भगवान श्री राम त्याग के प्रेरक थे सत्ता के नहीं

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ramनिर्मल रानी
हिंदू धर्मशास्त्रों में वैसे तो 33 करोड़ देवी-देवताओं का उल्लेख किया गया है। परंतु इनमें कुछ देवता अथवा भगवान के अवतार ऐसे हैं जो सर्वाधिक आराध्य हैं। इन्हीं में से सर्वाेच्च स्थान है दशरथ पुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचंद्र जी का। श्री राम को जहां त्याग व तपस्या के लिए याद किया जाता है वहीं उनके न्यायपूर्ण शासनकाल को रामराज्य की संज्ञा भी दी जाती है। आज के दौर में जबकि मनुष्य का जीवन सत्ताशक्ति प्राप्त करने हेतु साम-दाम,दंड-भेद जैसे किसी भी ‘कौशल’ का सहारा लेने में नहीं हिचकिचाता यहां तक कि सत्ता प्राप्ति के लिए भगवान राम के नाम का भी बेरोक-टोक इस्तेमाल करता है ऐसे में इस विषय पर चिंतन करना बेहद ज़रूरी है कि वास्तव में भगवान राम के नाम का सहारा लेकर अपने राजनैतिक लक्ष्यों को साधना कहां तक उचित है? खासतौर पर उस श्री राम का नाम अपने राजनैतिक हितों को साधने के लिए लेना जिस भगवान राम को पुरुषों में सबसे उत्तम एवं मर्यादित होने का अलंकरण अर्थात् मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम कहकर आज तक संबोधित किया जाता है।

श्री रामचंद्र जी से जुड़ी तमाम साधारण एवं प्रचलित कथाओं को वैसे तो पूरा विश्व भलीभांति जानता है। उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं को हम प्रमुख त्यौहारों के रूप में भी मनाते हैं। परंतु संभवतः हम सब शायद इस प्रकार के आयोजन पुण्य कमाने की गरज़ से अथवा अपने आराध्य भगवान श्रीराम को प्रसन्न करने के मकसद से ही करते हैं। जबकि वास्तव में किसी भी धर्मावलंबी को अपने आराध्यों व आदर्श महापुरुषों की अराधना करने के साथ-साथ उस महापुरुष अथवा अवतार पुरुष से प्रेरणा भी लेनी चाहिए तथा उनके द्वारा बताए गए आदर्शों का अनुसरण करते हुए उस पावन मार्ग पर चलने की कोशिश भी करनी चाहिए। ठीक इसके विपरीत धरातलीय स्थिति तो वास्तव में भगवान राम के आदर्शों पर चलने के बजाए ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ जैसी कहावत को चरितार्थ करने वाली दिखाई दे रही है। स्वयं को भगवान राम का भक्त समझने वाले लोग भगवान राम के त्याग, तपस्या व राम राज्य के आदर्शों का अनुसरण करने के बजाए ‘सौगंध राम की खाते हैं हम मंदिर वहीं बनाएंगे’ जैसे नारे गढ़कर राम के नाम को भावनात्मक रूप से अपने साथ जोडऩे तथा उसके सहारे सत्ता तक पहुंचने का ज़ोरदार प्रयास कर रहे हैं। यहां तक कि इन प्रयासों के परिणामस्वरूप हमारे देश में व्यापक रूप से धार्मिक उन्माद फैलाने की कोशिश की जा रही है। देश में कई बार विभिन्न स्थानों पर दंगे-फ़साद हो चुके हैं तथा हज़ारों साधारण नागरिकों को अपनी जानें गंवानी पड़ी हैें। परंतु इन तथाकथित स्वयंभू रामभक्तों को न तो मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के त्याग से कोई वास्ता दिखाई देता है न ही इन्हें रामराज्य का आदर्शों का अनुसरण करने की कोई आवश्यकता महसूस हो रही है। ऐसे तत्व केवल और केवल भगवान राम के नाम का इस्तेमाल अपने राजनैतिक लाभ की खातिर जनमानस की भावनाओं को भड़काने मात्र के लिए करते दिखाई दे रहे हैं।
अपने पिता राजा दशरथ तथा सौतेली मां कैकेई की इच्छा के अनुसार अयोध्या जैसे अपने समय के विशाल साम्राज्य को त्यागकर 14 वर्ष के लिए वनवास में चले जाना तथा अपने सौतेले भाई भरत के लिए अयोध्या का सिंहासन छोड़ देना भगवान राम के जीवन की एक सबसे प्रमुख,प्रसिद्ध व प्रेरणादायक घटना है। इसी घटना के बाद राम को अपने जीवन के तमाम महत्वपूर्ण उतार-चढ़ाव जिसमें सीता हरण तथा रावण वध जैसी अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाएं भी शामिल हैं, का सामना करना पड़ा। भगवान राम द्वारा अयोध्या के राजसिंहासन के त्याग के पीछे यह कारण भी था कि भगवान राम सत्ता के लिए संघर्ष अथवा युद्ध की स्थिति नहीं पैदा होने देना चाहते थे। गोया उन्होंने अयोध्या के शाब्दिक अर्थ अर्थात् वह स्थान जहां कभी युद्ध न हो ेकी लाज रखते हुए अपने राज्य व सत्ता का त्याग कर दिया। अब ज़रा इस बात को आज के राजनैतिक घटनाक्रमों से जोड़कर देखिए तो हमें यही नज़र आएगा कि भगवान राम के नाम पर ही न केवल अयोध्या बल्कि पूरे भारत में समय-समय पर खासतौर पर चुनाव निकट आने पर राम का नाम लेकर युद्धोन्माद जैसे वातावरण बनाने की कोशिश की जाती है। तरह-तरह के भड़काऊ नारे गढ़े जाते हैं और आम लोगों को यह जताने की कोशिश की जाती है कि भगवान राम के वास्तविक भक्त, हितैषी व पैरोकार केवल वही या उनका संगठन है दूसरा कोई नहीं। भगवान राम की महानता को केवल हिंदू धर्म की स्वीकार नहीं करता बल्कि ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ जैसी अमर पंक्तियां लिखने वाले प्रसिद्ध शायर अल्लामा इकबाल ने भी भगवान राम को इमाम-ए-हिंद कहकर अपने कलामों में कई जगह सम्मानपूर्ण स्थान दिया है। अयोध्या व फैज़ाबाद सहित देश के कई भागों में दूसरे धर्मों के तमाम लोग ऐसे मिलेंगे जो भगवान राम के उपासक हैं तथा उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में स्वीकार करते हैं। गुरु ग्रंथ साहब में भी राम नाम की कई बार पुनरावृति हुई है।
आज हमारा समाज जातिगत भेदभाव का भी पूरी तरह से शिकार है। और यही समाज जब रामायण यानी राम के जीवन वृतांत का बखान करता है तो शबरी द्वारा भगवान राम को जूठे बेर खिलाए जाने  की घटना का बड़े ही गौरवपूर्ण तरीके से बखान करता है। परंतु यही समाज इस घटना के पीछे छिपे मर्म,रहस्य तथा इस घटना के द्वारा दिए जाने वाले समानता के विश्वव्यापी संदेश को नहीं पढ़ पाता या फिर पढऩा नहीं चाहता। इस घटना में वनवासी शबरी दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाली महिला के रूप में बताई गई है। उसके द्वारा भगवान राम को जूठे बेर खिलाने का मकसद यह नहीं था कि वह उन्हें जूठे बेर खिला कर उन्हें अपमानित करना चाहती थी। बल्कि वह यह चाहती थी कि भगवान राम कहीं खट्टे बेर न खा लें। इसलिए पहले उन्हें चख कर यह सुनिश्चित करना चाहती थी कि यह बेर मीठे हैं अथवा नहीं। इसे शबरी का भगवान राम के प्रति अगाध प्रेम ही कहा जाएगा। दूसरी ओर भगवान राम द्वारा शबरी द्वारा दिए जाने वाले जूठे बेर खाकर उसके प्रेम का सम्मान करना तथा ऊंच-नीच के भेदभाव को समाप्त करने का संदेश देना है। अब यदि इसी घटना को आज के परिपेक्ष्य में देखने की कोशिश की जाए तो दुर्भाग्यवश यह दिखाई देगा कि किसी तथाकथित स्वर्ण जाति के सदस्य द्वारा किसी दलित का जूठा खाना तो दूर उसे अपने बराबर बिठाने से भी परहेज़ किया जाता है। क्या यही है भगवान राम के आदर्शों का अनुसरण करने का तरीका?
भगवान राम के जीवन से जुड़ी वह घटना भी अत्यंत प्रसिद्ध है जबकि उन्होंने अयोध्या वापसी के बाद एक साधारण अयोध्यावासी द्वारा सीता माता के चरित्र को लेकर संदेह जताने के बाद उन्हें त्यागने का निर्णय लिया था। साधारण बुद्धि के लोग भले ही इसे एक पति द्वारा अपनी पत्नी को कष्ट देने अथवा उसपर अविश्वास करने जैसी घटना के रूप में क्यों न देखते हों परंतु वास्तव में रामराज्य का आदर्श स्थापित करने वाली भगवान राम के जीवन की इस घटना से भी हमें यही संदेश मिलता है कि उनके राज्य का एक भी व्यक्ति यदि उनपर, उनके या उनके परिवार के किसी सदस्य के चरित्र या उनकी कार्य प्रणाली पर अथवा उनके विश्वास पर संदेह करता है तो आखिर क्यों? इसी सोच ने सीता माता को त्याग देने के लिए मजबूर किया। अब इस घटना की आज के ढोंगी एवं स्वयंभू रामभक्तों से तुलना करके देखिए तो यह दिखाई देगा कि इन्हें भगवान राम के नाम पर ही सत्ता चाहिए। यह तथाकथित रामभक्त अपने व अपने सहयोगियों व अपने दलों के लोगों के कुकर्मों तथा उनके अपराधों को छुपाने व उनपर पर्दा डालने के लिए क्या-क्या प्रयास नहीं करते। सत्तात्याग या पारिवारिक सदस्यों के साथ न्याय से पेश आना तो दूर आज के राजनैतिक स्वयंभू रामभक्त तो भगवान राम के नाम पर केवल सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं तथा सत्ता में आने के बाद भ्रष्टाचार तथा सत्ता का भरपूर दुरुपयोग भी करना चाहते हैं। इतना ही नहीं बल्कि आज के यही स्वयंभू रामभक्त भगवान राम के नाम पर प्राप्त की गई सत्ता का लाभ अपने परिवार के सदस्यों को ही पहुंचाना चाहते हैं। यह लोग भगवान राम के वनवास काल की उन घटनाओं को भूल जाते हैं जिनमें कि राम ने चौदह वर्ष के अपने त्यागपूर्ण जीवन में सत्ता में अपनी वापसी के लिए संघर्ष करने के बजाए उन विषम परिस्थितियों में रहकर सुग्रीव व विभीषण जैसे अपने सहयोगियों को सत्ता सिंहासन दिलाने का काम किया था।
यदि हम वास्तव में स्वयं को रामभक्त कहते या समझते हैं तो केवल उनका नाम लेने या उनके नाम पर समाज में उन्माद फैलाने से हम वास्तविक रामभक्त नहीं कहे जा सकते। हमें उनकी आराधना करने के साथ-साथ उनके महान आदर्शों का भी सम्मान करना चाहिए तथा अपने जीवन में उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। हमें सोचना चाहिए कि आखिर किन रास्तों पर चलने के कारण उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है तथा रामराज्य की परिकल्पना के पीछे भगवान राम के कौन से आदर्श शामिल हैं। भगवान राम के नाम का राजनीति या सत्ता के लिए दुरुपयोग किया जाना वास्तविक राम भक्तों की शैली हरगिज़ नहीं हो सकती।

3 COMMENTS

  1. निर्मला जी–
    देश, काल, परिस्थिति के अनुसार विवेक करना बुद्धिमानी का लक्षण माना जाता है।
    आलेख ऊपर ऊपर से देखा।
    समय बिगाडने जैसा लगने लगा, तो छोड दिया।

  2. विद्वान लेखिका निर्मल रानी जी का यह आलेख उनकी दोहरी मानसिकता का स्पष्ट परिचायक है । राम
    का सन्दर्भ लेकर उन्होने राम भक्तो की आड में बीजेपी को शिष्ट शब्दों में गरियाने का जो प्रयास किया है वह किस चौराहे पर खडा है यह रानी जी स्वयं समझें । रानी जी को राम के विषय में लिखने या उनके नाम का सहारा लेने से पहले बाल्मीकि रामायण को गौर से पढ्ना चाहिए । दशरथ ने क्भी राम को नहीं कहा कि वे वन जाएं बल्कि उन्होंने तो यहां तक कहा कि तुम मेरा बध करदो ताकि मै वचन भंग के पाप से मुक्त हो जाऊं लेकिन तुम वन मत जाओ । माता कौशल्या ने यहां तक कहा कि मैने जीवन भर दुख उठाया है अब तेरे राजा बनने से मेरे सुख के दिन आने वाले हैं तो तू मेरा सुख मत छीन । यही नहीं सुमित्रा के साथ दशरथ की तीन सौ पचास अन्य रानियों ने भी अपने उनसे पुत्रवत प्रेम और राम के राज में अपने सुखों का सन्दर्भ देते हुए रूकने का निवेदन किया । अयोध्या में ऐसा कौन था जिसने उन्हें अयोध्या और दशरथ की दुर्दशा की स्थिति का ध्यान रखते हुए वन न जाने की याचना
    नहीं की गई थी । पूरी अयोध्या में केवल कैकेयी और मंथरा ने उन्हें वन जाने के लिए प्रेरित किया था
    जहां तक गुरू ग्रंथ साहब में राम शब्द के प्रयोग और पुनरावर्ति का प्रश्न है । वहां उसका प्रयोग
    ईश्वर के सन्दर्भ में हुआ है । अयोध्या नरेश राम के सन्दर्भ में नहीं हुआ है । सत्तासीन या सत्ता के
    इच्छुक लोग तो इस तरह के काम करते ही हैं । आप जैसी विदुषी महिला उनका या उनके विरोधी
    दल का हथियार न बनें (जाने-अन्जाने) तो अधिक उचित होगा । महिलाएं तो वैसे भी निष्पक्ष होती
    हैं । अगर वे किसी दल विशेष से सम्बद्ध न हों । आदर सहित । डा.राज सक्सेना

  3. हिंदू धर्मशास्त्रों में 33 करोड़ देवी-देवताओं का वर्णन नहीं है.. 33 कोटी (प्रकार) के देवी-देवताओं के बारे में बताया गया है.

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