आनन्द को जीने की पहल करें

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– ललित गर्ग –

हर इंसान की चाहत होती है कि वह जीवन में मस्त, प्रसन्न एवं आनन्दित रहे, लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है, इसीलिए कहा गया है कि ‘मस्ती इतनी सस्ती नहीं कि हर हस्ती को मिल जाए।’ अपनी सीमित आवश्यकता में मस्त रह सकने वाला ही असली मस्ती का हकदार हो सकता है। जो अपने को अच्छा न लगे वह व्यवहार दूसरों के प्रति नहीं करने वाला व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में स्थायी सुख-शांति एवं आनन्द का अधिकारी है। ध्यान रखो कि सच्चे मन से चाहने से सब चीजें हासिल हो सकती हैं, अधूरे मन से हम सब चीजें खोते हैं। संस्कृत में एक मंत्र है-‘‘अहं ब्रह्म अस्मि’’ या ‘‘ईश्वर जो भी है, मैं हूं।’’ उसे फिर पढ़ें-‘‘ईश्वर जो भी है, मैं हूं।’’ कल्पना कीजिए, ईश्वर बाहर नहीं, अंदर है। हम व्यर्थ उसे बाहर मूर्तियों, ग्रंथों, पूजा-स्थलों में ढूंढ़ते रहते हैं। लेकिन वास्तव में वह आपके अंदर है। इसलिए जिस तरह आप अपनी खुशी, प्रगति के लिये मंदिर का सम्मान करते हैं, ठीक उसी तरह आपको अपने अंतःस्थल का सम्मान करना चाहिए, जो ईश्वर का सही निवास है? किसी ने कहा है-‘‘आपको सबसे अधिक जो आवाज सुननी चाहिए, वह है अपने दिल की आवाज।’’
चीजों की तह मंे जाने में ही बेहतर भविष्य एवं खुशी का रास्ता मिलता है। इसके बिना बात नहीं बनेगी। सच्चाई है कि जिसे हमने सुख का साधन मान रखा है, वह हमें सुख नहीं दे रहा है, जो है, उसे छोड़कर, जो नहीं है उस ओर भागना हमारा स्वभाव है। फिर चाहे कोई चीज हो या रिश्ते। यूं आगे बढ़ना अच्छी बात है, पर कई बार सब मिल जाने के बावजूद वही कोना खाली रह जाता है, जो हमारा अपना होता है। दुनियाभर से जुड़ते हैं, पर स्वयं से, अपनांे सेे ही दूर हो जाते हैं। संत मदर टेरेसा ने कहा है, ‘अगर दुनिया बदलना चाहते हैं तो शुरुआत घर से करें और अपने परिवार को प्यार करें।’
जब सुख और दुःख में हमारी समदृष्टि हो जाती है तो ‘दर्द का हद से गुजर जाना दवा हो जाना’ वाली स्थिति स्वयं आ जाती है। सबसे महत्वपूर्ण यह मानव हृदय है, क्योंकि इसी में परमात्मा आत्मा के स्वरूप में निवास करता है, किन्तु यह आत्मा ‘सत्यं शिवम् सुंदरम’ तभी बनती है, जब हमारे व्यवहार  यानी सभी कर्म सुंदरतम् हों, जो हमें उज्ज्वल कीर्ति प्रदान कर अमर कर दें। स्वच्छता, श्रम तथा आत्मचिंतन हमारे तन-मन को स्वस्थ रखने के लिए अति आवश्यक हैं। जैसा कि बाॅब प्राॅक्टर ने कहा है-‘‘जीवन का आनंद उठाएं, क्योंकि जीवन महत्वपूर्ण है। यह एक शानदार सफर है।’’ वे लोग भाग्यशाली हैं, जो अपने जीवन के हर पल, हर दिन का जश्न मनाते हैं और वह भी बिना वजह। मैंने एक बार कहीं पढ़ा था-‘‘जीवन में अक्सर आपसे मजबूत और प्रसन्न लोग आपके रास्ते में आते हैं। आप जब ऐसे लोगों के बारे में देखते या सुनते हैं तो उनसे ईष्र्या न करें। ईश्वर उन्हें आपको प्रोत्साहित करने के लिए आपके रास्ते में लाया है।’’
आनंद और प्रसन्नता को धारण कर ऋषि मुनि भी अजर-अमर हो गए, योगी आनंद का अखंड पान कर सामथ्र्यवान हो गए, सिद्धों ने आनंद को एक समर्थ सिद्धि माना। तांत्रिकों ने आनंद को परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला एक मंत्र समझा। इनमें से कोई कभी निराश नहीं हुआ। सभी ने निर्दोष प्रसन्नता का अखंड जाप करके स्वस्थ तन और मन पाया। प्रसन्नचित्त रहना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। खतरों से घबराओ मत, सरल और सरस जीवन बनाओ, संघर्ष आपको और निखारने के लिए आता है, तो उसे भी खुशी के साथ निपटो, चिंता-भय-परेशानियों से अपनी इच्छा शक्ति से निपटो, सतत किसी-न-किसी काम में व्यस्त रहो तथा मस्त रहो। शरीर को स्वस्थ रखने हेतु परहेज से रहो, अपनी एक रुचि वालों की टीम बनाओ, दोस्त बनाओ क्योंकि उनसे शक्ति मिलती है, जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है, इससे बड़े कार्य आसान हो जाते हैं। किसी ने बहुत ठीक कहा है-‘‘मैं एक दोस्त ढूंढ़ने गया, लेकिन वहां किसी को नहीं पाया। मैं दोस्त बनने गया और पाया कि वहां कई दोस्त थे।’’ इसलिये आप अपने स्वामी खुद हैं, अतः जैसे जीवन को बनाना चाहोगे बना सकते हो, केवल दृढ़ संकल्प, एकाग्रता, सच्ची लगन हो तो ऊंचे से ऊंचा लक्ष्य पाने में कोई समस्या नहीं होती।
एक प्रश्न बार-बार मन को झकझोरता है कि गुणों की सुगंध उतनी तेजी के साथ औरों तक क्यों नहीं पहुंच जाती जितनी तेजी के साथ वह दुर्गुणों की दुर्गंध को फैलाव दे जाती है। इस जिज्ञासा के दौरान कई जीवनमूल्यों को पहचानने का अवसर मिला और पता लगा कि अच्छाइयों के लिए एक लंबा सफर तय करना पड़ता है जबकि बुराइयां तो हर मोड़ पर हाथ मिलाने को तैयार रहती हैं। स्वार्थ तो हर तरफ बिखरा हुआ नजर आता है लेकिन परमार्थ की रोशनी ढूंढने पर भी दिखाई नहीं देती। आनन्दित जीवन के लिये जरूरी है जीवन की दिशा बदलने की। परार्थ और परमार्थ चेतना जगाने की। जब हम सबके लिए जीएं तो फिर अनेक समस्याएं स्वतः ही समाहित हो जाएंगी। जैसाकि फ्रांकोइस गाॅटर ने कहा-‘‘फूल अपने आप खिलते हैं-हम बस उसमें थोड़ा पानी डाल सकते हैं।’’
पैसा समय की महत्वपूर्ण आवश्यकता है, किन्तु उसके इतने भी दीवाने नहीं बनो कि घर की और स्वयं की सुख-शांति तक में दरार पड़ जाए और बाद में आप अपने घर में अकेले पड़ जाएं। लक्ष्मीपति तो केवल एकमात्र नारायण प्रभु ही हैं, बनना है तो लक्ष्मीपुत्र बनो। अनासक्ति भाव में कमाओ और जरूरी खर्च करने में कभी संकोच भी मत करो। मितव्ययी बनो, कंजूस नहीं। पैसा और नाम कमाना ही जीवन का लक्ष्य न हो। आपको जो मिलना है वह आपकी मेहनत, कार्य के प्रति ईमानदारी, प्रभु इच्छा से निश्चित है, फिर किस बात की हाय-तौबा। समय आने पर ही काम होते हैं, किन्तु समय की प्रतीक्षा में टकटकी लगाए रहने वाला भी-‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’ की स्थिति में दुःखी होता है। अतः समय से पहले किसान को भी फसल की तैयारी करनी ही पड़ती है, तभी वो फसल की सही कीमत और आनंद प्राप्त कर पाता है। कर्मठ बनने वाला कभी भी घाटे में नहीं रहता। जो मिलना है, वो तो मिलता ही है, उससे श्रेष्ठ कार्य उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाकर आगे के भविष्य को भी संवार देते हैं। युधिष्ठिर जब भीष्म पितामह के अंतिम क्षणों में सफलता का रहस्य पूछते हैं, तो वे कहते हैै-‘अपनी असफलताओं से अपने को अपमानित अनुभव नहीं करो, सफलता को सदैव अपने करीब ही समझो। उसे अपने लक्ष्य के लिए ढंूढो और प्राप्त करने के लिए सतत् लगे रहो।’

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