लोकमंथन भोपाल – अमृत की खोज में एक महा आयोजन

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भोपाल में आयोजित त्रिदिवसीय आयोजन लोकमंथन की अवधारणा, आकार, आवेग और अनुवर्तन की दिशा तब ही स्पष्ट हो गई थी जब इस आयोजन के एक माह पूर्व, इस आयोजन के शुभंकर लोकार्पण हेतु एक कार्यक्रम में केन्द्रीय मंत्री अनिल माधव दवे व फिल्म अभिनेता निर्देशक व चाणक्य सीरियल के कल्पक चंद्रप्रकाश द्विवेदी पधारे थे. जहां तक भोपाल व मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग व प्रज्ञा प्रवाह की बात है तो लगता है कि विश्व हिंदी सम्मेलन के बाद उसे इस प्रकार के आयोजनों में विशेषज्ञता हासिल हो गई है. प्रज्ञा प्रवाह व मप्र संस्कृति विभाग ने इस आयोजन को बखूबी निभाया व एक दिव्य, भव्य व अद्भुत कार्यक्रम का परिणाम दिया.

12-13-14 नव. को आयोजित “राष्ट्र सर्वोपरि – विचारक एवं कर्मशीलों” के नाम से इस कार्यक्रम के उदघाटन समारोह में मप्र, गुजरात के राज्यपाल ओमप्रकाश कोहली, जुना अखाड़ा के संत श्री महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि, मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह सुरेश सोनी, भाजपा उपाध्यक्ष व राज्यसभा सांसद विनय सहस्त्रबुद्धे, संस्कृति मंत्री मप्र सुरेन्द्र पटवा व संस्कृति सचिव मप्र मनोज श्रीवास्तव उपस्थित थे.

उदघाटन समारोह में राज्यपाल श्री कोहली ने कहा कि सनातन धर्म ही राष्ट्रीय अस्मिता है, यह सार्वभौमिक और शाश्वत होती है, इसे आधुनिक संदर्भों में परिभाषित और अभिव्यक्त करना होगा. कोहली जी ने कहा कि उपनिवेशवादी मानसिकता आज बाजार, उत्पादों, जीवन-शैली और भूमंडलीकरण के रूप में उपस्थित है, इससे निपटने के लिये स्वदेशी आंदोलन की जरूरत है. उन्होंने कहा कि यदि राष्ट्रीय अस्मिता मजबूत है, तो औपनिवेशवादी मानसिकता का कोई भी प्रकार या स्वरूप नुकसान नहीं पहुंचा सकता. उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय अस्मिता और सनातन धर्म शाश्वत होने के बावजूद धूमिल पड़ सकते हैं, इसे समय-समय पर साफ करने की जरूरत है. उन्होंने यह भी खा कि भारत में मुगलों के आक्रमण के बाद भी भारत के लोक ने राष्ट्रीय अस्मिता को बिखरने नहीं दिया लेकिन अंग्रेजी शासन ने इस पर गहरा आधात किया. भक्ति आंदोलन ने भारत की सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखा. उन्होंने कहा कि दीर्घ मुगल शासन के बावजूद हिज्री संवत को भारत ने स्वीकार नहीं किया, किन्तु अंग्रजों के अपेक्षाकृत अल्प शासन काल में हमनें ईस्वी वर्ष को स्वीकार कर लिया.  आज राष्ट्रीय अस्मिता के संरक्षण की जरूरत है. इसे जन-मानस के आचार-विचार में अभिव्यक्त होना चाहिए.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह सुरेश सोनी ने अपने बीज वक्तव्य ‘राष्ट्र की लोकाभिव्यक्ति” में कहा कि भारत की अस्मिता को दैनंदिन कार्यों और हर विषय में अभिव्यक्त होना चाहिए. उन्होंने कहा कि एक से अनेक होने और फिर अनेक से एक बने रहने की मूल भावना और दर्शन भारतीय जीवन में अभिव्यक्त हुआ है. इसी से औपनिवेशिक दुष्परिणाम से मुक्ति मिलेगी. उन्होंने राष्ट्र और नेशन के अंतर को समझाते हुए बताया कि भारत ने एक राष्ट्र के रूप में दूसरों को ज्ञान और कौशल देकर समृद्ध किया. आज भारतीय अस्मिता के माध्यम से बदलाव की प्रक्रिया का उपकरण अपनाने की जरूरत है. भारत एक है और अखंड है, क्योंकि यहां की अस्मिताओं में समन्वय रहा है.

जूना अखाड़ा के महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि ने कहा कि विज्ञान ने नींद छीन ली ओर मानसिक चेतना कुंद हुई है. शास्त्रों में कहा गया है कि मन की चिंता करो. भारतीय ऋषियों ने मन की चिंता की, पदार्थ की नहीं। पश्चिम के लिए विश्व एक बाजार है जबकि भारतीय दर्शन और धार्मिक परंपराओं में विश्व को परिवार माना गया है. उन्होंने कहा कि भोग की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं. भंडारण और संचय की प्रवृत्ति उचित नहीं है. उन्होंने आर्थिक क्षेत्र में लिए गए हाल के निर्णय के संदर्भ में कहा कि इससे संग्रह की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी. यह निर्णय भारत में बड़ा परिवर्तन लाने वाला है, देश का बड़ा रूपांतरण होगा.  उन्होंने कहा कि राष्ट्र का नागरिक होने के नाते यह भी याद रखने की जरूरत है कि समाज का भी ऋण है, इसे चुकाना होगा. उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में अधिकारों के प्रति जागरूकता आई है लेकिन कर्त्तव्यों के प्रति उदासीनता भी बढ़ी है. उन्होंने कहा कि लोक-मानस को पवित्र रखने का संकल्प लेना होगा. अच्छा और बड़ा दिखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है. अच्छा और बड़ा बनने पर ज्यादा ध्यान देना भी जरूरी है.

मुख्यमंत्री चौहान द्वारा बनाए गए आनंद मंत्रालय के संदर्भ में उन्होंने कहा कि पदार्थ से आनंद नहीं मिलता.  जब तक प्रकृति, अपने मूल और निजता में नहीं लौटेंगे, खुशी नहीं मिलेगी. आत्मानुभूति ज्यादा जरूरी है. उन्होंने कहा कि लोक मंथन में शासक, प्रशासक और उपासक को एक मंच पर लाने के लिए चौहान ने राजा हर्षवर्धन और विक्रमादित्य की परंपरा निभाई है.

राज्यसभा सदस्य विनय सहस्त्रबुद्धे ने ‘लोक मंथन’ की परिकल्पना और आयोजन की रूपरेखा पर प्रकाश डाला. मुख्यमंत्री चौहान ने अपने स्वागत भाषण में कहा कि राष्ट्रवादी विचार पंरपराओं की श्रंखला में प्रदेश में छह बड़े आयोजन सफलतापूर्वक संपन्न हुए हैं. उन्होंने कहा कि भारत महान राष्ट्र है। जब विकसित देशों में लोग पेड़ों की छाल से तन ढंकते थे तब भारत में रेशम और मलमल बनते थे. नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय थे. जब कई विकसित देशों का अस्तित्व नहीं था तब भारत में वेदों की रचना हो चुकी थी. यहां का ज्ञात इतिहास पांच हजार सालों का है. उन्होंने कहा कि भारत की लोक विरासत अत्यंत विराट और समृद्ध है. इसी भूमि ने विश्व को कई उदात्त नैतिक सिद्धांत दिये हैं. उन्होंने कहा कि लोक मंथन के माध्यम से उपलब्ध हुए अमृत विचारों को राज्य सरकार द्वारा सघन रूप से प्रचारित-प्रसारित किया जायेगा.

आयोजन के दौरान तीनों दिन एक या दो, प्रारम्भिक सामूहिक सत्र व दो दो समानांतर सत्र होते रहे. इन सत्रों में देश भर से आये सौ से अधिक विद्वानों व मनीषियों ने वक्ता रूप में भाग लिया.

 

लोकमंथन के समापन कार्यक्रम में अंतिम उद्बोधन हुआ आयोजन समिति के कार्याध्यक्ष डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी का ! उन्होंने कहा कि शास्त्र कहता है दूसरा कोई नहीं है. कबीर ने भी कहा कि प्रेम गली अति सांकरी, जा में दुई न समाए. अत: यहाँ सभागार में दूसरा कोई है ही नहीं. अत: प्रिय आत्मन सबसे पहले विचार करते हैं कि दासता क्या होती है ! साथ ही यह कि कभी कोई विदेशी दासता से मुक्ति की इच्छा भी जगी क्या ? दिवेदी जी एक कथा का उद्धरण करते हुए कहा कि – सिकंदर के सामने एक दिन उसका एक सैनिक “कोयनस” आकर खड़ा हो गया और बोला – हमें अपनी मातृभूमि वापस लौटना है ! उसकी पीड़ा यह थी कि जो वस्त्र वह पहन रहा है, वे जीते हुए प्रदेशों के हैं, उसकी मातृभूमि के नहीं ! उसे जीते हुए प्रदेशों के वस्त्र भी स्वीकार नहीं थे ! अब अपने अंतस में झांककर अंतर देखें ! एक अन्य उदाहरण को व्यकर करते हुए उन्होंने कहा – दांडायन ऋषि जंगलों में रहते थे, अलेक्जेंडर का सेनापति उनके पास पहुंचा और जंगल में रहने का कारण पूछा, ऋषि ने उत्तर दिया – इस घर को सबसे कम मरम्मत की जरूरत है ! ऐसे ही एक ऋषि सेलेटस के पास अलेक्जेंडर का दूसरा सिपाही पहुंचा ! ऋषि निर्वस्त्र एक शिला पर लेटे थे ! ऋषि ने पूछा क्या चाहिए ? सैनिक बोला, आपसे ज्ञान चर्चा करनी है। ऋषि ने कहा कि वस्त्र उतार और मेरे पास शिला पर लेट जा, यदि तू वस्त्र उतारने के लिए तैयार नहीं तो मन पर पड़े पर्दे कैसे उतारेगा. पिछले तीन दिन में हमने इस लोकमंथन में मन पर पड़े पर्दे उतारने की कोशिश की है. सवाल यह है कि इसकी उपयोगिता क्या ? इससे समाज को कुछ मिलेगा क्या ? बुद्ध की एक कथा है – बुद्ध के एक शिष्य को लगा कि उसे ज्ञान प्राप्त हो गया है ! गलियों चौराहों पर जाकर प्रवचन करने लगा ! आने जाने वाले मुसाफिरों को रोककर ज्ञान का उपदेश देता ! बात बुद्ध तक पहुंची, उन्होंने शिष्य को बुलाया और कहा – क्या गायों को गिनने से दूध मिल जाएगा ? शिष्य ने कहा नहीं, गायों की सेवा करनी होगी, उन्हें चारा खिलाना होगा, तब दूध मिलेगा ! सवाल उठता है कि क्या सिर्फ बौद्धिक विमर्श से समाज को अमृत मिल जाएगा? इस विमर्श को आगे ले जाना होगा, परिवार में, समाज में, सब जगह,यह मंथन जारी रखना होगा.

विचार एक बीज है, अनुकूल वातावरण मिलने पर पल्लवित होकर वृक्ष बन सकता है ! इस विचार को कर्म में उतारना होगा ! हमें कर्मशील बनना होगा ! स्वयं से प्रारम्भ होगा, तभी समाज तक पहुंचेगा ! लोकमंथन के अधिकाँश वक्ताओं का संकेत अध्यात्म की ओर था ! यह तो वही पुरातन वृक्ष है, जिसे माधवाचार्य, आदि शंकराचार्य, याज्ञवल्क्य, मधुसूदन शास्त्री, यहाँ तक कि दारा शिकोह ने भी सींचा था, विवेकानंद जी ने तो शिकागो में जाकर इसका उद्घोष किया था !ध्येय को बीच में छोड़ने के दो कारण होते हैं, असफलता का भय या मृत्यु ! लोग क्या कहेंगे, अपमान करेंगे आदि आदि ! उत्तरदायित्व लेंगे तो क्या नहीं हो सकता ? इतिहास में हर महापुरुष का अपमान हुआ है ! चाणक्य को घनानंद की सभा में से फेंका गया ! एक अकिंचन शिक्षक ने संकल्प लिया, इस देश को एक होना होगा और वह मैं करूंगा ! महात्मा गांधी को भी ट्रेन से फेंका गया था, परिणाम सब जानते हैं ! चाणक्य का ही कथन था – अनुयाईयों की कमी नहीं है, योजकों की, दिशा देने वालों की कमी है ! कुछ लोग कहते हैं, साधन नहीं हैं, वह मैं कैसे प्राप्त करूंगा ? तुलसीदास तो जन्म से ही अमंगली मानकर मातापिता द्वारा छोड़ दिए गए थे ! वह वाल्यावस्था में भीख मांगकर पलता है, बढ़ता है ! जीवन का उद्देश्य ढूंढता है, तो भारत का इतिहास बदलकर रख देता है ! वाल्मीकि कृत रामायण भारत का पहला और तुलसी रचित रामचरित मानस भारत का अंतिम महाकाव्य है ! विवेकानंद के शिकागो जाने में भी तो संकल्प ही मुख्य था !सम्मान की आशा छोड़ दो ! ऋग्वेद में कहा गया है – बुद्धिमान को चाहिए की वह सम्मान को विष समझकर उससे दूर भागे, क्योंकि अपमान पौरुष और बल देगा ! यम नचिकेता संवाद में नचिकेता कहता है – मुझे धन नहीं चाहिए, क्योंकि धन की प्यास कभी नहीं बुझने वाली ! मुझे तो सत्य बताओ !

जब भी हम अपने अंतस में झांककर सत्य की खोज करते हैं, वह भी मंथन होता है ! मंथन घर में भी हो सकता है, परिवार में भी ! मंथन में बहुत अधिक लोगों की आवश्यकता नहीं होती, भीड़ में मंथन नहीं होता . गीता का अमृत कृष्ण और अर्जुन के संवाद से निकला। सवाल उठता है की कृष्ण ने इसके लिए अर्जुन को क्यों चुना, युधिष्ठिर को क्यों नहीं ? क्योंकि वे जानते थे कि युद्ध का परिणाम बदलने की सामर्थ्य केवल अर्जुन में है ! इसलिए विश्व के सर्वश्रेष्ठ वक्ता ने सर्वश्रेष्ठ श्रोता चुना ! कठोपनिषद में कहा गया है – उठो, जागो, और तब तक मत रुको, जब तक कि अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर लो !पंडित मदन मोहन मालवीय ने कहा है कि मुझे विश्व की चिंता है, इसलिए भारत की चिंता करता हूं.  क्योंकि विश्व के सभी प्रश्नों का उत्तर भारत से मिलेगा. वहीं, गुरु गोलवलकर जी ने कहा है कि दुर्जनों की सक्रियता से उतनी हानि नहीं हुई जितनी सज्जनों की निष्क्रियता से हुई है.

सौ से अधिक विद्वानों ने इस आयोजन में जो कहा वह सचमुच एक अद्भुत वैचारिक यज्ञ ही था. प्रज्ञा प्रवाह व मध्य प्रदेश सरकार सहित इस आयोजन को सफल बनाने वाले समस्त, कर्मशीलों,  अतिथियों को इस भव्य व दिव्य आयोजन हेतु ह्रदय से आभार.

 

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