16वीं लोकसभा- जो यह होगा तो क्या होगा, जो वह होगा तो…

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-निर्मल रानी –
INDIA-ELECTION

16वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम आने में मात्र चंद दिनों का समय शेष रह गया है। यदि टीवी चैनल्स द्वारा बनाई गई मोदी लहर तथा इसी मीडिया द्वारा बार-बार जारी की जा रही सर्वेक्षण रिपोर्ट्स की मानें फिर तो नरेंद्र मोदी अपनी कथित लहर पर सवार होकर संभवत: तीन सौ सीटों के आसपास का शानदार बहुमत जुटाते हुए बेरोक-टोक देश के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं। परंतु मात्र मीडिया रिपोर्ट्स या चुनावी सर्वेक्षण पर विश्वास कर ऐसी कल्पना करना भी क़तई मुनासिब नहीं है। क्योंकि गत् वर्षों में हुए चुनावों के सर्वेक्षणों तथा उनके कय़ासों को जनता कई बार पूरी तरह से नकार चुकी है। इसलिए यह ज़रूरी नहीं कि जो कुछ दिखाई दे रहा हो वही पूरी तरह से सच हो। यदि हम मात्र पिछले दो चुनावों के ही पूर्वानुमानों को देखें तो हमें दिखाई देगा कि 2004 में एनडीए सरकार के नेतृत्व में देशवासियों को बड़े ही नियोजित तरीक़े से फ़ीलगुड का एहसास कराने की जबरन कोशिश की गई। परंतु फीलगुड का गुब्बारा फूट गया और कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार सत्ता में आ गई। इसी प्रकार 2009 में कमोबेश कुछ आज के ही राजनैतिक माहौल की ही तरह लालकृष्ण आडवाणी को प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री घोषित कर दिया गया था। नतीजा टांय-टायं फिस्स निकला और यूपीए सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के लिए जनता द्वारा निर्वाचित की गई। उपरोक्त तजुर्बों के अलावा पिछले दिनों दिल्ली सरकार के गठन के संबंध में हुई राजनैतिक घटना भी चुनाव विशलेषकों के लिए एक बड़ा सबक है। जबकि सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद भाजपा मात्र तीन विधायकों की कमी होने के चलते दिल्ली सरकार की का स्वाद न चख सकी।

यही नहीं बल्कि इसके अलावा भी देश के राजनैतिक क्षितिज पर जो कुछ घटित होता हुआ दिखाई दे रहा है। वह भी इस नतीजे पर पहुंचने के लिए काफ़ी है कि मीडिया द्वारा रचा जा रहा एकतरफ़ा कथित चुनाव सर्वेक्षण रूपी षड्यंत्र पूरा नहीं होने जा रहा है। मिसाल के तौर पर गुजरात मॉडल के जिस कथित विकास रथ पर बैठकर नरेंद्र मोदी ने दिल्ली का सफ़र तय करने की योजना बनाई थी तथा भाजपा ने साफ़तौर पर यह घोषणा की थी कि वह राममंदिर, धारा 370 व समान नागरिक आचार संहिता जैसे विवादित मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल नहीं करेगी। परंतु ठीक इसके विपरीत चुनाव के अंतिम दौर में स्वयं नरेंद्र मोदी फैज़ाबाद की एक सभा में विश्व हिंदू परिषद द्वारा प्रस्तावित राम मंदिर के मॉडल के इश्तिहारी साईन बोर्ड के समक्ष भाषण देते दिखाई दिए। चुनाव आयोग ने इस विषय पर संज्ञान भी लिया है। सवाल यह है कि यदि गुजरात का विकास मॉडल ही मोदी को प्रधानमंत्री बनाने व भाजपा को सत्ता में लाने के लिए काफी था फिर आख़िर भगवान राम की याद इन्हें आखरी दो चरणों के चुनाव शेष रहने के दौरान ही क्यों आई? यही नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी ने पिछड़ी जातियों के मतदाताओं को कांग्रेस के विरुद्ध वरगलाने के लिए एक और ओछा हथकंडा इन्हीं दो चरणों के चुनाव से पूर्व इस्तेमाल किया? प्रियंका गांधी ने अमेठी में जब यह कहा कि मोदी मेरे शहीद पिता का अपमान कर रहे हैं तथा वह नीच राजनीति कर रहे हैं। मोदी जी ने बड़ी ही चतुराई के साथ नीच राजनीति के शब्द को नीची जाति की राजनीति की ओर घुमा दिया। कोई निहायत शातिर व्यक्ति ही ऐसी चाल चल सकता है। प्रियंका ने तो जाति शब्द का प्रयोग ही नहीं किया। परंतु प्रधानमंत्री बनने को व्याकुल नरेंद्र मोदी ने प्रियंका के नीची राजनीति के कथन को भी अपने लिए शुभअवसर मानते हुए झूठ की बैसाखी का सहारा लेकर इसे कांग्रेस के विरुद्ध अस्त्र के रूप में प्रयोग कर डाला। राजनैतिक क्षेत्र में इसे भी नरेंद्र मोदी की छटपटाहट का एक प्रमाण माना जा रहा है।

उधर मोदी के प्रधानमंत्री बनाए जाने का ठेका लिए बैठे बाबा रामदेव भी कांग्रेस पार्टी विशेषकर राहुल गांधी को नीचा दिखाने के लिए हद दर्जे तक गिरते दिखाई दे रहे हैं। गत् दो-तीन वर्षों में राहुल गांधी ने ज़मीनी स्तर पर जनता के दु:ख-दर्द जानने की गरज़ से तथा मतदाताओं व राजनीति के मिज़ाज को समझने की खातिर बुंदेलखंड जैसे सूखा पीड़ित क्षेत्र तथा उत्तर प्रदेश के कई अतिपिछड़े व दलित समुदाय से संबद्ध परिवारों के लोगों से बिना किसी पूर्व सूचना के मिलने की योजना पर कार्य किया। यहां तक कि वे अपने मित्र ब्रिटिश विदेश मंत्री तक को अमेठी में गरीब परिवारों व झुग्गी झोंपडिय़ों के बीच ले गए तथा उन्हें भारत की शक्ति के स्त्रोत से परिचित कराने की कोशिश की। बाबा रामदेव जैसे स्वयंभू योगगुरु ने राहुल गांधी के इन प्रयासों को इन शब्दों में बयान किया कि राहुल गांधी दलितों के घर हनीमून मनाने जाते हैं। उन्होंने राहुल गांधी को सार्वजनिक रूप से यह सुझाव भी दिया कि वे स्वयं किसी दलित परिवार में शादी क्यों नहीं कर लेते। ज़ाहिर है इस प्रकार की शब्दावली, भाषण या विचार बाबा रामदेव द्वारा भले ही राहुल गांधी को अथवा कांग्रेस पार्टी को नीचा दिखाने के लिए व्यक्त क्यों न किए गए हों। परंतु दरअसल यह सब उस छटपटाहट व हताशा के ही परिणाम है जिससे भाजपा पूरी तरह आशंकित व भयभीत नज़र आ रही है। रामदेव के उपरोक्त कथन उन्हें इतने मंहगे पड़े कि अपना विवादित बयान देने के बाद वे डर के मारे न केवल इन दिनों अपना मुंह छुपाने के लिए भूमिगत हो चुके हैं बल्कि होशियारपुर के एक बहुजन समाज पार्टी के लोकसभा प्रत्याशी भगवान सिंह चौहान ने उनकी इस दलित विरोधी टिप्पणी के चलते यह घोषणा भी कर दी है कि जो व्यक्ति बाबा रामदेव का सिर मेरे पास लाएगा उसे एक करोड़ रुपये का इनाम दूंगा। देश में कई जगहों से रामदेव के पुतले फूंकने व उनके चित्रों पर जूते-चप्पल चलाने के भी समाचार प्राप्त हुए हैं। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भी रामदेव की गिर$फ्तारी की मांग पर अड़ी हैं।

बहरहाल राजनैतिक गर्मागर्मी, मीडिया द्वारा लगाए जा रहे पूर्वानुमान, चुनावी सर्वेक्षण के मध्य इतना तो तय है कि गत् चार वर्षों से यूपीए 2 की सरकार में बड़े पैमाने पर उजागर हुए भ्रष्टाचार व घोटालों के परिणामस्वरूप तथा साथ-साथ इसी शासनकाल में बेतहाशा बढ़ी मंहगाई के कारण यूपीए सरकार का बिदा होना लगभग तय हो चुका था। परंतु राजनीति के कुशल रणनीतिकारों द्वारा यूपीए 2 की नाकामी पर गुजरात के विकास मॉडल तथा नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का झूठा लेप चढ़ाने की शानदार कोशिश की गई। परंतु इसी दौरान प्रियंका गांधी तथा अरविंद केजरीवाल द्वारा व्यक्त किए जा रहे इन समान विचारों की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि 16वीं लोकसभा में किसी भी दल को बहुमत मिलने की संभावना नहीं हैं। खासतौर पर उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे देश के दो बड़े राज्यों से भाजपा ने जितनी सीटों पर विजय की आस लगाई थी वह सपना भी पूरा होता नहीं दिखाई दे रहा। नरेंद्र मोदी द्वारा यह दिल मांगे मोर की गुहार करना, अपनी स्टेज पर राममंदिर का प्रस्तावित मॉडल दिखाना तथा कथित नीची जाति के नाम से घिनौना राजनैतिक हथकंडा अपनाना, भाजपा विशेषकर नरेंद्र मोदी की हताशा के स्पष्ट संकेत हैं। ऐसे में सवाल यह है कि यदि भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो केंद्र सरकार का स्वरूप क्या होगा? और यदि एनडीए भी स्पष्ट बहुमत नहीं ला सकी तो सरकार का गठन कैसे होगा? क्या नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री स्वीकार करते हुए एनडीए से बाहर के अन्य राजनैतिक दल भाजपा को सरकार बनाने हेतु समर्थन देंगे? या नरेंद्र मोदी की जगह पर किसी अन्य सर्वस्वीकार्य भाजपाई नेता को संसदीय दल का नेता चुना जाएगा? इससे भी बड़ा सवाल यह भी है कि यदि भारतीय जनता पार्टी को समर्थन देने हेतु यूपीए व उसके सहयोगी दलों में सहमति न बनी और तीसरे मोर्चे के दल भी इस बात के लिए सहमत न हुए तो ऐसी स्थिति में भाजपा पिछली दिल्ली सरकार की ही तरह सबसे अधिक सीटों पर विजयी होने के बावजूद क्या एक मज़बूत विपक्ष के रूप में लोकसभा में बैठने पर संतोष करेगी? और यदि ऐसा हुआ तो उस समय नरेंद्र मोदी की भूमिका क्या होगी? संसद में एक विपक्ष के नेता की अथवा बड़ोदरा अथवा वाराणसी या फिर दोनों जगहों से जीतने के बावजूद दोनों ही सीटों से त्यागपत्र देकर गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर बने रहने की? यह सवाल इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि नरेंद्र मोदी भले ही कितने चतुर, चालाक तथा अपने विरोधियों को मात देने में महारत क्यों न रखते हों परंतु लोकसभा में विपक्ष के नेता की हैसियत से सुषमा स्वराज की योग्यता, वाकपटुता तथा राजनैतिक ज्ञान के मुकाबले में मोदी कहीं भी नहीं ठहरते। ऐसे में अचानक प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पूरे देश की खाक़ छानने वाले मोदी क्या वापस गांधी नगर जा बैठेंगे तथा गत् एक वर्ष से अपने गृहराज्य से मुंह मोड़े हुए मोदी अपने पिछड़े हुए कामों को पूरा करने में जुट जाएंगे? बहरहाल, चंद दिनों के बाद सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा कि जो यह होगा तो क्या होगा, जो वह होगा तो क्या होगा?

2 COMMENTS

  1. आप तो जैसे काँग्रेस का
    प्रचार कर रही हो….
    बहुत हि पक्षपाती और
    असंतुलित लेख.

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