महाशिवरात्रि का पर्व और भगवान शिव की महिमा

मृत्युंजय दीक्षित

 

महाशिवरात्रि का पर्व फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाने वाला एक महान पर्व है। इस पवित्र दिन लगभग पूरा भारत शिव भक्ति में तल्लीन हो जाता है और भगवान शिव के चरणों में अपने आप को अर्पित कर पुण्य अर्पित करना चाहता है।

ज्योतिशशास्त्र के अनुसार प्रतिपदा आदि 16 तिथियों के अग्नि आदि देवता स्वामाी होते हैं अतःजिस तिथि का जो देवता स्वामी होता है उस देवता का उस तिथि में व्रत पूजन करने से विशेष लाभ की प्राप्ति होती है । ईषान संहिता के अनुसार ज्योर्तिलिंग का प्रार्दुभाव होने से यह पर्व महाशिवरात्रि के नाम से लोकप्रिय हुआ। इस व्रत को हिंदू धर्म को मानने वाला प्रत्येक नागरिक करता है चाहे वह स्त्री हो या पुरूष या फिर किसी भी जाति वर्ग का।

शिवरात्रि व्रत व भगवान शिव की महिमा का वर्णन शिव पुराण में मिलता है जबकि भगवान शिव की महिमा वेदो में गायी गयी है । उपनिषदों में भी उनकी सर्वव्यापकता का वर्णन किया गया है। रूद्रहृदय, दक्षिणामूर्ति, नील रूद्रोपनिषद आदि उपनिषदों में भी शिव जी की महिमा का वर्णन मिलता है। भगवान शिव ने अपने श्रीमुख से व्रत की महिमा का वर्णन स्वयं ब्रहमा ,विष्णु और पार्वती जी को किया है। निष्काम तथा सकाम भाव से सभी व्यक्तियों के लिए यह महान व्रत परम हितकारक माना गया है।

शिव महिमा है कि जिनकी जिव्हा के अग्रभाग पर भगवान शंकर का नाम शिव विराजमान रहता है वे धन्य तथा महात्मा पुरूष हैं। महादेवजी थोड़ा सा बेल पत्र पाकर भी संतुष्ट हो जाते हैं। फूल और जल अर्पण से भी वे संतुष्ट हो जाते हैं। वे सभी के लिए कल्याण स्वरूप हैं। इसलिए सबको इनकी पूजा करनी चाहिए। शिव जी सबको सौभाग्य प्रदान करने वाले हैं।भगवान शिव कार्य और करण से परे हैं । ये निर्गुण, निराकार, निर्बाध, निर्विकल्प, निरीह, निरंजन, निष्काम, निराधार तथा सदा नित्यमुक्त हैं। भगवान शिव पंचाक्षर और शडाक्षर मंत्र विहित हैं तथा केवल ऊँ नमः शिवाय कहने मात्र से ही वे प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान शिव का पूजन करने के लिए शिवलिंग की प्रतिष्ठा करनी चाहिए।

जब से सृष्टि की रचना हुई है तब से भगवान शिव की आराधना व उनकी महिमा की गाथाओं से भण्डार भरे पड़े हैं। स्वयं भगवान श्रीराम व श्रीकृष्ण ने भी अपने कार्यो की बाधारहित इष्टसिद्धि के लिए उनकी साधना की और शिव जी के शरणागत हुए। भगवान श्रीराम ने लंका विजय के पूर्व भगवान शिव की आराधना की। भगवान शिव के भक्तों व उनकी आराधना की कहानियां हमारे पुराणों व धर्मग्रन्थों से भरी पड़ी हैं । राक्षसराज हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद श्री विष्णु की पूजा में तत्पर रहता था । भगवान शंकर ने ही नृसिंह का अवतार लेकर भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी। जो भी व्यक्ति चाहे वह कैसा भी हो या फिर किसी भी दृष्टि से उसने भगवान शिव की आराधना की हो भगवान शिव ने आराधना से प्रसन्न होकर सभी को आशीर्वाद दिया। यदि उन्होंने भूलवश किसी को गलत आशीर्वाद दिया या फिर किसी ने उनके आशीर्वाद का गलत उपयोग किया तो उन्होंने उसका उसी रूप में निराकरण भी किया। सभी कहानियों का एकमात्र सार यही है कि भगवान शिव अपने भक्तों की आवाज अवश्य सुनते हैं। भगवान शिव ने देवराज इंद्र पर कृपादृष्टि डाली तो उन्होंने अग्निदेव, देवगुरू बृहस्पति और मार्कण्डेय पर भी कृपादृष्टि की। भगवान शिव ही समस्त प्राणियों के अन्तिम विश्राम के स्थान हैं। भगवान शिव की महिमा अर्वणनीय है। हिंदी कवियों ने भी भगवान शिव की स्तुति व महिमा का गुणगान अपनी रचनाओं में किया है। हिंदी के आदि कवि चन्दवरदाई ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो के प्रथम खण्ड आदिकथा में भगवान शिव की वंदना की है। महान कवि विद्यापति ने भी अपने पदों में भगवान शिव का ही ध्यान रखा है । महान कवि सूरदास ने भी शिव भक्ति प्रकट की है। सिख धर्म के अंतिम गुरू गोविंद सिंह महाराज द्वारा लिखित दषम ग्रन्थ साहिब में भी शिवोपासना का विशेष वर्णन हुआ है।

भगवान शिव परम कल्याणकारी हैं । जगदगुरू हैं। वे सर्वोपरि तथा सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी हैं। उन्होंने इस समस्त संसार व सांसारिक घटनाओं का निर्माण किया है। सांसारिक विषय भोगों से मनुष्य बंधा है तथा शिवकृपा से ही वह पाशमुक्त हो सकता है।

आशुतोष भगवान शिव जब प्रसन्न होते हैं तो साधक को अपनी दिव्य शक्ति प्रदान करते हैं जिससे अविद्या के अन्धकार का नाश हो जाता है और साधक को अपने इष्ट की प्राप्ति होती हैं । इसका तात्पर्य है कि जब तक मनुष्य शिव जी को प्रसन्न्न कर उनकी कृपा का पात्र नहीं बन जाता तब तक उसे ईश्वरीय साक्षात्कार नहीं हो सकता।

भगवान शिव की महिमा का वर्णन गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी किया है। अतः कहा जा सकता है कि अस्तु योग, ज्ञान और भक्ति इन तीनों के परमार्थ तथा सभी विद्याओं, शास्त्रों, कलाओं और ज्ञान विज्ञान के प्रवर्तक आशुतोष भगवान शिव की आराधना के बिना साधक अभिष्ट लाभ नहीं प्राप्त कर सकता। शिवोपासना के द्वारा ही परम तत्व अथवा शिवत्व की प्राप्ति संभव है। भगवान शिव अपने भक्त की स्वल्प आराधना से भी प्रसन्न्न होकर उसका तत्क्षण परम कल्याण कर देते हैं इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को शिव पूजन और व्रत करना ही चाहिए उनका व्रत प्राप्त करना ही चाहिए।

परात्पर सच्चिदानंद परमेश्वर शिव एक हैं। वे विश्वातीत विश्वमय हैं । वे गुणातीत और गुणमय भी हैं । भगवान शिव में ही विश्व का विकास संभव है।भगवान शिव, सनातन, विज्ञानानन्दघन, परब्रम्ह हैं उनकी आराधना परम लाभ के लिए ही या उनका पुनीत प्रेम प्राप्त करने के लिए ही करनी चाहिए। सांसारिक हानि- लाभ प्रारब्ध वश होते रहते हैं, इनके लिए चिंता करने की बात नहीं। शिव जी की शरण लेने से कर्म शुभ और निष्काम हो जाएंगे। अतः किसी भी प्रकार के कर्मो की पूर्णता के लिए न तो चिन्ता करनी चाहिए और नहीं भगवान से उनके नाषार्थ प्रार्थना ही करनी चाहिए।

ऊँ नमः शिवाय या फिर अपनी जिव्हा पर शिव मात्र का स्मरण करने से व्यक्ति सांसारिक चिंताओें से मुक्त हो सकता है। पूरे भारत वर्ष में भगवान शिव के मंदिर विराजमान हैं।जहां पर भगवान शिव व उनके दरबार का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए भक्तों की भारी भीड़ लगी रहती है। दक्षिण में रामेश्वरम, गुजरात में सोमनाथ मंदिर व उ.प्र में काषी – विश्वनाथ मंदिरों की अपनी ही महिमा है । जम्म्ूा- कष्मीर में भगवान शिव के मंदिरों का कहना ही क्या । एक ऐतिहासिक, भव्य, गौरवषाली परम्परा व संस्कृति है भगवान शिव की आराधना की। शहरों, जिलों, कस्बों की गलियों में स्थित शिवालयों में भी भक्तगण अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए जुटे रहते हैं।

अतः परम कल्याण कारी सृष्टिकर्ता व पूरे विश्व के नीति नियंतक भगवान शिव की आराधना पूरे तन- मन- धन व एकाग्रचित होकर करनी चाहिए क्यूँकि वे ही हर प्रकार की दुःखों व चिंताओं का हरण करने में सक्षम हैं।

8 COMMENTS

  1. कब तक होता रहेगा और चलता रहेगा यह मौडरेशन? कितना समय​, कितने दिन लगा करते हैं इसमें?

    डा० रणजीत सिंह

  2. “राक्षसराज हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद श्री विष्णु की पूजा में तत्पर रहता था । भगवान शंकर ने ही नृसिंह का अवतार लेकर भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी” ऐसा आपने लिखा। परन्तु, क्या वे और उनकी गणना विष्णु अवतारों में नहीं होती – और की जाती? अतः दोनों बातें सत्य क्योंकर हो सकती हैं; क्या कृपा कर प्रकाश डालेंगे?

    डा० रणजीत सिंह (यू०के०)

  3. शिव की उपासना करने व व उसके महत्व को तो सभी बता रहें हैं ,लेकिन यह पर्व इसी दिन क्यों मनाया जाता है इसका तार्किक जवाब देने को कोई तैयार नहीं है,यह उनका जन्म दिन है या विवाह तिथि या गरल पान से सम्बंधित कोई प्रसंग ?क्या आप तार्किक प्रस्तुतीकरण प्रदान कर संतुष्ट करने का कष्ट करेंगे ?

    • ईशन संहिता में लिखा है —

      माघकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।
      शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः॥

      अर्थात् माघमास की कृष्णचतुर्दशी की महानिशा में आदिदेव महादेव सूर्य के समान दीप्प्तिसम्पन्न हो शिवलिङ्ग के रूप में आविर्भूत हुए थे।

      और महानिशा क्या है; इसके सम्बन्ध में महर्षि देवल ने लिखा है —

      महानिशा द्वेघटिके रात्रेर्मध्यमयामयोः।

      आशा है आपकी जिज्ञासा शान्त हो गयी होगी।

      सादर​,

      डा० रण्जीत सिंह

    • ईशन संहिता में लिखा है –
      माघकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।
      शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः॥

      अर्थात् माघमास की कृष्णचतुर्दशी की महानिशामें आदिदेव महादेव सूर्य के समान दीप्प्तिसम्पन्न हो शिवलिङ्ग के रूप में आविर्भूत हुए थे।

      और महानिशा क्या है; इसके सम्बन्ध में महर्षि देवल ने लिखा है —
      महानिशा द्वेघटिके रात्रेर्मध्यमयामयोः।

      आशा है आपकी जिज्ञासा शान्त हो गयी होगी।

      सादर,

      डा० रण्जीत सिंह

  4. “राक्षसराज हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद श्री विष्णु की पूजा में तत्पर रहता था । भगवान शंकर ने ही नृसिंह का अवतार लेकर भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी” ऐसा आपने लिखा। परन्तु, क्या वे और उनकी गणना विष्णु अवतारों में नहीं होती – और की जाती? अतः दोनों बातें सत्य क्योंकर हो सकती हैं; क्या कृपा कर प्रकाश डालेंगे?

    डा० रणजीत सिंह (यू०के०)

  5. शिवरात्रि की महिमा और शिव की महिमा अनंत है. भोले भंडारी एक सर्व हरा वर्ग,दीन ,पतित, कश्ती,और समाज की पंक्ति के आखिरी आदमी के देवता है. किन्तु इन्हे हम बिनाकरण टनो ,दूध, भांग ,घी से श्रृंगारित कर अपव्यय ता का सन्देश देते हैं,’रूद्र”का केवल मौखिक पाठान्तर न कर अर्थ सहित पढ़ा जाय और चिंतन किया जाय तो उंच नीच/जातिप्रथा/ अमीर गरीब का भेद ही समाप्त हो जाये.

    • जब भगवान् शिव की उपासना की विधि में ये सब वस्तुएं आती हैं, परिगणित हैं; तो फिर उनके प्रयोग को उनका अपव्यय क्योंकर कहा जा सकता है? जो व्यक्ति इन सब से पूजा/ अर्चना करने में असमर्थ हो; उसके लिये मात्र जल से अर्चना का भी तो विधान है।

      क्या भगवदर्चना को व्यर्थ और उसमें प्रयोग में आने वाली वस्तुओं के प्रयोग को उनका अपव्यय कहा जा सकता है? यदि हाँ; तो फिर तो किसान द्वारा खेत में डाले जाने वाले अन्न को भी अन्नका अपव्यय कहा जायगा।

      ’रूद्र” का केवल मौखिक पाठान्तर न कर अर्थ सहित पढ़ा जाय और चिंतन किया जाय तो उससे ऊंच नीच/जातिप्रथा/ अमीर गरीब का भेद ही समाप्त हो जायगा, यह कथन कुछ समझ में नहीं आया। जब समस्त सृष्टि ही त्रिगुणात्मक एवं भेदात्मक है; तो भेद को समाप्त कैसे किया जा सकता है? हमारे शरीर में भी तो भेद हैं। क्या उनको भी समाप्त कर दिया जायगा – कर देंगे और कर दिया जा सकता है?

      डा० रण्जीत सिंह

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