मधु लिमये – स्वतंत्रता, लोकतंत्र और समाजवाद के योद्धा

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प्रोफेसर राजकुमार जैन (लेखक: वरिष्ठ समाजवादी नेता हैं, दिल्ली विश्वविद्यालय के रमजस कॉलेज के रिटायर्ड प्रोफ. हैं )

स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा समाजवादी चिंतक मधु लिमये का जन्म 1 मई 1922 ई॰ को पूना में हुआ। पूना के ‘फर्ग्‍युसन कॉलेज’ में पढ़ाई करते समय ही वे समाजवादी विचारों में दीक्षित होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के झंडे के नीचे कार्य करने लगे तथा शीघ्र ही सत्रह वर्ष की अल्प आयु में पार्टी की स्थानीय इकाई के मंत्री बन गये।
सन् 1939 के सिंतबर में द्वितीय महायुद्ध छिड़ गया। युद्ध विरोधी आंदोलन की अगुवाई समाजवादियों ने की थी। इसी सिलसिले में जयप्रकाश नारायण, यूसुफ मेहरअली, डॉ॰ राममनोहर लोहिया पूना आये। यहीं पर मधु जी का परिचय इन महान समाजवादियों से हुआ। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही अठारह वर्ष की आयु में ही वे स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। इन्होंने कहा, यह विश्वयुद्ध हमारा नहीं है, अंग्रेज़ों ने हमें जबर्दस्ती झोंक दिया है, हम युद्ध के लिये न एक पाई देंगे, न एक सिपाही। युद्ध विरोधी भाषण देने के कारण इन्हें एक साल की सश्रम कारावास की सजा सुना कर ‘धूलिया’ की जेल में बंद कर दिया गया।
1942 ई॰ में गाँधीजी द्वारा ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’, ‘करो या मरो’ का उद्घोष किया गया। इक्कीस वर्ष के मधुलिमये पुनः 1943 ई॰ में आज़ादी की इस जंग में ‘डिफेन्स ऑफ इंडिया’ रूल में गिरफ़्तार कर लिये गये। दो साल बाद 1945 ई॰ में युद्ध समाप्ति के बाद ही इनकी रिहाई हुई। देश आज़ाद हो गया था, परंतु गोवा अभी भी पुर्तगालियों के अधीन था। मधुलिमये ने गोवा की आज़ादी के लिये पुनः संघर्ष किया। पुर्तगाली मिलिट्री शासन ने इन्हें बारह वर्ष की सज़ा देकर कैद कर लिया।
मधुजी ने अपना लड़कपन आज़ादी पाने के लिये लगा दिया। आज़ादी के बाद उन्‍होंने अपना संपूर्ण जीवन भारत के गरीबों, मेहनतकशों, दीनदुखियों, खेतिहर मज़दूरों, दलित-पिछड़ों तथा अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने में खपा दिया।
जब भारत को आज़ादी मिली तब लिमये पच्चीस साल के थे। उनकी बुद्धि मत्ता त्याग, संघर्ष के कारण जयप्रकाश नारायण, डॉ॰ राममनोहर लोहिया इनको अपना विश्वासपात्र सहयोगी मानने लगे थे। दोनों नेताओं ने उन पर विविध जिम्मेदारियाँ डाली। पच्चीस वर्ष के लिमये को 1947 ई॰ में ‘एडमबर्ग’ में होने वाले ‘सोशलिस्ट इंटरनेशनल’ के सम्मेलन में भारत के सोशलिस्ट आंदोलन का प्रतिनिधि बना कर भेजा, तत्पश्चात् एशियाई सोशलिस्ट ब्यूरो के सेक्रेटरी के रूप में रंगून भेजा गया। 1949 ई॰ में पटना सम्मेलन में उन्हें पार्टी का संयुक्त मंत्री तथा केंद्रीय कार्यालय का इंचार्ज बनाया गया। समाजवादी आंदोलन, पार्टी तथा बाद के वर्षों में जनता पार्टी, लोकदल इत्यादि में पार्टी के विभिन्न पदों पर ये रहे।
आप कल्पना कीजिए कि मूलरूप से (महाराष्ट्र निवासी) होने के बावजूद ये चार बार बिहार से सांसद चुने गये। क्षेत्रीयता, जातिवाद इनके व्यक्तित्व के सामने बौने बने रहे। भारत के संसदीय इतिहास में मधु जी की भूमिका अविस्मरणीय रहेगी।
श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 13 फरवरी, 1995 को लोकसभा में मधुजी को श्रद्धांजलि देते हुए कहा। ‘श्री मधु लिमये के साथ मुझे इस सदन में, सदन के बाहर राजनैतिक क्षेत्र में काम करने का बहुत मौका मिला था। वह दोनों साम्राज्यवादों से लड़े। अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद से भी और पुर्तगाली साम्राज्यवाद से भी। जेल की लंबी यातना सही। उसी में उन्होंने अध्ययन करने का और विश्लेषण करने का गुण अर्जित किया। कुछ आदर्शों के प्रति उनकी आस्था थी। कुछ विचारों के लिए वह प्रतिबद्ध थे। प्रखर चिंतक थे। कठोर स्पष्टवादी थे। ऐसे स्पष्टवादी, कि कभी-कभी उनकी स्पष्टवादिता विवादों को खड़ा कर देती थी। मगर जो बात वे कहना चाहते थे, वह कह देते थे। अध्यक्ष महोदय, मुझे याद है कि संसद में कोई संविधान की पेचीदा समस्या हो, कोई नियमों से उलझा हुआ सवाल हो, मधु लिमये जब उधर से प्रवेश करते थे, तो अपने साथ संदर्भ-ग्रंथों का एक पूरा पहाड़ ले कर आते थे, जिस पहाड़ को देखने मात्र से लगता था कि आज दो-दो हाथ होने वाले है और सदन को तो, कठिनाई होती ही थी, कभी-कभी अध्यक्ष महोदय भी अपने लिए मुश्किल पाते थे। लेकिन वह अध्ययन करके आते थे। अपने पक्ष को तर्कसम्मत ढंग से प्रस्तुत करते थे। अब तो इस तरह का अध्ययन दुर्लभ हो गया है। लेकिन उन्होंने चिंतन और आचरण दोनों का मेल कर के दिखाया।
प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता एवं विद्वान संसद सदस्य हिरेन्द्र मुखर्जी ने मधुजी के संदर्भ में लिखा :
“In spite of no previous experience of legislative work, Limaye soon showed his mettle and won early recognition as a promising newcomer, “Madhu Limaye”, “impressed as soon as he entered the Lok Sabha, with his persistent and powerful and documented offensive against big money going-on”.
तीसरी लोकसभा में लिमये ने तहलका मचा दिया।
Mail, a British paper, described him as “Micheal Foot of Indian Parliament scarely ever off his feet,” and the Financial Times called him “the new crusader against corruption”. He was often termed as skilled angry young parliamentarian.
इंडियन एक्सप्रैस एवं हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व संपादक तथा प्रधानमंत्री के सूचना सलाहकार रहे श्री एच॰ के॰ दुआ का कहना है –
मधु लिमये में अनेक विशिष्ट गुण थे। मैंने उनको पार्लियामेंट में काम करते देखा है। हालाँकि उनकी पार्टी के सदस्यों की संख्या ज़्यादा नहीं थी, फिर भी तत्कालीन सरकार को वे नियंत्रण में रखते थे। सदन में मंत्री सबसे ज़्यादा मधु लिमये से ही सतर्क रहते थे। वे राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति सजग, सतर्क रहते हुए अपने भाषणों के लिऐ लाइब्रेरी में बेहद मेहनत करते थे। वे जब भी कोई विषय चुनते थे, तो उस पर इतनी रिसर्च करके आते थे कि वे अकेले ही पूरी पार्लियामेंट को झकझोर देते थे। वे अपनी तीक्षण बुद्धि और विलक्षण प्रतिभा के सहारे सदन में जो सफलता पाते थे, वह दुनिया के किसी भी सांसद के लिए ईर्ष्‍या की बात होती थी। श्री लिमये ने इन गुणों का बाद में पत्रकारिता के क्षेत्र में भी विस्तार किया।
The Mail of Madras once wrote : “Whenever he gets to speak, the entire Press gallery strives to catch every word. His ammunition is inexhaustible and his grasp of facts uncanny. Hard work and perseverance, all the sweating in the library, an incisive mined-all these go into making a virile racket-buster whose objective in fact, is not racket busting. By all account this is a Limaye in session. “Because of Limaye, many established procedures were questioned and some were changed.
आजकल भ्रष्टाचार की बड़ी चर्चा है। इलेक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया के आधुनिक उपकरणों तथा आरटीआई के माध्यम से जल्द ही तथ्यों को पकड़ा जा सकता है तथा इसका श्रेय भी उतनी तीव्रता से मिल जाता है। परंतु आप कल्पना कीजिये कि जब सारे रास्ते बंद थे, गोपनीय थे, उस समय मधु लिमये ने अकेले अपने दम पर भारतीय संसद में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो जेहाद छेड़ा था वह कल्पना से परे है।
स्टील पार्टर डील और अमीचंद प्यारेलाल कांड (सी॰ सुब्रह्मण्यम) कृत्रिम धागा तथा खादी भंडार के दियासलाई की चोरी का कांड (मनुभाई शाह) जयंती शिपिंग-धर्मतेजा, एपीजे शिपिंग (सदोवा पाटील) विदेशी मुद्रा की चोरी (वित्त मंत्री सचिन चौधरी), छोटी सादड़ी सोना कांड (राजस्थान के मुख्यमंत्री – मोहन लाल सुखाड़िया) ऐसे कई काले कारनामों को मधु जी ने संसद के सामने रखा। चौथी और पांचवी लोकसभा में क्रांति देसाई का होड़साल कांड पांडिचेरी लाइसेंस कांड, मारूति कांड आदि बातें काफी मशहूर हुई। सरकारी ग़लत कामों में या भ्रष्टाचार के मामले में वे किसी को बख्शते नहीं थे। आज उनके बस्ते से कौन-सी चीज़ बाहर निकलनी है, इस डर से सब मंत्री तथा वरिष्ठ अधिकारी डरते थे। परंतु लोकसभा में शेर की तरह दहाड़ने वाले मधु लिमये सेंट्रल हॉल में अपने दोस्तों के साथ ही नहीं बल्कि विरोधी लोगों के साथ ही कॉफी पीते हुए बाहर निकलते थे।
मराठी, संस्कृत, हिंदी अंग्रेज़ी भाषा के उद्भट विद्वान मधु लिमये अपनी सिद्धांत निष्ठा को अपने जीवन में पूर्णतः निवाहते थे। अंग्रेज़ी के वर्चस्व को तोड़ने के लिये वे सदैव संसद में हिंदी में बोलते थे। कई अंग्रेज़ी पत्रकारों ने उस समय लिखा कि अगर श्री लिमये अंग्रेज़ी में बोले तो उन्हें बड़ी पब्लिसिटी मिलेगी। 8 अप्रैल 1966 ई॰ को मद्रास के हिंदू ने लिखा।
“Mr. Limaye aloways speaks in Hindi. As one who raises intricate and interesting legal and constitutional points, he would get better coverage in the Press if he explains them in English instead of in Hindi”.
अपनी एकमात्र संतान अनिरुद्ध को मराठी माध्यम वाले स्कूल में पढ़ने के लिये उन्होंने भेजा। दो मील पैदल चल कर बालक स्कूल पढ़ने जाता था।
केंद्र में गै़र कांग्रेसी सरकार बनने पर कई बार मधुजी से मंत्री बनने का आग्रह किया गया, परंतु उन्होंने स्वीकार नहीं किया। बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री कर्पूरी ठाकुर तथा भूतपूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह ने उनसे 1980-82 ई॰ में राज्यसभा का सदस्य बनने का अनुरोध किया परंतु मधुजी ने मना कर दिया।
1975 ई॰ में जब आपातकाल लगाया गया तो उन्हें भी ‘मीसा’ में बंद कर जेल में भेज दिया गया। वे संसद सदस्य थे। 1976 ई॰ में जब लोकसभा में कार्यकाल एक वर्ष के लिये बढ़ाया गया तो उन्होंने जेल से ही संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। स्पीकार को लिखे पत्र में मधुजी ने लिखा कि समय बढ़ाना असंवैधानिक है, मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। साथी शरद यादव ने भी उनका अनुसरण करते हुए संसद से इस्तीफा भेज दिया।
स्वतंत्रता सेनानी संसद के चार बार सदस्य रहे मधु लिमये ने किसी प्रकार की पेंशन, भत्ता, ताम्रपत्र अथवा कोई लाभ नहीं लिया।
मधुलिमये की विद्वत्ता एवं संघर्ष मात्र संसद तक ही सीमित नहीं था। नागरिक अधिकारों के लिये उन्होंने सड़क से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई लड़ी। श्री लिमये तेईस बार गिरफ़्तार किये गये। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपने और अपने साथियों तथा आम जन के लिये अनेक बार बहस की। उनके अकाट्य तर्कों को सुनकर अदालते उनके पक्ष में निर्णय देती थी। नवंबर 1968 ई॰ में बिहार में सिविल नाफर्मानी में मधु जी गिरफ़्तार हो गये। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायिर कर दी। भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री एवं प्रसिद्ध वकील एम॰ सी॰ छागला सरकार की ओर से पेश हुए। मधु जी ने 90 मिनट तक अदालत में बहस की छागला साहब के तर्क बहुत कमज़ोर थे। न्यायाधीश ग्रोवर ने वकील छागला को लताड़ लगाते हुए कहा:
“You have no leges to stand on. You have failed to answer Madhu Limaye’s case”. Limaye was released uncornditionally by the Court.
छागला साहब ने बाद में अपनी आत्म कथा में मधु जी की तारीफ़ करते हुए लिखा:
“I remember…. Madhu Limaye, one the of the most sincere and hard working of the politicians. I had occasion later to cross swords with him in the Supreme Court. He had been arrested in Bihar in the course of some agitation, and he was challenging his arrest. I was briefed on behalf of the Bihar State. I admired the skill and acumen with which he argued his case, and his profound knowledge of crimin al law and practice, which can only be attributed to the hard work he had pur in studying his case. I was glad that he won”.
मधु जी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। राजनीति में डूबे रहने के बावजूद मधु जी को संगीत, कला, साहित्य, नाटक इत्यादि में खासी रुचि थी। उस समय के प्रख्यात लेखकों, पत्रकारों, संगीतज्ञों, कलाकारों का जमघट इनके घर पर लगा रहा रहता था। प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर ने उनके न रहने पर लिखा –
पूरे देश को ऐसा लगा कि मानो उनके जाने से एक ऐसा ‘गाइड चला गया जिससे बात करने से, सलाह लेने से सही दिशा प्राप्त की जा सकती थी। उनसे बात करके जो एक ‘गाइडेंस’ मिलती थी या एक ऐसी लाइन मिलती थी जिसमें ईमानदारी, वास्तविकता या एक विचारधार का समावेश हुआ करता था, जो अब नहीं मिलेगा। क्योंकि अब उनके जैसा कोई और निस्वार्थ, ईमानदार, सैद्धांतिक और बौद्धिक व्यक्ति रहा नहीं जो दूसरों को वही वैचारिक भोजन दे सके, जो वो दिया करते थे।
प्रख्यात नृत्यांगना सोनल मानसिंह मधु जी की शास्त्रीय संगीत की गहरी जानकारी के संदर्भ में लिखती है:
मधु लिमये से मिलने के बाद उनके अंदर के जिन मधु जी को मैंने जाना वे मधु जी बहुत गंभीर, शालीन, गरिमापूर्ण और बेहद सुलझे हुए व्यक्ति थे। उनका हृदय बेहद विशााल था और उनकी रुचियां बहुत विस्तृत थी।। ऐसा कोई विषय नहीं था जिसमें उनकी रुचि न रही हो। ‘महाभारत पर तो उनका अधिकार-सा था। संस्कृत भाषा और भारतीय बोलियों के वे जानकार थे। संगीत का भी उन्हें बड़ा शौक था। वे तुरंत बता दिया करते थे कि कौन सा राग बज रहा है। ज़रा सा स्वर ग़लत होते ही वे तुरंत पकड़ लिया करते थे।
भारत के प्रमुख साहित्यकार एवं पत्रकार धर्मयुग के भूतपूर्व संपादक डॉ॰ धर्मवीर भारती के शब्दों में –
दुबले-पतले, कृशकाय लेकिन तेजस्वी मधु लिमये सबसे अगली पंक्ति के साहसपूर्ण चिंतक योद्धा थे। कभी भी न थकने वाले, कभी भी समझौता न करने वाले, बड़े से बड़े झूठ के खिलाफ़ तन कर सच बोलने की अदम्य निष्ठा वाले, संकटों के भंवरजाल में बेहद बेचैन लेकिन अंदर कहीं बेहद धीर गंभीर।
उनकी मेघाशक्ति भी कितनी विलक्षण थी कि सोच कर आश्चर्य होता है। अगर कभी संस्कृति या इतिहास पर बात करते थे तो इतनी गहरी बारीकियों में जाते थे, घटनाएँ, वर्ष, विचारधाराएँ जैसे अविरल प्रवाह में बहती चली आती थीं, उनकी बातों में। कब पढ़ा होगा उन्होंने यह सब? कैसे यह सब उन्हें मानो कंठस्थ थे? और सबसे बढ़ कर यह कि घटना-चक्र, विचारधाराओं और सामाजिक स्थितियों का उनका अपना मौलिक विश्लेषण-कहीं कोई किताबीपन नहीं, कहीं कोई गतानुगतिक अनुकरण नहीं, कोई बासीपन नहीं, कोई तोतारटन्त नहीं, सब कुछ ताज़ा, और खरा।
और फिर कभी किसी को मौका मिला हो उनसे साहित्य, कला और संगीत पर बात करने का तो उसे लगा होगा कि वह व्यक्ति तो ऊपर से नीचे तक रस और लय का अद्भुत पारखी है। कितने आयाम थे उनके अनोखे व्यक्तित्व के। सोच कर श्रद्धा भी होती है और आश्चर्य भी।
सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर मधुजी ने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लिखना शुरू किया। यही उनकी आजीविका का साधन था। उन्होंने हिंदी, अंग्रेज़ी, मराठी में अनेकों पुस्तकें लिखी। वे मात्र राजनीतिज्ञ ही नहीं थे। उनका आंतरिक आनंद कुछ और ही था। उन्होंने अपने बारे में लिखा था –
‘शेक्सपीयर की सभी रचनाओं, महाभारत और ग्रीक दुःखान्त रचनाओं के साथ मुझे एकान्त आजीवन कारावास भुगतने में खुशी होगी और अगर जीवन के अंत तक मुझे यह अवसर नहीं मिला तो संत ज्ञानेश्वर की रचनाओं को पढ़ने की मेरी प्यास अतृप्त रहेगी।’
राजनीति, कला, दर्शन, साहित्य, संगीत आदि सब में उनकी रुचि थी और इससे उनका जीवन विविध रंगों का सुंदर समन्वय बन गया था। मधुजी के जीवन से प्रेरणा लेकर उनके अनुयायियों-साथियों ने राजनीति के खुश्क क्षेत्र में रहते हुए भी अन्य विधाओं में रुचि लेना प्रारंभ किया। उन्हीं की प्रेरणा से ग्वालियर में आईटीएम युनिवर्सिटी की ओर से प्रतिवर्ष तीन दिवसीय शास्त्रीय संगीत सम्मेलन आयोजित होता है। विश्वविद्यालय के सभागार का नामकरण ‘मधुलिमये स्मृति सभागार’ रखा गया है जिसका उद्घाटन प्रसिद्ध कम्यूनिस्ट नेता मरहूम ए॰ बी॰ वर्धन द्वारा किया गया था। उस अवसर पर बोलते हुए श्री ए॰ बी॰ वर्धन ने मधुलिमये की प्रशंसा करते हुए विशेष रूप से उनकी पुस्तक ‘सोशलिस्ट कम्यूनिस्ट इन्टरैक्शन’ को भारत के समाजवादी एवं साम्यवादी आंदोलन के लिए एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ माना था।
सारे सत्ता-प्रतिष्ठानों को अपनी अंगुली पर नचाने वाले, महात्मा गाँधी, डॉ॰ राममनोहर लोहिया के अनुयायी मधुलिमये ने अपना सारा जीवन एक साधारण नागरिक की तरह जिया। उनके घर पर कूलर, एयरकंडीशना, फ्रिज, टीवी इत्यादि नहीं था। घर पर आने वाले मेहमानों को मिट्टी के घड़े के पानी के साथ अपने हाथ से चाय-कॉफी पिलाकर, खिचड़ी खिला कर स्वागत करते थे। अनेक जन-संघर्षों में जेल यातनाओं, पुलिस की मार सहकर उनका शरीर अस्वस्थ ज़रूर रहता था परंतु मधुजी ने त्याग और मितव्ययिता की अपनी ज़िंदगी को गर्व और सहजता से लिया।
पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित ने बहुत ही सारगर्भित रूप से अपनी आत्मकथा में लिखा है
“I had know him in Parliament over the year when he was a very vocal member of the Oppostition. He is a man of integrity , and no matter which side he is on I cannot imagine his doing a mean or unworthy act. He would only act on a deep conviction and not for any personal benefit:.
समाजवादी आंदोलन के इस पुरोधा का 8 जनवरी 1995 ई॰ में निधन हो गया। मधु जी के अनन्य निकटतम लाड़ली मोहन निगम के एक वाक्य में ही मधु जी के जीवन का सार इस प्रकार है –
”उन्होंने अपने जीवन में न्यूनतम लिया अधिकतम दिया और श्रेष्ठतम जिया।”

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