

अच्छे जनप्रिय अंक प्रकाशित किए हैं। इन विशेषांकों में शामिल रचनाओं को समझने के लिए किसी परिप्रेक्ष्य,ऐतिहासिक संदर्भ,कल्पना आदि के वैविध्य आदि को समझने की जरूरत नहीं है। यह तो ‘प्रेम’ और ‘बेबफाई’ का सर्वसंग्रह है।

विचार विशेष पर इस तरह के संग्रहों के प्रकाशन का हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में खूब चलन है। यह साहित्य में नए और पुराने का सर्वसंग्रहवाद है। इस तरह के सर्वसंग्रहवाद के पीछे इस तरह के संग्रहों को निकालने वालों की अपनी साहित्यिक समझ रही है जिसके आधार पर वे इस तरह के खिचडी साहित्य की साहित्यिक प्रासंगिकता पर रोशनी ड़ालते हैं। उनके पास अपने सर्वसंग्रहवाद के लिए सुंदर तर्क हैं।

पुराने और नए को एक ही साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का साहित्य सिद्धांत पिटा हुआ उत्तर आधुनिक सिद्धांत है। इसे अलावा ‘सब कुछ साहित्य है और यथार्थ है’ और ‘प्रत्येक चीज प्रासंगिक है’,ये दोनों साहित्यिक नारे हमारे साहित्यिक क्षय को व्यंजित करते हैं। कलाबोध को नष्ट करते हैं। इन दो नारों के तहत प्रस्तुत सामग्री उपभोक्तावाद से संचालित है। इसका साहित्य से कम संबंध है।

उपभोक्तावाद के लिए सब कुछ जरूरी है। सब कुछ बिक सकता है। वहां कचरा और कूड़ा भी प्रासंगिक है। जिस तरह बाजार में रीसाईकिलिंग की गई वस्तुओं और प्लास्टिक के मालों की बाढ़ आयी हुई है वैसे ही साहित्य में भी नए किस्म का रीतिवाद आ गया है। इसमें पुराने रीतिवाद के लक्षण भी शामिल हैं। रीतिवाद की विशेषता है सृजन के केन्द्र में नकली यथार्थ और निर्मित साहित्य का आना। कहानी,उपन्यास से लेकर आत्मकथाओं तक निर्मित साहित्य की बाढ़ आयी हुई है। साहित्य की बजाय निर्मित साहित्य ने अंधानुकरण को बढ़ावा दिया है। यह साहित्य का स्टीरियोटाईप है।

जिस तरह रीसाईकिल से बनी सामग्री का निजी जीवन छोटा होता है। वैसे ही स्टीरियोटाईप साहित्य की भी उम्र कम होती है। वह स्मृति में टिकता नहीं है।साहित्यिक विवादों के केन्द्र में जमा नहीं रहता।

हमारे बीच में साहित्यिक प्रवृत्तियों की रीसाईकिलिंग हो रही है। साहित्यिक रीसाईकिलिंग में एक खास किस्म की मनोदशा या प्रवृत्ति या विचार को लेकर विशेषांक निकाले जा रहे हैं। इनका साहित्य के ऐतिहासिक अतीत और परिप्रेक्ष्य से कोई संबंध नहीं है। ‘नया ज्ञानोदय’के संपादक खुश हैं कि उन्होंने जो विशेषांक निकाले उनके कई संस्करण छापने पड़े हैं। एक जमाने में ‘आलोचना’ पत्रिका के फासीवाद विरोधी अंक के भी कई संस्करण निकले हैं। सर्वसंग्रह खूब बिकता है। वह वस्तु को उसके अतीत से विच्छिन्न कर देता है । उसे तात्कालिक खपत से जोड़ देता है। इसे साहित्य का उपयोगितावाद कहते हैं। यह ‘टाइम पास’ करने वाले साहित्य की प्रवृत्ति है।

मीडिया मालों का आस्वाद लेते हुए हम आज कृत्रिम यथार्थ के अभ्यस्त हो गए हैं। यथार्थ और कृत्रिम यथार्थ का अंतर भूल गए हैं। साहित्य और गैर साहित्य का भेद भूल गए हैं। सामयिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का अंतर करना भूल गए हैं। अब हम चीजों को अनालोचनात्मक या संशयवादी की तरह देखते हैं। स्वाभाविक और आलोचनात्मक ढ़ंग से देखने और परखने की कला हमारे जीवन से चली गयी है। हमें वास्तव घटना से ज्यादा निर्मित घटना अपील करती है। वास्तव की तुलना में कृत्रिम सुंदर लगने लगा है। वास्तव खबर नकली और नकली खबर वास्तव लगने लगी है।

‘नया ज्ञानोदय’ ने ‘प्रेम’ और ‘बेहफाई’ पर जो विशेषांक निकाले हैं उनमें उत्तर आधुनिकतावादी साहित्य की ‘कट एंड पेस्ट’ पद्धति का कौशलपूर्ण इस्तेमाल किया गया है। जब कोई संपादक ‘कट एंड पेस्ट’ की पद्धति का इस्तेमाल करता है तो वह प्रवृति या विचार विशेष का अंधानुकरण करता है। उस विषय को पैरोडी बनाता है। या किसी शैली विशेष का अनुकरण करता है। वह अपने ऊपर विशेष विषय, शैली, भाषा, मनोभाव आदि का मुखौटा लगा लेता है। वह विषय के साथ खिलौने की तरह खेलता है। वह जिस भाषा में बोलता है वह मरी हुई भाषा है।

किसी भी साहित्य पत्रिका के विषय विशेष पर प्रकाशित विशेषांक वस्तुतः व्यक्ति की एक विषय के रूप में अंत की घोषणा है। वे बताते हैं कि कुछ नया कर रहे हैं लेकिन वे असल में मृतभाषा में बयान कर रहे होते हैं। आप इन विशेषांकों में जीवंत व्यक्ति को नही देख सकते,उसके दुख-सुख को नहीं देख सकते। उनके लिए व्यक्ति की एक विषय के तौर पर उपस्थिति का अंत हो चुका है।

अब मनोदशा,प्रवृत्ति या विचार विशेष पर केन्द्रित अधिकांश विशेषांक व्यक्तिरहित रूप में आए हैं। वास्तव व्यक्ति से रहित ‘प्रेम’ और ’बेबफाई’ कैसी हो सकती है इसका आदर्श उदाहरण हैं ‘नया ज्ञानोदय’ के ये दो विशेषांक। यह बात जितनी इस पत्रिका पर लागू होती है उतनी ही अन्य पत्रिकाओं के विशेषाकों पर भी लागू होती है।

साहित्य में व्यक्ति के अवसान का जो पाठ उदीयमान बुर्जुआजी ने बनाया था उसकी ही चरम अभिव्यक्ति हैं ये विशेषांक। इन विशेषांकों में परवर्ती पूंजीवाद में पैदा हुए प्रतिस्पर्धी पूंजीवाद की कहीं पर भी छाया नजर नहीं आती। ‘प्रेम’ और ‘बेबफाई’ पर विभिन्न लेखकों एक ही धागे में पिरोने के चक्कर में संपादक ने जिस चीज की हत्या की है वह है व्यक्तिवाद। दूसरी जो चीज नदारत है वह है

संपादकीय नजरिया। संपादक का काम क्या अतीत को पुनःप्रस्तुत कर देना है ?जो छपा है उसे दोबारा छाप देना है ? तो निश्चित तौर पर यह साहित्य में बुरे दिनों के आगमन की सूचना है। फ्रेडरिक जेम्सन के शब्दों में यह‘नए की असफलता और अतीत की कैद है।’

थीम पर केन्द्रित अंक इस बात की सूचना है कि हिन्दी जगत गहरे अवसाद से गुजर रहा है। फ्रेडरिक जेम्सन के शब्दों में थीम पर केन्द्रित होकर बातें तब ही होती हैं जब बहुराष्ट्रीय कंपनियों अथवा परवर्ती पूंजीवाद के प्रति समाज अवसाद में डूबा हुआ हो। जो अवसाद में डूबे हैं उनके लिए ‘प्रेम’ और ’बेबफाई’ विशेषांक अपील कर रहे हैं। साथ ही दार्शनिक तौर पर यह व्यक्ति को चर्चा के केन्द्र

से हटाने की कोशिश है। अब प्रेम और बेबफाई पर बातें हो रही हैं। व्यक्ति के सामयिक संसार पर बातें नहीं हो रही हैं। इसी अर्थ में यह उत्तर आधुनिक साहित्यिक प्रयास है जिसमें व्यक्ति के अंत की घोषणा कर दी गई है।

3 COMMENTS

  1. There are certainly a lot of details like that to take into consideration. That is a great point to bring up. I offer the thoughts above as general inspiration but clearly there are questions like the one you bring up where the most important thing will be working in honest good faith. I don?t know if best practices have emerged around things like that, but I am sure that your job is clearly identified as a fair game. Both boys and girls feel the impact of just a moment’s pleasure, for the rest of their lives.

  2. अवसाद के युग में साहित्य – by – जगदीश्वर चतुर्वेदी

    यह अवसाद हिन्दी के साहित्य की हो रही है.

    अवसाद माने नाश, समाप्ति या केवल थकावट ?

    प्रवक्ता के आज (२०-११-२०१०) के विचार में यह लिखा है :

    “जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह हमारे लिए बेकार है वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है। -प्रेमचंद”

    – अनिल सहगल –

  3. वास्तविक कलापारखी कौन हैं ? मानवीय मूल्यों की गैर हाजिरी में नए पुराने अनुबंधों के सर्जनात्मक लक्ष्यार्थ क्या हैं ? अवसाद के युग में साहित्य आ खडा हुआ है या साहित्य में अवसाद का सृजन हो रहा है ?इन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए इंसानियत के सर पर सवार – तकनीकी अनुसंधानों और सूचना प्रोद्दोगिकी के प्रभाव को आम आदमी के चश्में से मूल्यांकित करना होगा …

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