महालानत!

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शिवशरण त्रिपाठी
केरल के प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर के कपाट पांच दिन खुले रहे पर देश की सर्वोच्च अदालत के आदेश के बावजूद १० से ५० साल तक किसी हिन्दू महिला को भगवान अयप्पा के दर्शन करने की अनुमति नहीं दी गई। वैसे तो कड़े विरोध के चलते सुरक्षा की दृष्टि से संशकित साधारण महिलायें तो दर्शन करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाई हैं पर जिन मुठठी भर महिलाओं ने कोशिश भी की उन्हे मंदिर पहुंचने से काफी पहले ही जबरिया रोक लिया गया।
केरल की जिस बामपंथी सरकार के अगुवा मुख्यमंत्री पी.विजयन ने मा० सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू कराने के परिपे्रक्ष्य में लम्बी चौड़ी बाते कहीं थी वो अपने दायित्वों के निर्वहन में पूरी तरह असफ ल रहे।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन ने कहा था कि वो फैसले को हरहाल में लागू करायेंगे। उनकी सरकार फैसला के विरूद्ध कोई पुर्नयाचिका नहीं दाखिल करेंगी। उन्होने कहा था कि महिला श्रद्धालुओं को मंदिर में दर्शन से रोकने का अधिकार किसी के पास नहीं है। सभी लोगों को फैसला मानना होगा। सरकार का काम कोर्ट के आदेश को लागू करना है। आदेश के अनुसार महिलाओं के दर्शन के लिये जरूरी व्यवस्था करेंगे। हम यह सुनिश्चित करेंगे कि महिला श्रद्धालुओं को दर्शन के लिये भी जरूरी व्यवस्था की जाये।
उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में पूरे देश ने देखा कि केरल की सरकार एक महिला पत्रकार तक को सबरीमाला मंदिर में दर्शन हेतु प्रवेश न दिला सकी। उसके आला अधिकारी इधर-उधर की बातें करते रहे पर वे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का कतई पालन न करवा सके।
गुरूवार को दर्शन हेतु जाने वाली न्यूयार्क टाइम्स की भारत में संवाददाता ४५ वर्षीय सुहासिनी राज ने केरल सरकार व प्रशासन की पोल खोलते हुये यहां तक कह दिया कि उन्हे एक बार लगा था यदि वह वापस नहीं लौटती तो भीड़ उन्हे मार देगी। उन्होने भीड़ को बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन वो नहीं मानी। और उन्हे वापस लौटने को विवश करने के बाद उनके वाहन में भी तोड़-फोड़ की गई पर प्रशासन कुछ भी नहीं कर सका। उक्त घटना साफ  बताती है कि केरल सरकार  सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पालन करने की ठीक से खाना पूरी तक न कर सकी। उसने सिर्फ  और सिर्फ  लीपापोती का काम किया। देश के लोग उस समय स्तब्ध रह गये जब सुप्रीम कोर्ट के उक्त आदेश का खुला विरोध उस भाजपा द्वारा करते हुये देखा गया जो अपने को हिन्दुओं का सच्ची प्रतिनिधि व हितैषी बताते नहीं थकती। हद तो तब हो गई जब हिन्दू धर्म रक्षक का दम भरने वाले हिन्दू के सबसे बड़े संगठन संघ ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ठेंगा दिखाने का ही कार्य किया।
जरा संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान पर गौर करें-‘सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में पुरातन परम्परा को ध्यान में नहीं रखा जो समाज का अंग बन चुका है। अदालत के फैसले से समाज में शांति, स्थायित्व और समानता के बजाय बिखराव, अराजकता को बल मिला है।
इसी क्रम में केन्द्र सरकार ने गुरूवार को महज खाना पूरी करते हुये केरल सरकार को परामर्श जारी कर कहा कि मंदिर में प्रवेश करने की इच्छुक महिलाओं की सुरक्षा और कानून व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी राज्य की जिम्मेदारी है। साथ ही यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अनुपालन हो।
यहां यह सवाल उठना लाजिमी ही है कि जो भाजपा, जो संघ व जो अन्य हिन्दू संगठन अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध कर रहे है उन्होने आखिर उस केन्द्र सरकार पर दबाव डालकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटवाने का काम क्यों नहीं किया जिसने हाल ही में एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में विधेयक लाकर पलट दिया था। सबसे दुर्भाग्य पूर्ण व आश्चर्यजनक तो यह है अभी तक देश के  किसी भी दिग्गज धर्म-ध्वजवाहक शंकराचार्य ने भी महिलाओं को भगवान अयप्पा के दर्शन के पक्ष में बयान नहीं दिया है।
पूरी दुनिया देख रही है और थूक रही है कि किस तरह उसी देश में महिलाओं का खुला अपमान हो रहा है जिस देश में महिलाओं को उठते-बैठते देवी का दर्जा दिया जाता है। उसी देश में जिस देश में यह संदेश दिया जाता है ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता। पूरे देश के हिन्दुओं को महालानत है जो सृष्टि की जनक नारी को उस भगवान के ही दर्शन करने से वंचित करने/कराने पर तुले है जिसकी निगाह में दोनो समान है। कारण कि पुरूष व महिला दोनो ही उसकी कृतियां है। भला ऐसा कौन सा भगवान होगा जो रजस्वला महिला को अपने पास आने/अपने दर्शन से रोके।
देश के धर्म ग्रंथ नारी महिला व देवी शक्तियों से भरे पड़े हैं। यहां तक लिखा/बताया गया है कि जब-जब देवताओं/भगवानों पर संकट आया है तो देवी ने दुर्गा का रूप धारण कर उनकी रक्षा की है। जिस पुरूष समाज को नारी से इतनी ही घृणा है तो उस पुरूष को नारी से सदैव दूर रहने की आज ही शपथ लेनी चाहिये। खास कर सबरीमाला के उन पुजारियों व कमेटी के उन लोगों को अपनी माताओं/बहिनों सेे सदा के लिये सम्बन्ध तोड़कर  घोषणा करनी चाहिये कि वे उस घर में कतई प्रवेश नहीं करेगें, उस महिला से कतई सम्बन्ध नहीं रखेगें जहां और जो महिलायें रजस्वला होती हों।
सबरीमाला मंदिर के मुख्य पुजारी कंदारू राजीवरू का सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर यह टिप्पणी करना कि वो सिर्फ  हिन्दुओं के रीत-रिवाजों में और परम्पराओं के पीछे पड़ा रहता है उनकी अज्ञानता के साथ ही उनकी पुरूष आधिपत्य वाली विकृत मानसिकता को ही दर्शाता है।
राजीवरू इतनी जल्दी भूल गये कि देश के ही सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में तीन तलाक व हलाला से सम्बन्धित उन मुद्दो पर भी मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में फैसला सुनाया था जिन्हे मुस्लिम समाज धर्म से छोड़कर देखता रहा है और यदि उन्हे रजस्वला महिलाओं से हिन्दू धर्म की परम्पराओं के उल्लघंन की इतनी ही चिंता है तो वे भगवान अयप्पा से महिलाओं में प्रकृति की देन रजस्वला होने की क्रिया ही क्यों नहीं खत्म करवा देते!
वास्तव में ऐसे ही धर्म के ठेकेदारों ने हमारे महान वैज्ञानिक हिन्दू धर्म (वैदिक धर्म) को अपने सानुकूल नियमों से लांछित किया है। अब भी समय है पूरा हिन्दू समाज एक जुट होकर उन सभी कुरीतियों को डटकर विरोध करें जो स्वार्थी पंडों, पुजारियों द्वारा गढ़ी/मढ़ी गई हैं। आस्था का यह मतलब नहीं है कि हमारी पूज्यनीय ‘जननी ही अपने कर्ता भगवान के दर्शन से रोक दी जाये।
बाक्स में
धरा रह गया सुप्रीम कोर्ट का आदेश!
सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले की स्याही भी नहीं सूख पाई यानी फैसले को बामुश्किल पखवाड़ा ही बीता है जिसमेें उसने चार-एक के बहुमत से आदेश दिया था कि सभी हिन्दू महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में भगवान अयप्पा के दर्शन करने से न रोका जाये।
तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अगुवाई में गत २८ सितम्बर को ५ न्यायाधीशों की पीठ ने (४-१) कहा था कि संविधान के अनुच्छेद २५-२६ के तहत मंदिर में प्रवेश पर पाबन्दी सही नहीं है। संविधान पूजा में भेदभाव नहीं करता है।
सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि हमारी संस्कृति में महिला का स्थान आदरणीय है, जहां महिलाओं को देवी की तरह पूजा जाता है। जबकि उन्हे मंदिरों में प्रवेश से रोका जा रहा है।
मंदिर के पट सोमवार को बंद हो गये पर १० से ५० साल की किसी हिन्दू महिला को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया। मा० सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की अवहेलना को लेकर फि लहाल अभी तक कोई भी अवमानना याचिका दाखिल होने की जानकारी सामने नहीं आई है। ऐसे में क्या माननीय सुप्रीम कोर्ट को स्वयं मामले का संज्ञान लेकर कठोर कार्यवाही नहीं करनी चाहिये?
विडम्ना यह देखिये कि माननीय सर्वोच्च अदालत के आदेश के विरूद्ध अब तक आधा दर्जन के करीब पुर्नविचार याचिकायें दाखिल कर दी गई है।

1 COMMENT

  1. महालानत! कहते शिवशरण त्रिपाठी क्रोध को प्राप्त हो अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं|

    “श्री अयप्पन ब्रह्मचारी थे। इसलिए यहां वे छोटी बच्चियां आ सकती हैं, जो रजस्वला न हुई हों या बूढ़ी औरतें, जो इससे मुक्त हो चुकी हैं। जाति-धर्म का बंधन न मानने के बावजूद यह बंधन श्रद्धालुओं को मानना होता है। बाकी, धर्म निरपेक्षता की अद्भुत मिसाल यह देखने को मिलती है कि यहां से कुछ ही दूरी पर एरुमेलि नामक जगह पर श्री अयप्पन के सहयोगी माने जाने वाले मुसलिम धर्मानुयायी वावर का मकबरा भी है, जहां मत्था टेके बिना यहां की यात्रा पूरी नहीं मानी जाती।” जैसी अवधारणाओं के चलते यदि माननीय सर्वोच्च अदालत के आदेश के विरूद्ध अब तक आधा दर्जन के करीब पुनर्विचार याचिकाएं दाखिल कर दी गई है तो लेखक क्यों नहीं तनिक धैर्य से काम लेते?

    अन्य धर्मों की भांति हिन्दू धर्म का निर्देशन करती कोई आचार-व्यवस्था नहीं है, केवल समाज से जुड़ीं अवधारणाएं हैं जिनका पालन करते हिन्दू समाज संसार में अलौकिक सहनशीलता का प्रतीक बना हुआ है! बचपन में करवा-चौथ के व्रत हेतु माँ और दादी जी को सूर्योदय से पहले उठ सरगी में मिठाइयां व अन्य स्वादिष्ट पदार्थ खाते सोचता था मैं कब करवा-चौथ का व्रत रखूँगा! आज बूढ़ा हो गया हूँ और श्रीमती जी से मांग कर मिठाई खानी होती है लेकिन व्रत केवल श्रीमती जी ही रखती हैं| क्या मुझे सर्वोच्च न्यायालय के किवाड़ खटखटाने होंगे? बिलकुल नहीं, क्योंकि मैं हिन्दू हूँ और गर्व से भारतीय परम्परा का आदर करता हूँ|

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