ये उर है की मसलसल रूह में बसता
तवायफ़ की अनुराग में काफिर
अहोरात्र मदिरालय दिखता
ये शब ए दिन उसकी तस्वीर चूमता
ये चंचला मुझे तशवीश कर रही, हर लफ्ज को
बातील सा बता रही हैं
मैं इन अश्कों को कहाँ ले जाऊ
ये लतीफ से, अनिष्ट बनते जा रहे है
रूह, देह, मैं बिन तस्सवुर के होते जा रहे हैं
खत्म हुआ ये मंजर अब उर में कोई गिला नही
दिन तो ढल जाता, शब है की डूबा यातना में कही
तुम्हारी बाते जख्म की तरह कुरेद रही
हर जराहत को तस्सवुर से भर रही
ये तुम्हारी आँखे मुझे छतिग्रस्त करती
होंठ तुम्हारे मख़मली पंखुड़ी मधुशाला सी लगती
तुम्हारी मुश्क से लोक को एक चहक मिलती
लिखता श्लोक हर शब्द , तुम मेरे रूह में बसती
अब तो मुझे न सताओ वापिस आगार को आओ
क्यों ख़फ़ा होती मुझसे मुझमे अब जाँ नही
मेरी प्रियतम लौट आओ अब बचा कोई ख़्वाब नही
श्लोक कुमार