थोड़ा सा फर्क

“दादाजी दादाजी ‘बनाना’ को हिंदी में क्या बोलते हैं?”

“बेटे ‘बनाना’ को हिंदी में केला कहते हैं|”

“और दादाजी वो जो राउंड ,राउंड, ऱेड, रेड एप्पिल होता है न उसको हिंदी में क्या बोलते हैं?”

“बेटे उसको सेब बोलते हैं|” मेरा नाती मुझसे सवाल पूँछ रहा था और मैं जबाब दे रहा था|

“आच्छा..आपको तो दादाजी सब पता है |दादाजी मैं कल एक बुक लेने शाप पर गया था शापकीपर को

बुक का प्राइज़ भी नहीं मालूम वो सिक्स्टी टू रुपीस नहीं जानता, पता नहीं वह बासठ बासठ कुछ बोल रहा था |वह तो एक अंकल आये तो उन्होंने बोला सिक्स्टी टू रुपीस देना है और मैंनें दे दिये|

मुझे चालीस साल पुराने दिन याद आ गये |मेरा बेटा पूछ रहा था” पापा केले को अंग्रेजी में क्या कहते हैं?” और मैं उसे बता रहा था “बेटा केले को अंग्रेजी में ‘बनाना’ कहते हैं|”

“और पापा सेब को अंग्रेजी में कया कहते हैं?”

“बेटे सेब को एप्पिल कहते हैं|”

“अच्छा पापाजी तीस रुपये को अंग्रेजी में क्या कहेंगे?”

“बेटा थर्टी रुपीस कहेंगे|”

मैं सोच रहा था बेटे से नाती तक के सफर में कितना, कैसा बदलाव आया है,सब कुछ वही…. पहले पैर धरती में और सिर ऊपर आसमान की तरफ होता था| और …..और अब सिर नीचे और पैर आसमान में, बहुत थोड़ा सा फर्क|

Previous articleतमिलनाडु में हिन्दी लोकप्रिय?
Next articleकविता-चींटी
लेखन विगत दो दशकों से अधिक समय से कहानी,कवितायें व्यंग्य ,लघु कथाएं लेख, बुंदेली लोकगीत,बुंदेली लघु कथाए,बुंदेली गज़लों का लेखन प्रकाशन लोकमत समाचार नागपुर में तीन वर्षों तक व्यंग्य स्तंभ तीर तुक्का, रंग बेरंग में प्रकाशन,दैनिक भास्कर ,नवभारत,अमृत संदेश, जबलपुर एक्सप्रेस,पंजाब केसरी,एवं देश के लगभग सभी हिंदी समाचार पत्रों में व्यंग्योँ का प्रकाशन, कविताएं बालगीतों क्षणिकांओं का भी प्रकाशन हुआ|पत्रिकाओं हम सब साथ साथ दिल्ली,शुभ तारिका अंबाला,न्यामती फरीदाबाद ,कादंबिनी दिल्ली बाईसा उज्जैन मसी कागद इत्यादि में कई रचनाएं प्रकाशित|

13 COMMENTS

  1. बहुत सुंदर श्रीवास्तव साहब

    आपकी यह कहानी अंग्रेजी के प्रभुत्व का उदाहरण। आज हर माँ-बाप अपने बच्चों को कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाकर खुद भी आधुनिक बनने की होड़ में है। आज अगर आप सड़कों में बच्चों के मा-बाप को बच्चों से अंग्रेजी में बात करते देखते है तो चौकिए मत यह आज की एक रीति बन गई है। इसकी आधुनीकरण दिखने की चाह में हमारी राष्ट्रीय भाषा का महत्व कम होता जा रहा है।

  2. सबको मालुम है जन्नत की हकीकत लेकिन
    दिल के खुश रखने को गालिब ख्याल अच्छा है,
    क्या हिन्दुस्तानी डीएनए में से कायरता और हीन भावना के जीन्स हटाने का कोई उपाय है?

  3. यही तो प्रयास चल रह है कि अब हम सोचना भी अंग्रेजी में शुरु कर दें. अराष्ट्रीयकरण के इस षडयन्त्र को जापान ने समझ लिया था, तभी तो उन्होंने आजादी मिलते ही कान्वेंट स्कूलों को तुरन्त बन्द करवा दिया था. भारत में भी कभी देशभक्त सरकार बनेगी तो वह भी यही करेगी. स्व भाषा के समाप्त होने पर स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है. इससे भी बडी दुर्घतना यह होती है कि स्वतनंत्रता की चाहना, कामाना भी स्व भाषा की समाप्ती के साथ समाप्त हो जाती है. यही देश की दुश्मन तकतें करना चाह रही हैं. भारत को प्यार करने वाले इस बत को ठीक से समझें, इस बात की जरुरत है.

  4. अब जा के अपनों से संगत बैठी है, मैंने जॉब जी शुरुआत गुडगाँव के की थी तब वहां अंग्रेजी का बोल बाला था लेकिन अपने ऑफिस में और बाहर से आने वाली फोन काल वालों से मैं धड़ल्ले से हिंदी बोलता था बिना किसी हीनता के और उनको भी हिंदी बोलने पर मजबूर कर देता था. बक्श्ता सिर्फ उनको था जिन्हें हिंदी नहीं आती थी. नौकरी के सारे इंटरव्यू मैंने हिंदी में दिए कुछ एक ही मिक्स्ड भाषा में दिए. बात दरअसल ये है की हीन भावना के कारण ही लोग हिंदी नहीं बोलते हैं अन्यथा और कोई कारण है की हिंदी नहीं बोली जाए. मैं अंग्रेजी का सिर्फ उतना ही प्रयोग करता हूँ जितनी जरूरत है. यहाँ तमिलनाडु में मैं किसी के मुंह से हिंदी सुनता हूँ तो उन लोगों को खूब सराहता हूँ, जिससे उनकी हिचक दूर होती है और वो ज्यादा से ज्यादा हिंदी बोलने की कोशिश करते हैं. मेरे आस पास कुछ लोग हैं जिन्हें टूटी फूटी हिंदी आती है, लेकिन अब वो इसे ठीक कर रहे हैं. मूल बात ये है की हीन भावना को छोड़ना और अपनी भाषा पर गर्व करना.

    प्रभु दयाल जी कहानी के माध्यम से बहुत बड़ी बात कही है आपने. फर्क बहुत बड़ा है. आपका बहुत बहुत शुक्रिया आत्म मंथन के लिए ध्यानाकर्षित करने के लिए.

    • सही कहा, आपने — हमें गौरव है, आपके सही सही आचरण पर|
      नितांत गौरव गरिमा के साथ, सर उठाकर, आप आत्म विश्वास के साथ, कह सकते हैं,
      ” जी, म्लेंछो की भाषा में, मैं बोलना नहीं चाहता, क्या आपको हिंदी आती है?”

      इस समस्याका मूल हमारी हीन भावना और हीनता ग्रंथि हैं|

      (१)
      एक हिंदी भाषी सज्जन गलत अंग्रेजी झाडते रहते और अपनी अंग्रेजियत का गौरव मानते, कहा करते थे कि हिंदी उन्हें समझ नहीं आती. बहुत बरसों से भारत छूट गया है|

      तब एक हिंदी भक्त युवा को बड़ा क्रोध आया, और उसने असली पंजाबी गाली उन्हें दे दी. तब वे हिंदी में हमारे स्तर पर उतर आए, और असली हिंदी में उस युवक से लड़ने लगे.
      युवक ने कहा –>क्यों अब हिंदी समझ में आ गयी?

      (२)
      डटे रहिए| एक ऐसा आन्दोलन प्रारम्भ किया जाए, कि जो संसद/विधान-सभा में हिंदी बोलने या सीखने प्रतिबद्ध नहीं है, उन्हें जनता मत नहीं देगी.
      जब अटलजी संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी बोलकर आये, तो भारत की संसद में हिंदी का ही स्वीकार हो, या तो प्रादेशिक भाषा, (हिंदी अनुवादक के साथ) स्वीकार हो|
      पर अंग्रेजी बिलकुल नहीं.
      (३)
      यूनो में भी पांच भाषाएँ वैश्विक मानी गयी है|
      स्पेनी, रूसी, चीनी, अंग्रेज़ी, फ़्रांसिसी|
      (४)
      हिंदी, चीनी और अंग्रेज़ी के पीछे तीसरे क्रम पर संख्या के कारण मानी जाती है| वैसे अंग्रेज़ी-हिंदी प्रायः सम सामान है| हिंदी अंग्रेज़ी में कुछ ही अंतर है|
      (५) नारा हो, हम उसीको मत देंगे जो संसद में हिंदी बोले, या हिंदी सीखने का वाकां दे.
      मतों के लिए कुछ भी करने वाले ठिकाने आ जाएँगे.
      बहुत बहुत धन्यवाद -शिवेंद्र जी

      • उत्साह वर्धन के लिए बहुत बहुत शुक्रिया मधुसूदन जी…

  5. आपने पीढ़ियों के अंतराल से सोच में आये परिवर्तन की ओर आपने ध्यान आकर्षित किया है. वास्तव में पहले भाषा हमारी सभ्यता और संस्कृति की पहचान हुआ करती थी जबकि अब भाषा को बाजार से जोड़ दिया गया है. बड़े गर्व से लोग कहते हैं की अंग्रेजी के कारण ही हम संसार में खड़े हैं(?).और आई. टी क्षेत्र में हमारा महत्त्व केवल अंग्रेजी के ही कारण है. लेकिन ऐसा कहने वाले भूल जाते हैं की चीन , जापान जर्मनी, कोरिया और ब्राजील जैसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश अंग्रेजी का प्रभुत्व न होते हुए भी दुनिया की दौड़ में काफी आगे हैं. भारत का महत्त्व अंग्रेजी के कारण होने की मानसिकता मेकालेवादी सोच का परिणाम है.

  6. सुन्दर,एक कटु सत्य का बखान कर दिया है आपने, मैं भी आजकल अपनी पोत्रियों के पास आजकल कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रहा हूँ.कुछ अचरज होता है,कुछ बदलते हालत पर झल्लाहट भी होती है, कि हम अपनी भाषा अपने परिवेश से कितना कटते जा रहें हैं,पर बड़ा मजबूर सा महसूस हो कर यह सोचता हूँ कि अब इस का कोई विकल्प नहीं है , पश्चिम कि होड़ में अभी और कितना आगे जाना है , नहीं पता,पर आज की पीढ़ी को यह अच्छा उचित, और समयानुरूप लगता है, और उस हालत में हमें भी खुले मन से यह सब स्वीकार कर लेना चाहिए , तब ही ज़माने में अपनी जगह सुरक्षित रख पाएंगे.

  7. सा महसूस हो कर यह सोचता हूँ कि अब इस का कोई विकल्प नहीं है , पश्चिम कि होड़ में अभी और कितना आगे जाना है , नहीं पता,पर आज की पीढ़ी को यह अच्छा उचित, और समयानुरूप लगता है, और उस हालत में हमें भी खुले मन से यह सब स्वीकार कर लेना चाहिए , तब ही ज़माने में अपनी जगह सुरक्षित रख पाएंगे.

  8. सुन्दर,एक कटु सत्य का बखान कर दिया है आपने, मैं भी आजकल अपनी पोत्रियों के पास आजकल कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रहा हूँ.कुछ अचरज होता है,कुछ बदलते हालत पर झल्लाहट भी होती है, कि हम अपनी भाषा अपने परिवेश से कितना कटते जा रहें हैं,पर बड़ा मजबूर

  9. कटु व्यंग्य लेखन से, आपने गहन सच्चाई की ओर ध्यान आकर्षित किया है|
    आज कल समाचार देने वालों को भी “उन्नीस सौ सैंतालिस”—नहीं, पर “नाइनटीन फोर्टीसेवन” बोलते सुनता हूँ| कम से कम यु. एस. ए. (उत्तरी अमरीका में) आज भी यह सच्चाई दूर दर्शन पर दिखाई देती है|
    हीनता ग्रंथि मनुष्य से क्या क्या करवाएगी, कह नहीं सकते?
    प्रभुदयाल जी लगे रहिए|

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,673 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress