‘लोकमंथन’ से निकली युक्ति- सच्चे स्वराज के लिए बदलें शिक्षा-पद्धति

0
149

lokmanthan
मनोज ज्वाला
‘हिन्द-स्वराज’ में महात्मा गांधी ने अपने सपनों के स्वराज को परिभाषित करते हुए लिखा है- “ सारे अंग्रेज भारत छोड वापस ब्रिटेन चले जाएं और उनकी संस्कृति यहां कायम रहे , तो मैं कतई नहीं मानुंगा कि स्वराज मिला ; किन्तु एक भी अंग्रेज वापस न जाए , बल्कि दो-चार लाख और भी आ कर भारतीय संस्कृति को आत्मसात कर के यहीं बस जाएं , तो मैं मान लुंगा कि हमें स्वराज की प्राप्ति हो गई ” । उन्होंने लिखा है- “ स्वराज की हमारी लडाई सिर्फ राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक भी है । यह दो सभ्यताओं का संघर्ष है- युरोप की अमानवीय यांत्रिक सभ्यता और भारत की मानवतावादी आध्यात्मिक सभ्यता के परस्पर विरोधी स्वभाव का संघर्ष ”। स्वराज की अपनी इसी अवधारणा के अनुसार महात्मा जी ने भारतीय स्वतंत्रता-आन्दोलन की नीति व नीयत का निर्धारण किया था , जिसके क्रियान्वयन के बावत वे अछुतोद्धार व गो-रक्षा से लेकर स्वदेशी के प्रसार तक तथा राष्ट्र-भाषा हिन्दी के प्रचार से ले कर शिक्षा स्वास्थ्य कृषि उद्योग वाणिज्य तक समाज की सभी जरुरतों को भारतीय दृष्टि से परिभाषित-स्थापित करते हुए समाज-रचना एवं शासनिक संरचना का समग्र विकल्प प्रस्तुत किया था । उनका स्वराज साध्य नहीं था , बल्कि उनके वास्तविक उद्देश्य- रामराज्य का साधन था- स्वराज । यही कारण था कि स्वतंत्रता-आन्दोलन की विविध वैचारिक भिन्नतापूर्ण समानान्तर धाराओं के बीच भी सर्वाधिक जनसमर्थन और सामाजिक स्वीकार्यता महात्मा गांधी को ही मिली । किन्तु गांधी के मार्ग पर चल कर जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत की प्रतिनिधि-संस्था बन सकी , वह सत्ता के करीब पहुंचते ही गांधी की उपेक्षा करने लगी और सत्ता हासिल कर लेने के बाद तो गांधी को पूरी तरह से नकार ही दी । क्योंकि १५ अगस्त १९४७ को कांग्रेस के हाथ में जो सत्ता आई , सो गांधी के हिन्द-स्वराज से नहीं ; बल्कि युरोपीय उपनिवेशवाद के नए संस्करण से अनुप्राणित थी । तब से लेकर अब तक भारत को उसी युरोपीय उपनिवेशोन्मुख मार्ग पर घसिटा जाता रहा , जिस पर इस तथाकथित आजादी से पहले इस देश को अंग्रेज घसिटते रहे थे । न हमारी शिक्षा-पद्धति बदली , न हमारे शासन की रीति-नीति , न कायदे कानून बदले न सोचने-विचारने के हमारे दृष्टिकोण । मानसिक और बौद्धिक रुप से हम युरोपीय उपनिवेशवाद का गुलाम ही बने रहे । भारत की हर चीज ‘त्याज्य और युरोप-अमेरिका की हर चीज ग्राह्य’ इस मानसिकता से हम जकडे रहे और अपने देश को युरोप-अमेरिका बनाने तथा अंग्रेजी तमीज व तहजीब अपनाने-सिखाने में ही लगे रहे । नतीजा सामने है । हमारा मौलिक विकास तो हो ही नहीं सका , जबकि हम युरोप-अमेरिका का पीछलग्गू ही बने रहे ।
भारत को इस औपनिवेशिक जकडन से मुक्ति दिलाने और भारत के लोगों को भारतीय स्वत्व और भारतीय अस्मिता का बोध कराने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आनुषांगिक संस्था- प्रज्ञा प्रवाह और मध्य प्रदेश सरकार के संस्कृति मंत्रालय की संयुक्त पहल पर पिछले दिनों भोपाल में आयोजित तीन दिवसीय लोकमन्थन कार्यक्रम से यही सत्य और तथ्य उभर कर सामने आया कि भारत की आजादी तब तक सार्थक नहीं हो सकती , जब तक यह पश्चिम की औपनिवेशिक जकडन से मुक्त न हो जाए ।
समाज-रचना और राष्ट्र-जीवन के विविध क्षेत्रों में भारतीय रीति-नीति-दृष्टि से चिन्तन-मनन लेखन-सृजन करने वाले मुर्द्धन्य मनीषियों का अद्भूत समागम था- लोकमन्थन ! मध्यप्रदेश-विधानसभा के नैमिषारण्य प्रशाल में देश-विदेश से जुटे ऐसे लोगों का यह जमावडा ठीक वैसा ही था , जैसा प्राचीन भारतीय शास्त्रों में नैमिषारण्य नामक तपोभूमि पर ऋषियों के सामूहिक बौद्धिक-आध्यात्मिक सत्संग-संवाद-विमर्श का वर्णन मिलता है । समाज-राष्ट्र-धर्म के विविध विषयों-मुद्दों पर जिस तरह से ऋषि-मुनि विद्वान-विदुषि वाद-विवाद शास्त्रार्थ-बहस कर सूत्र-समीकरण गढते थे और फिर सारा समाज उसका अनुकरण करता था ; ठीक उसी तरह का बौद्धिक विमर्श था वह- लोकमन्थन , जिसमें मध्यप्रदेश के विद्वान राज्यपाल ओम प्रकाश कोहली , जुना अखाडा के संत शिरोमणि अवधेशानन्द गिरि , राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चिन्तक मनीषी सुरेश सोनी , राष्ट्रवादी चिन्तक नेता व शिक्षाविद- मुरली मनोहर जोशी , भारत नीति प्रतिष्ठान के निदेशक राकेश सिन्हा , पश्चिम (अमेरिका) में रहते हुए पश्चिम के औपनिवेशिक षड्यंत्रों को चुनौती देते रहने वाले प्रख्यात लेखक राजीव मलहोत्रा , पाकिस्तान के विरुद्ध भारतीय राष्ट्रीयता की वकालत करने वाले पाकिस्तानी लेखक तारेक फतह , ख्यात पत्रकार-सम्पादक रामबहादुर राय , कमल किशोर गोयनका , रमेश चन्द्र शाह , प्रो० अशोक मोदक , भारतीय शिक्षण मण्डल के मुकुल कानिटकर , माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति ब्रजकिशोर कुठियाला , पत्रकार-सम्पादक सच्चिदाननद जोशी , नीति आयोग के सदस्य- विवेक देवराय , भारतीय पुस्तक न्यास के अध्यक्ष- बलदेव भाई शर्मा , श्यामा प्रसाद मुखर्जी शोध संस्थान के निदेशक- अनिर्वान गांगुली , बी०बी०सी० से सम्बद्ध पत्रकार तुफैल अहमद , अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति- मोहनलाल छीपा , दलित चैम्बर आफ कामर्स के मिलिन्द काम्बले , दलित चिन्तक रमेश पतंगे , संजय पासवान , चिन्तक-लेखक शंकर शरण , प्रो राकेश कुमार मिश्रा , देवन्द्र दीपक , प्रसिद्ध कलाकार डा० गणेश सत्वाधानी , श्रीमति सोनल मान सिंह , प्रो० कपिल तिवारी , फिल्मकार चन्द्रप्रकाश द्विवेदी , अनुपम खेर , विवेक अग्निहोत्री , रिचर्ड हेय , इतिहासकार- सतीश चन्द्र मित्तल और तिब्बतियन शिक्षाविद सामधोंग रिनपोछे , जैसी मुर्द्धन्य विभुतियों के साथ देश भर से आये लगभग आठ सौ प्रतिभागियों ने बौद्धिक विमर्श के विभिन्न सत्रों में विचार-मन्थन कर यह निष्कर्ष निकाला कि भारत का विकास भारतीय तरीके से किये जाने में ही भारत का भला है । समाज-जीवन और राष्ट्र-जीवन के हर क्षेत्र में भारतीयता अर्थात भारत की मौलिकता या यों कहिए , भारत की ऋषि-प्रणीत चिन्तना-विचारणा को स्थापित किये बिना न तो भारत की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रह सकती है , न एकता व अखण्डता । ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणि होने के लिए भी आवश्यक है भारतीय वाङमय को खंगालना और इसके सार-तत्वों पर शोध-अनुसंधान को आगे बढाना । यह सब तभी सम्भव है , जब भारतीय संस्कृति के अनुकूल हो शासन-सता की संरचना । गांधी के सपनों का सच्चा स्वराज हासिल करने के लिए भारत के औपनिवेशोन्मुखी शासन को भारतीय संस्कृति की ओर उन्मुख होना आवश्यक है । यह न केवल भारत की प्रगति-उन्नति के लिए , बल्कि विश्व-शांति के लिए भी आवश्यक है ; क्योंकि पश्चिम का जीवन-दर्शन और औपनिवेशिक चिन्तन विश्व को बाजार मानता है , जबकि भारतीय जीवन-दर्शन में सारा विश्व परिवार है , परिवार । किन्तु उल्टी दिशा में उन्मुख अपने देश की चिन्तना-विचारणा को उलट कर सीधे सही मार्ग पर कायम करने या यों कहिए कि औपनिवेशिक जकडन से देश को उबारने के लिए सबसे कारगर उपाय वही है , जिसे बिना किसी प्रचार के अहमदाबाद के साबरमति में अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति के विरुद्ध प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति का एक गुरुकुल चलाते हुए अंजाम दे रहे हैं उत्तमभाई जवामल भाई शाह । हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला नामक एक गुरुकुल के माध्यम से भारत की वर्तमान आधुनिक शिक्षा-पद्धति को चुनौती दे रहे उत्तम भाई प्रायः जो कहा करते हैं वही बात इस लोकमन्थन में भी उभर कर सामने आई कि भारत में सच्चा स्वराज लाने के लिए सबसे जरुरी है- मैकालेवादी अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति को उखाड कर भारतीय भाषाओं के माध्यम से भारतीय शिक्षण पद्धति की पुनर्स्थापना । क्योंकि मैकाले शिक्षण-पद्धति और अंग्रेजी माध्यम के शिक्षण संस्थानों से ही देश में औपनिवेशिक मानस का निर्माण हो रहा है , और भारतीय ज्ञान-विज्ञान ही नहीं , बल्कि हमारे सामाजिक रीति-रिवाज , नीति-सिद्धांत , आचार-विचार , सोच-संस्कार , रहन-सहन , तिज-त्योहार , कृषि-वाणिज्य भी पश्चिम के नकल की भेंडचाल के शिकार हो रहे हैं ।
मध्यप्रदेश विधानसभा के परिसर में आयोजित उक्त लोकमन्थन कार्यक्रम में वहां के शासन की सीधी भागीदारी और उसके प्रति मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की खास दिलचस्पी से ऐसा समझा जा रहा है कि केन्द्र की भाजपा सरकार भारत को पश्चिमी औपनिवेशिक जकडन से मुक्त करने तथा गांधी के सपनों का सच्चा स्वराज लाने की दिशा में जरूर कोई ठोस कदम उठायेगी । क्योंकि वह ‘लोकमन्थन’ अघोषित रुप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक अधिष्ठान से अनुप्राणित और केन्द्र-सरकार की भावी नीतियों के पूर्वाभास के रुप में प्रायोजित था । बावजूद इसके इसे एक अच्छी पहल ही कहा जाएगा , क्योंकि अपने देश को देशज सोच की जरूरत तो है ही ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here