महाराष्ट्र में राजनीतिक उजाला या काला धब्बा?

1
166

– ललित गर्ग –
अपने अनूठे एवं विस्मयकारी फैसलों से सबको चैंकाने वाले नरेंद्र मोदी एवं भाजपा सरकार ने महाराष्ट्र में सरकार बनाने की असमंजस्य एवं घनघोर धुंधलकों के बीच रातोंराज जिस तरह का आश्चर्यकारी वातावरण निर्मित करके सुबह की भोर में उसका उजाला बिखेरा वह उनके राजनीतिक कौशल का अद्भुत उदाहरण है। जिस राजनीतिक परिवक्वता ,साहस एवं दृढ़ता से उन्होंने न केवल बाजी को पलटा बल्कि एनसीपी के अजित पवार की मदद से सरकार बना ली है। सरकार गठन के लिए शिवसेना के नेतृत्व में एनसीपी और कांग्रेस के बीच सरकार गठन के लिए बातचीत अंतिम दौर में पहुंच चुकी थी लेकिन शनिवार सुबह बड़ा उलटफेर करते हुए देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री और एनसीपी विधायक दल के नेता अजित पवार ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले ली। यह खबर जंगल में आग की तरह फैली और उन तमाम राजनीतिक जानकारों की समझ को गलत साबित कर दिया, जो इस पक्ष को पूरी तरह से नजरअंदाज कर चुके थे। ऐसा नहीं है कि महाराष्ट्र की राजनीति में यह कोई पहली घटना है। यदि राज्य के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालेंगे तो आपको पता चलेगा कि मौका परस्ती वहां पहले भी होती रही है, तीनों राजनीतिक दलों की बैठकों में भी यह चल रहा था, और रातोरात बदले परिदृश्यों में भी यही हुआ, लेकिन यह घटना मोदी की अन्य घटनाओं की तरह लम्बे समय तक राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय बनी रहेगी।
पिछले कुछ दिनों से महाराष्ट्र में शिवसेना, कांग्रेस एवं एनसीपी के बीच हुई बैठकों एवं लिये गये निर्णयों से तय हो गया था कि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री के नाम पर तीनों पार्टियों में सहमति बन गयी है एवं मातोश्री पर उत्सव का वातावरण भी बन गया था। इन जारी हलचलों के बीच भाजपा के मौन एवं सन्नाटा से किसी को भी यह अन्दाजा नहीं था कि कुछ ऐसा अद्भुत घटित हो जायेगा। इतने बड़े और राजनीतिक पलटवार का किसी को भान तक नहीं था। शायद यही राजनीतिक परिपक्वता एवं कौशल भाजपा एवं नरेन्द्र मोदी को अनूठा साबित करता है। दो दिन पूर्व शरद पवार के साथ हुई बैठक को भी बहुत चतुराई से जन-चर्चा का विषय नहीं बनने दिया, जबकि उसी बैठक में यह राजनीतिक समीकरण संभवतः तय हो गया था। अब भले ही एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार यह कह रहे हों कि यह अजित पवार का फैसला है और उन्हें संज्ञान में लिए बिना अजित ने बीजेपी के साथ सरकार बनाई लेकिन महाराष्ट्र में एनसीपी की सहयोगी कांग्रेस इस पूरे उलटफेर के लिए एनसीपी एवं शरद पवार को ही जिम्मेदार मान रही है। पता नहीं क्यों,  कांग्रेस इतनी अपरिपक्व कैसे हो गयी, जिस शरद पवार ने उन्हें एक नहीं, अनेक अवसरों पर धता बताई, उन पर इतना बड़ा भरोसा कर लिया? इस तरह की कुछ बातें है जो कांग्रेस को लगातार कमजोर करती रही हैं, महाराष्ट्र के ताजा मसले में असली हार कांग्रेस की ही हुई है।
पिछले लम्बे समय से  महाराष्ट्र में जिस तरह के राजनीतिक समीकरण बन और बिगड़ रहे थे, वह माहौल लोकतंत्र की स्वस्थता की दृष्टि से उचित नहीं था, वहां हर क्षण लोकतंत्र टूट-बिखर रहा था, लेकिन इन टूटती-बिखरती राजनीतिक स्थितियों के बीच एकाएक शांतिपूर्ण विस्फोट हुआ, जिस तरीके से महाराष्ट्र में राजनीतिक मौसम ने अचानक करवट बदली है, उसे राज्य की राजनीति में धक्का तंत्र के नाम से जाना जाता है और शरद पवार को इसमें महारत हासिल है। महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार पर यह पंक्तियां बेहद सटीक बैठती हैं, न काहू से दोस्ती न काहू से बैर। ऐसा इसलिए क्योंकि वो कब किससे मिलेंगे, किससे नहीं, यह कोई नहीं जानता है। इस धक्का तंत्र की शुरुआत 1978 में हुई थी, जब कांग्रेस नेता वसंतदादा पाटिल राज्य के मुख्यमंत्री थे। उस समय 38 वर्ष के पवार ने कांग्रेस के ही कुछ विधायकों के साथ मिलकर पार्टी से विद्रोह कर दिया था और अपना एक अलग गुट बना लिया था। इस गुट का नाम प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट (पुलोदा) रखा गया था। कहा जाता है कि पवार ने उस समय पाटिल को धोखा देकर उनकी सरकार को खतरे में डाल दिया था। शुक्रवार की रात्री में एक बार फिर उन्हांेंने ऐसी ही अनहोनी कर दिखाया। कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने सबसे पहले प्रतिक्रिया देते हुआ कहा, ‘महाराष्ट्र के बारे में पढ़कर हैरान हूं। पहले लगा कि यह फर्जी खबर है। निजी तौर पर बोल रहा हूं कि तीनों पार्टियों की बातचीत 3 दिन से ज्यादा नहीं चलनी चाहिए थी। यह बहुत लंबी चली। मौका दिया गया तो फायदा उठाने वालों ने इसे तुरंत लपक लिया। इसके बाद सिंघवी ने शरद पवार पर तंज कसते हुए कहा, ‘पवार जी तुस्सी ग्रेट हो। अगर यह सही है तो मैं हैरान हूं।’ सचमुच जहां दोष एवं दुश्मन दिखाई देते हैं वहां संघर्ष आसान है। जहां ये अदृश्य है, वहां लड़ाई मुश्किल होती है। ऐसा ही महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ हुआ है। सचमुच महाराष्ट्र का रातोरात बदला राजनीतिक परिदृश्य हैरान करने वाला है। क्योंकि इन परिदृश्यों में कुछ भी जायज नहीं कहा जा सकता। असल में राजनीति में वैसे भी कुछ भी नैतिक एवं जायज होता ही कहा है।
अपने फैसलों से लगातार चैंकाती रही नरेंद्र मोदी सरकार ने महाराष्ट्र पर आज के अपने फैसले से विपक्षी दलों समेत हर किसी को हैरान कर दिया। तीनों सरकार बनाने वाले दलों, अन्य विपक्षी दलों, मीडिया भी स्वीकार कर रहे हैं कि उन्होंने इस ‘चैके’ की उम्मीद तो कतई नहीं की थी। अब भले ही सभी विपक्षी दल इसे लोकतंत्र के लिये काला धब्बा बताये या लोकतंत्र की हत्या? स्वयं को राजनीतिक धुरंधर मानने वाले भी बौने हो गये? कुछ तो है मोदी में करिश्मा या जादूई चमत्कार सरीका कि वे लगातार अनूठा एवं विलक्षण करके विस्मित करते हैं। उनके इस नये राजनीतिक तेवर पर भले ही प्रश्न खड़े किये जा रहे हो, लेकिन प्रश्न तो शिवसेना पर भी हैं कि उसने 30 साल पुरानी दोस्ती क्यों तोड़ी? जनता पूछ रही थी कि जब हमने आपको जनादेश दिया तो सरकार क्यो नहीं बना पाये? एक प्रश्न यह भी है कि  शिवसेना इतनी जल्दी बाला साहेब के सिद्धांतों को कैसे भूल गयी?  
संजय निरुपम का यह कहना कि कांग्रेस की शिवसेना के साथ गठबंधन की सोच एक गलती थी।’ सचमुच दो कट्टर विरोधी पार्टियों के बीच गठबंधन क्यों एवं कैसे स्वीकार्य हुआ। जनता ने तो इस तरह के गठबंधन के लिये अपने वोट नहीं दिये थे? यह तो जनता के मतों की अवहेलना एवं अपमान है। भले ही शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे इसे लोकतंत्र के नाम पर खेल बता रहे हो। लेकिन उन्होंने सत्तामद में जो किया, वह भी लोकतंत्र का खेल एवं मखौल ही था। महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ, उसे मूल्यहीन एचं दिशाहीन ही कहा जा सकता है।
महाराष्ट्र में लोकतंत्र इतना काला हो जायेगा, या सत्तालोभी उसे इतना प्रदूषित कर देंगे, किसी ने नहीं सोचा। मैं और कुछ भी कह कर ”लोकतंत्र“ की महत्ता को कम नहीं कर रहा हूं, पर ”लोकतंत्र“ हमारी राजनीतिक संस्कृति है, सभ्यता है, विरासत है। यह भी मानता हूं कि कुछ राजनीतिक स्थितियां शाश्वत हैं कि जैसे कहीं उजाला होगा तो कहीं अंधेरा होगा ही। कहीं धूप होगी तो कहीं छाया का होना अनिवार्य है। किसी को फायदा तो किसी को नुकसान होना ही है। पर अनुपात का संतुलन बना रहे। सभी कुछ काला न पड़े। जो दिखता है वह मिटने वाला है। लेकिन जो नहीं दिखता वह शाश्वत है। शाश्वत शुद्ध रहे, प्रदूषित न रहे। किसी व्यक्ति के बारे में सबसे बड़ी बात जो कही जा सकती है, वह यह है कि ”उसने अपने चरित्र पर कालिख नहीं लगने दी।“ अपने जीवन दीप को दोनों हाथों से सुरक्षित रखकर प्रज्वलित रखना होता है। लेकिन राजनीति में ऐसे लोगों का होना एवं ऐसी घटनाओं का श्रृंखलाबद्ध बढ़ना कब प्रारंभ होगा। क्या हमें किसी चाणक्य के पैदा होने तक इन्तजार करना पड़ेगा, जो जड़ों में मठ्ठा डाल सके। नहीं, अब तो प्रत्येक मन को चाणक्य बनना होगा।
राजनीतिक प्रदूषण एवं अनैतिकता से ठीक उसी प्रकार लड़ना होगा जैसे एक नन्हा-सा दीपक गहन अंधेरे से लड़ता है। छोटी औकात, पर अंधेरे को पास नहीं आने देता। क्षण-क्षण अग्नि-परीक्षा देता है। पर हां ! अग्नि परीक्षा से कोई अपने शरीर पर फूस लपेट कर नहीं निकल सकता। महाराष्ट्र जैसे प्रदूषित घटनाक्रमों से भारतीय लोकतंत्र को निजात मिले, यह जरूरी है। फिर भले सत्ता पर कोई देवेंद्र फडणवीस बैठे या ठाकरे? लोकतंत्र को शुद्ध सांसें मिलनी ही चाहिए।

1 COMMENT

  1. जब तीनों दल मिल कर सरकार बनाने की कोशिश कर रहे थे और भा ज पा स्वयं पहले सरकार बनाने की मनाही कर चुकी थी तो अब उसे रातों रात ऐसी क्या जरूरत हो गयी थी व एन सी पी जब समर्थन दे भी चुकी थी तो खुले आम सरकार बनाते , उस से पार्टी की गरिमा बढ़ती तथा शिव सेना का दोगलापन भी स्पष्ट हो जाता
    अन्यथा भाज पा को कांग्रेस के गर्भ से उत्प्न्न होने वाली इस कुपोषित सरकार को बनने देना चाहिए था , जो अपनी पोषण हीनता की वजह से स्वयं ही काल ग्रस्त हो जाती , और यह सब से अच्छा विकल्प था , लेकिन भा ज पा के नेतृत्व ने कर्णाटक में घटित अतीत से कोई सबक नहीं लिया और अब जिस तरह से बाड़ाबंदी हो रही है उस से उसे समर्थन मिलने की कोई सम्भावना नजर नहीं आ रही है और एक बार फिर अमित शाह व मोदी की किरकिरी होने की सम्भावना है

Leave a Reply to Mahendra Gupta Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here