मधेश अपडेट ६

वृषेश चन्‍द्र लाल

नोट : भौगोलिक रूप से नेपाल को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया गया हैः हिमालय, पहाड़ और मधेश।  वैसे तो पूरा नेपाल ही एक दशक से अशांत है। सो, मधेश  भी उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है।  (सं.)

आप सभी जानते हैं कि काँग्रेस और एमाले के संघीयता विरोधी अडियल रवैये के कारण नेपाल में जनता द्वारा चुनी गई सर्वोच्च निकाय संविधान सभा देश को संविधान देने से असमर्थ रही। संविधान सभा का विघटन हो गया। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसला में कहा था कि २७ मई तक संविधान सभा देश को संविधान दे क्योंकि उसके बाद उसका कार्यकाल समाप्त हो जाएगा। सर्वोच्च अदालत का फैसला विवादों से घिरा रहेगा क्योंकि कानूनविद् मानते हैं कि इसे बिघायिका के मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है। फिर भी क्योंकि सर्वाच्च अदालत संविधान का अन्तिम व्याख्याकार है अतएव इस फैसला को स्वीकार कर लिया गया।

क्यों नहीं आ सका संविधान ?

इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेवार है काँग्रेस और एमाले। ये विकृत संघीयता लाना चाहते थे जहाँ संघीयता का महत्वपूर्ण तत्व ही नहीं हो। उनके लिए सबसे बडा समस्या के रुप में खडा था मधेश। वे इसे टुकडों में बाँटना चाहते थे। कैलाली कंचनपुर को पहाडी प्रदेश में, चितवन को दूसरे पहाड़ी प्रदेश में और झापा, मोरंग तथा सुनसरी को तीसरे पहाडी प्रदेश में रखना चाहते थे। अन्तिम क्षणों में संयुक्त लोकतान्त्रिक मधेशी मोर्चा के नेताओं का कहना था – मधेश में पूर्व में पूर्वी मधेश के रूप में एक प्रदेश हो जिसमें कमसेकम झापा, मोरंग तथा सुनसरी के मधेशी वसोवास का क्षेत्र मिला हो और पश्चिम में थरुहट मधेश हो जिसमें चितवन का थारु क्षेत्र और कैलाली कंचनपुर का रानाथारु का क्षेत्र हो। मगर ये उन्हें मन्जूर नहीं था।

२७ मई को ५ बार शीर्षवार्ता हुई मगर रवैया वही रहा। उनकी प्रस्ताव आखिर मोर्चा के नेता कैसे मान लेते ? और बात नहीं बनी। पहाड़ के ही आदिवासी जनजातियों से भी उनकी बात नहीं बनी। वे सीमांकन इस तरह करना चाहते थे कि हरेक पहाडी प्रदेश में खस ब्राह्मण और क्षेत्री का बाहुल्य हो। तो इसे भी कैसे स्वीकार किया जाता ? पहाड के आदिवासी जनजातियों का कहना था — ‘वर्तमान राज्य का चरित्र खस ब्राह्मण और क्षेत्रीय बाहुल्य और वर्चस्व का है, इसे बदला जाये और पहाड के जनजातियों को भी पहचान और स्वशासन तथा सहशासन का अधिकार देकर राज्य चरित्र को समावेशी बनाया जाय।’ काँग्रेस और एमाले इसे स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं थे।

संयुक्त लोकतान्त्रिक मधेशी मोर्चा और पहाड़ के आदिवासी जनजातियों के नेताओं ने कुछ और विकल्प दिये —

१. संविधान सभा के ही राज्य पुन र्संरचना समिति अथवा सहमति के आधार पर गठित राज्य पुनर्संरचना आयोग के प्रतिवेदन को मान लिया जाय।

२. संविधान जारी किया जाय, मगर कम से कम रुपान्तरित संसद में राज्य पुनर्संरचना समिति अथवा राज्य पुनर्संरचना आयोग के प्रतिवेदन के आधार पर ही संघीय संरचना का निर्णय किया जाएगा तथा इस मामले में संसद में ह्वीप नहीं लगेगी इसका नया संविधान में गारन्टी दिया जाय।

३. राज्य पुनर्संरचना समिति अथवा राज्य पुनर्संरचना आयोग के प्रतिवेदन पर मतदान हो जो भी निर्णय होगा उसे मान लिया जाय।

४. संविधान सभा का बैठक प्रारम्‍भ किया जाय। बैठक चालू रहे और सहमति का प्रयास भी होता रहे। कम से कम सभा का आयु अधिवेशन चालू रहने तक कायम रहेगी और इसी बीच सहमति का काम पूरा किया जाय। मगर एमाले के नेता रह चुके सभामुख इसके लिए भी तैयार नहीं हुए।

सभा विघटन के बाद सरकार ने चुनाव कराने का निर्णय लिया।

संविधानसभा को बचाने का पूरा प्रयास किया गया। काँग्रेस एमाले इसे विघटित देखना चाहते थे ताकि संघीयता के दबाब से छुटकारा मिल जाय। वे सिर्फ अपने नेतृत्व में सरकार बने इसकी ही वकालत करते रहे। दलों के बीच के ५ सूत्रीय सहमति अनुसार संविधान जारी होते ही सरकार बदलने की बात थी।

अन्ततः सरकार सर्वोच्च अदालत द्वारा निर्दिष्ट विकल्प के तहत ताजा निर्वाचन मे जाने का निर्णय लिया जिसका अब काँग्रेस एमाले बिरोध कर रहे हैं। वे निर्वाचन में भी नहीं जाना चाहते थे। वे चाहते थे, सभा विघटित हो जाये और उनके नेतृत्व में सरकार बने और मनमानी ढंग से तब तक चलती रहे जब तक लोग संघीयता का मांग न छोड दे। बाबुराम सरकार ने निर्वाचन आयोग से विमर्श के बाद नवम्वर २१ को निर्वाचन तिथि निश्चित किया है। इसके अलावा और रास्ता भी नहीं था।

संवैधानिक स्थिति

अभी संवैधानिक शून्यता की स्थिति है। अन्तरिम संविधान में इस स्थिति की कल्पना नहीं की गई है और ऐसा हो तो क्या हो कहीं कुछ व्यवस्था नहीं है। मगर चुनाव तो होनी ही चाहिए ताकि विधायिका फिर से स्थापित हो सके। शायद सर्वोच्च अदालत इस हेतु ही निर्वाचन को एक विकल्प के रुप में प्रस्तुत किया था। अतएव निर्वाचन का निर्णय ठीक है। कोई निर्वाचन से डरते हों तो आखिर इसका इलाज कौन करे ? जनता में जायें और जो भी हो उसे स्वीकार करें। लोकतन्त्रवादी तो यही करेंगे।

काँग्रेस एमाले सरकार चाहते हैं और उनका कहना है कि संविधानसभा के बाद चूकि बाबुराम सभा के सदस्य नहीं रहे अतः वे अब प्रधानमन्त्री नहीं रह सकते। वे राष्ट«पति को उकसाना चाहते हैं कि राष्ट«पति दूसरा सहमति का सरकार गठन करें। इस पर विचार करने से पहले अन्तरिम संविधान में रहे संवैधानिक व्यवस्था पर गौर करना होगा —

१. सहमति के आधार पर वा ऐसा न होनेपर बहुमत के आधार पर निर्वाचित प्रधान मन्त्री के नेतृत्व में मन्त्री परिषद का गठन होगा। प्रधानमन्त्री का व्यवस्थापिका संसद अर्थात सभा का सदस्य होना जरुरी। धारा ३८ का १ व २

२. प्रधानमन्त्री व्यवस्थापिका संसद के सदस्य न रहनेपर पदमुक्त होंगे। धारा ३८ का ७ ख

३. पदमुक्त प्रधानमन्त्री नया मन्त्रीपरिषद गठन न होने तक पद पर बहाल रहेंगे। धारा ३८ का ९

समझने की बात है कि सहमति के आधार पर कोइ अन्तरिम संविधान के तहत प्रधानमन्त्री नहीं हो सकते क्योंकि अब कोई भी सभा के सदस्य नहीं हैं। ऐसे में सभा विघटन के समय जो थे वही निर्वाचन तक पद पर बने रहेंगे। निर्वाचन समय पर करा लिया जाय यही उत्तम है। विश्व भर के लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में बिधायिका के विघटन के बाद पहले निर्वाचित प्रधानमन्त्री ही चुनावी सरकार का संचालन करते हैं।

उचित नहीं होगा राष्ट्रपति का हस्तक्षेप

नेपाल के राष्ट्रपति अलंकारिक हैं। कार्यकारिणी का सम्पूर्ण अधिकार प्रधानमन्त्री को दिया गया है। राष्ट्रपति को मन्त्रीपरिषद के निर्णय के मुताबिक संसद अधिवेशन का आह्वान, समापन और उसी के द्वारा निर्णीत दस्तावेज अनुसार संसद को सम्वोधन करना है और मन्त्रीपरिषद के निर्णय के अनुसार राष्‍ट्रप्रमुख की अन्य भूमिका निर्वाह करना है। उन्हें राज्य के मामलों में अपने तरफ से कुछ अलग करने का हक नहीं। किसी के उक्साहट पर राष्‍ट्रपति का हस्तक्षेप बिल्कुल असंवैधानिक होगा। वैसे संवैधानिक शून्यता में जिसकी लाठी उसकी भैंस। मगर यह लोकतन्त्र के लिए अच्छा नहीं होगा और इससे समस्याएं ही पैदा होंगी!

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