महावीर की क्रांति का अर्थ है संयम

भगवान महावीर जयन्ती- 6 अप्रैल 2020
– आचार्य डाॅ. लोकेशमुनि-
कोरोना वायरस के महासंकट से मुक्ति की अनेक योजनाएं करवटें ले रही हैं। आइए, इस वर्ष हम महावीर जयन्ती मनाते हुए कोरोना मुक्ति के लिये संयम एवं अनुशासन के गुणात्मक पड़ावों पर ठहरें, वहां से शक्ति, आस्था, संयम, संकल्प एवं विश्वास प्राप्त करें। हमें महावीर के जीवनदर्शन को जीवनशैली बनाने का संकल्प लेना होगा। वे एक क्रांतिकारी युगपुरुष थे, उनकी क्रांति का अर्थ रक्तपात नहीं! क्रांति का अर्थ है परिवर्तन। क्रांति का अर्थ है संयम! क्रांति अर्थात् स्वस्थ विचारों की ज्योति! क्रांति का अर्थ आग नहीं बल्कि सत्य की ओर अभियान। पूर्णता की ओर बढ़ना क्रांति है।
महावीर का जन्म भी विषमता एवं विसंगतिया भरे युग में आज से 2619 वर्ष पूर्व क्षत्रिय कुण्डनपुर के राजा सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला के घर-आंगन में हुआ। वह शुभ वेला थी-चैत्र शुक्ला त्रायोदशी की मध्य रात्रि। गर्भाधान के साथ ही बढ़ती हुई सुख सम्पदा को देख बालक का नामकरण किया गया-वर्धमान। जिसके साए में था मानवता का प्यार-दुलार और समता-संयम का संसार। नन्हें शिशु के अबोले पर सक्षम आभामण्डल का ही प्रभाव था कि पुत्र जन्म अनेक तत्कालीन समस्या का समाधान बना।
जैन धर्म के अनुसार कोई भी तीर्थंकर अतिमानव अवतार के रूप में नहीं अपितु सामान्य व्यक्तियों की तरह ही जन्म लेते हैं। मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री, शोषणविहीन सामाजिकता, नैतिक मूल्यों की स्थापना, अहिंसक जीवनशैली का समर्थन आदि तत्त्व भगवान महावीर के जीवन एवं दर्शन के मुख्य आधार हैं। ये तत्त्व जन-जन के जीवन का अंग बन सके, इस दृष्टि से महावीर जयन्ती को जन-जन का पर्व बनाने के प्रयासों की अपेक्षा है। मनुष्य धार्मिक कहलाए या नहीं, आत्म-परमात्मा में विश्वास करे या नहीं, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को माने या नहीं, अपनी किसी भी समस्या के समाधान में जहाँ तक संभव हो, अहिंसा का सहारा ले- यही महावीर की साधना का हार्द है। हिंसा से किसी भी समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता। हिंसा से समाधान चाहने वालों ने समस्या को अधिक उकसाया है। इस तथ्य को सामने रखकर जैन समाज ही नहीं आम-जन भी अहिंसा की शक्ति के प्रति आस्थावान बने और गहरी आस्था के साथ उसका प्रयोग भी करे।
नैतिकताविहीन धर्म, चरित्रविहीन उपासना और वर्तमान जीवन की शुद्धि बिना परलोक सुधार की कल्पना एक प्रकार की विडंबना है। धार्मिक वही हो सकता है, जो नैतिक है। उपासना का अधिकार उसी को मिलना चाहिए, जो चरित्रवान है। परलोक सुधारने की भूलभुलैया में प्रवेश करने से पहले इस जीवन की शुद्धि पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए। धर्म की दिशा में प्रस्थान करने के लिए यही रास्ता निरापद है और यही महावीर से जीवन से प्रेरणा मिलती है।
भगवान महावीर ने क्षमा यानि समता का जीवन जीया। वे परिस्थिति में सम रहे चाहे कैसी भी परिस्थिति आई हो, सभी परिस्थितियों में सम रहे। ‘‘क्षमा वीरो का भूषण है’’-महान् व्यक्ति ही क्षमा ले व दे सकते हैं। महावीर ने कहा-‘‘मित्ती में सव्व भूएसु, वेरंमज्झण केणइ’’सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर नहीं है। महावीर जयन्ती एक ऐसा सवेरा है जो निद्रा से उठाकर जागृत अवस्था में ले जाता है। अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ले जाता है। महावीर ने जब अपने युग की जनता को धार्मिक-सामाजिक, आध्यात्मिक एवं अन्य यज्ञादि अनुष्ठानों को लेकर अज्ञान में घिरा देखा, साधारण जनता को धर्म के नाम पर अज्ञान में पाया, नारी को अपमानित होते देखा, शुद्रों के प्रति अत्याचार होते देखे-तो उनका मन जनता की सहानुभूति में उद्वेलित हो उठा। वे महलों में बंद न रह सके। महावीर ने स्वयं प्रथम ज्ञान-प्राप्ति का व्रत लिया था और वर्षों तक वनों में घूम-घूम कर तपस्या करके आत्मा को ज्ञान से आलोकित किया। स्वयं ने सत्य की ज्योति प्राप्त की और फिर जनता में बुराइयों के खिलाफ आवाज बुलन्द किया। उनके द्वारा किए गये उपकार से मानव जाति उपकृत हुई। और वे युग-युग तक दुःखी जनता की श्रद्धा के आधार बन गये।
पापाचार, नारी-अत्याचार, अन्याय, रूढ़ परम्पराओं के बीच स्थायी न्याय, नीति तथा शांति की स्थापना के लिये महावीर अन्ततोगत्वा इसी निर्णय पर पहुंचे कि भारत के इन दुःसाध्य रोगों को साधारण राजनीतिक हलचलों से दूर करना संभव नहीं है। इसके लिए तो सारा जीवन ही उत्सर्ग करना पड़ेगा, क्षुद्र परिवार का मोह छोड़ कर ‘विश्व-परिवार’ का आदर्श अपनाना होगा। राजकीय वेशभूषा से सुसज्जित होकर साधारण जनता में घुला-मिला नहीं जा सकता। वहां तक पहुंचने के लिए तो ऐच्छिक लघुत्व स्वीकार करना होगा, अर्थात् भिक्षुत्व स्वीकार करना होगा। तीस वर्ष की युवावस्था में सहज रूप से प्राप्त सत्ता वैभव और परिवार को सर्प कंचुकीवत् छोड़ साधना के दुष्कर मार्ग पर सत्य की उपलब्धि के लिए दृढ़ संकल्प के साथ चल पड़े। बारह वर्ष से भी अधिक अवधि तक शरीर को भुला अधिक से अधिक चैतन्य के इर्द-गिर्द आपकी यात्रा चलती रही। ध्यान की अतल गहराइयों में डुबकियां लगाते हुए सत्य सूर्य का साक्षात्कार हुआ। वे सर्वज्ञ व सर्वदर्शी बन गये वह पावन दिन था वैशाख शुक्ला दशमी।
लक्षित मंजिल उपलब्ध हो चुकी थी। इसी अनुभूत सत्य को आपने जन-जन तक पहुंचाने  में उपदेशामृत की धार बहाई। वह अमृत सबके लिए समान रूप से था। उसमें जाति, वर्ण, रंग, लिंग, अमीर, गरीब की भेदरेखाएं नहीं थी। अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार हर कोई उसे उपलब्ध कर सकता था। महावीर ने समतामूलक समाज का उपदेश दिया। जहां राग, द्वेष होता है, वहां विषमता पनपती है। इस दृष्टि से सभी समस्याओं का उत्स है-राग और द्वेष। व्यक्ति अपने स्वार्थों का पोषण करने, अहं को प्रदर्शित करने, दूसरों को नीचा दिखाने, सत्ता और सम्पत्ति हथियाने के लिए विषमता के गलियारे में भटकता रहता है।
महावीर ने आकांक्षाओं के सीमाकरण की बात कही। उन्होंने कहा मूच्र्छा परिग्रह है उसका विवेक करो, संयम करो। आज की समस्या है- पदार्थ और उपभोक्ता के बीच आवश्यकता और उपयोगिता की समझ का अभाव। उपभोक्तावादी संस्कृति महत्वाकांक्षाओं को तेज हवा दे रही है, इसीलिए जिंदगी की भागदौड़ का एक मकसद बन गया है- संग्रह करो, भोग करो। महावीर की शिक्षाओं के विपरीत हमने मान लिया है कि संग्रह ही भविष्य को सुरक्षा देगा। जबकि यह हमारी भूल है। जीवन का शाश्वत सत्य है कि इंद्रियां जैसी आज है भविष्य मंे वैसी नहीं रहेगी। फिर आज का संग्रह भविष्य के लिए कैसे उपयोगी हो सकता है। क्या आज का संग्रह कल भोगा जा सकेगा जब हमारी इंद्रिया अक्षम बन जाएंगी। इसीलिये महावीर ने संयम, साधना एवं सादगी अपनाने का उपदेश दिया, आज कोरोना से मुक्ति में वही उपदेश सबसे प्रभावी एवं कारगर हो रहा है।
महावीर का दर्शन था खाली रहना। इसीलिए उन्होंने जन-जन के बीच आने से पहले, अपने जीवन के अनुभवों को बांटने से पहले, कठोर तप करने से पहले, स्वयं को अकेला बनाया, खाली बनाया। तप तपा। जीवन का सच जाना। फिर उन्होंने कहा अपने भीतर कुछ भी ऐसा न आने दो जिससे भीतर का संसार प्रदूषित हो। न बुरा देखो, न बुरा सुनो, न बुरा कहो। यही खालीपन का संदेश सुख, शांति, समाधि का मार्ग है। दिन-रात संकल्पों-विकल्पों, सुख-दुख, हर्ष-विषाद से घिरे रहना, कल की चिंता में झुलसना तनाव का भार ढोना, ऐसी स्थिति में भला मन कब कैसे खाली हो सकता है? कैसे संतुलित हो सकता है? कैसे समाधिस्थ हो सकता है? इन स्थितियों को पाने के लिए वर्तमान में जीने का अभ्यास जरूरी है। न अतीत की स्मृति और न भविष्य की चिंता। जो आज को जीना एवं संयम को जीना सीख लेता है, समझना चाहिए उसने मनुष्य जीवन की सार्थकता को पा लिया है और ऐसे मनुष्यों से बना समाज ही संतुलित हो सकता है, स्वस्थ हो सकता है, समतामूलक हो सकता है। कोरोना महासंकट से जूझ रही सम्पूर्ण मानवता के लिये जरूरत है महावीर के संयम एवं अनुशासन के उपदेशों को जीवन में ढालने की। महावीर-सी गुणात्मकता को जन-जन में स्थापित करने की। ऐसा करके ही हम समाज, राष्ट्र एवं समूची दुनिया को स्वस्थ बना सकेंगे। कोरा उपदेश तक महावीर को सीमित न बनाएं, बल्कि महावीर को जीवन का हिस्सा बनाएं, जीवन में ढालें, महावीर बनने की दिशा में गति करें।
आचार्य लोकेश

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